हिंदी निबंध और अन्य गद्य विधाएँ/मेले का ऊँट

बालमुकुंद गुप्त भारतेंदु युग के परवर्ती लेखक हैं। शिवशंभु के चिट्ठे, उर्दू बीबी के नाम चिट्ठी, हरिदास, खिलौना, खेलतमाशा, स्फुट कविता आदि उनके प्रमुख निबंध संग्रह हैं। ‘मेले का ऊँट’ उनका बहुचर्चित निबंध है जिसमें ऊँट का अतीत, वर्तमान और भविष्य पर प्रकाश डाला है। इस निबंध में राजनीतिक पराधीनता से मुक्त होने, अपने गौरव पूर्ण इतिहास से जुड़ने वालों एवं अपने देश के हित के बारे में सोचने वालों को यह सन्देश दिया है कि उनका स्वाभिमान व्यर्थ नहीं जाएगा। बालमुकुंद गुप्त के निबंध व्यक्तिपरक, व्यक्तिव्यंजक और विवेचनात्मक रूप में मिलते हैं। उन्होंने अनेक निबंध आत्माराम और शिवशम्भू शर्मा नाम से लिखा। भारतेंदु युग के अधिकतर लेखक पत्रकारिता से जुड़े हुए थे, द्विवेदी युग में गुप्त जी भी पत्रकारिता से जुड़े हुए थे, अनेक पत्रों का संपादन उन्होंने किया। उनके निबंधों में एक भी वाक्य या शब्द अनावश्यक नहीं मिलेगा। नपे-तुले शब्दों का प्रयोग उनके निबंधो में दिखाई देता है। शब्दों के प्रति काफी सचेत थे। अस्थिरता और अनस्थिरता शब्द को लेकर बालमुकुंद गुप्त और महावीर प्रसाद द्विवेदी के बीच काफी विवाद चला था। लेकिन बाद में महावीर प्रसाद द्विवेदी ने लिखा कि ‘अच्छी हिंदी बस एक आदमी लिखता था- बालमुकुंद गुप्त। प्रस्तुत है मेले का ऊँट निबंध-


मेले का ऊँट- बालमुकुंद गुप्त

भारत मित्र संपादक! जीते रहो, दूध बताशे पीते रहो। भांग भेजी सो अच्छी थी। फिर वैसी ही भेजना गत सप्ताह अपना चिट्‌ठा आपके पत्र (भारत मित्र) में टटोलते हुए ‘मोहन मेले’ के लेख पर निगाह पड़ी। पढ़कर आपकी दृष्टि पर अफसोस हुआ। भाई, आपकी दृष्टि गिद्ध की सी होनी चाहिए, क्योंकि आप संपादक हैं, किंतु आपकी दृष्टि गिद्ध की सी होने पर भी उस भूखे गिद्ध की सी निकली, जिसने ऊँचे आकाश में चढ़े-चढ़े भूमि पर गेहूं का एक दाना पड़ा हुआ देखा, पर उसके नीचे जो जाल बिछा रहा था वह उसे न समझा। यहाँ तक कि उस गेहूं के दाने को चुगने के पहले जाल में फंस गया।

मोहन- मेले में आपका ध्यान एक-दो पैसे की पूरी की तरफ गया। न जाने आप घर से कुछ खाकर गए थे या यों ही।एक पैसे की पूरी के दाम मेले में दो पैसे हों तो आश्चर्य नहीं करना चाहिए, चार पैसे भी हो सकते थे। यह क्या देखने की बात थी? तुमने व्यर्थ बातें बहुत देखीं, काम की एक भी तो देखते। दाईं ओर जाकर तुम ग्यारह सौ सतरों का एक पोस्टकार्ड देख आए, पर बाई तरफ बैठा हुआ ऊँट भी तुम्हें दिखाई न दिया। बहुत लोग उस ऊँट की ओर देखते और हँसते थे। कुछ लोग कहते थे कि कलकत्ते में ऊँट नही होता, इसी से मोहन मेले वालों ने इस विचित्र जानवर का दर्शन कराया है। बहुत-सी शौकीन बीवियाँ कितने ही फूल-बाबू ऊँट का दर्शन करके खिलते दाँत निकालते चले गए। तब कुछ मारवाड़ी बाबू भी आए। और झुक-झुककर उस काठ के घेरे में बैठे हुए ऊँट की तरफ देखने लगे। एक ने कहा, ‘ऊँटड़ो है’ दूसरा बोला, ‘ऊँटड़ो कठेते आयो?’ ऊँट ने भी यह देख होंठों को फड़काते हुए थूथनी फटकारी। भंग की तरंग में मैंने सोचा कि ऊँट अवश्य ही मारवाड़ी बाबूओं से कुछ कहता है जी में सोचा कि चलो देखें कि वह क्या कहता हे? क्या उसकी भाषा मेरी समझ में न आवेगी? मारवाड़ियों की भाषा समझ लेता हूँ तो क्या मारवाड़ के ऊँट की बोली समझ में न आवेगी? इतने में तरंग कुछ अधिक हुई। ऊँट की बोली साफ-साफ समझ में आने लगी। ऊँट ने उन मारवाड़ी बाबूओं की ओर थूथनी करके कहा-

‘बेटा! तुम बच्चे हो, तुम क्या जानोगे? यदि मेरी उमर का कोई होता तो वह जानता। तुम्हारे बाप के बाप जानते थे कि मैं कौन हूँ, क्या हूँ। तुमने कलकत्ते के महलों में जन्म लिया, तुम पोतड़ों के अमीर हो। मेले में बहुत चीजें हैं, उनको देखो। और यदि- तुम्हें कुछ फुरसत हो तो लो सुनो, सुनाता हूँ। आज दिन तुम विलायती फिटिन, टमटम और जोड़ियों पर चढ़कर नकलते हो, जिसकी कतार तुम मेले के द्वार पर मीलों तक छोड़ आए हो, तुम उन्हीं पर चढ़कर मारवाड़ से कलकत्ते नहीं पहुँचे थे। यह सब तुम्हारे साथ की जन्मी हुई है। तुम्हारे बाप पचास साल के भी न होंगे, इससे वह भी मुझे भली-भांति नहीं पहचानते। हाँ, उनके भी बाप हों तो मुझे पहचानेंगे। मैंने ही उनको पीठ पर लादकर कलकत्ते पहुँचाया है, वे हों तो मुझे पहचान लें।

आज से पचास साल पहले रेल कहीं थी? मैंने मारवाड़ से मिरजापुर तक और मिरजापुर से रानीगंज तक कितने ही फेरे किए हैं। महीनों तुम्हारे पिता के पिता तथा उनके भी पिताओं का घर-बार मेरी पीठ पर रहता था। जिन स्त्रियों ने तुम्हारे बाप और बाप के भी बाप को जना है, वे सदा मेरी पीठ को ही पालकी समझती थीं मारवाड़ में मैं सदा तुम्हारे द्वार पर हाजिर रहता था, पर यहाँ वह मौका कहाँ? इसी से इस मेले में मैं तुम्हें देखकर आँखें शीतल करने आया हूँ। तुम्हारी भक्ति घट जाने पर भी मेरा वात्सल्य नहीं घटता है। घटे कैसे? मेरा-तुम्हारा जीवन एक ही रस्सी से बंधा हुआ था। मैं ही हल चलाकर तुम्हारे खेतों में अन्न उपजाता था और मैं ही चारा आदि पीठ पर लादकर तुम्हारे घर पहुँचता था। यहाँ कलकत्ते में जल की कलें हैं, गंगाजी हैं, जल पिलाने का ग्वाले, कहार हैं, पर तुम्हारी जन्मभूमि में मेरी पीठ पर लादकर कोसों से जल आता था और तुम्हारी प्यास बुझाता था।

मेरी इस घायल पीठ को घृणा से न देखो। इस पर तुम्हारे बड़े (पूज्य), अन्न, रस्सियाँ यहाँ तक कि उपले लादकर दूर-दूर ले जाते थे। जाते समय मेरे साथ पैदल जाते थे और लौटते हुए मेरी पीठ पर चढ़े हुए हिचकोले खाते वह स्वर्गीय सुख लूटते आते थे। तुम रबड़ के पहिए वाली चमड़े की कोमल गद्दियोंदार फिटिन में बैठकर भी वैसा आनन्द प्राप्त नहीं कर सकते। मेरी बलबलाहट उनके कानों को इतनी सुरीली लगती थीं कि तुम्हारे बागीचों में तुम्हारे गवैयों तथा तुम्हारी पसंद की बीवियों के स्वर भी तुम्हें उतने अच्छे न लगते होंगे। मेरे गले में घंटों का शब्द उनको सब बाजों से प्यारा लगता था। फोंग के जंगल में मुझे चरते देखकर वे उतने ही प्रसन्न होते थे जितने तुम अपने बगीचों में भंग पीकर, पेट भरकर और ताश खेलकर।

भंग की निंदा सुनकर मैं चौंक पड़ा। मैंने ऊँट से कहा, “बस, बलबलाना बंद करो। यह बावला शहर नहीं जो तुम्हें परमेश्वर समझे। तुम पुराने हो तो क्या तुम्हारी कोई कल सीधी नहीं है जो पेड़ों की छाल और पत्तों से शरीर ढाँपते थे, उनके बनाए कपड़ों से सारा संसार बाबू बना फिरता है। जिनके पिता स्टेशन से सिर गठरी ढोते थे, वही पहले दर्जे के अमीर हैं, जिनके पिता स्टेशन से गठरी आप ढोकर लाते थे, उनके सिर पर पगड़ी सँभालना भारी है। जिनके पिता का कोई पूरा नाम न लेकर पुकारता था, वही बड़ी-बड़ी उपाधिधारी हुए हैं।

संसार का जब यही रंग है, तो ऊँट पर चढ़नेवाले सदा ऊँट पर ही चढ़े, यह कुछ बात नहीं। किसी की पुरानी बात मुँह खोलकर कहने से आजकल के कानून से हतक-इज्जत हो जाती है। तुम्हे खबर नहीं कि अब मारवाड़ियों ने ‘एसोसिएशन’ बना ली है, अधिक बलबलाओगे तो वह रिजोल्यूशन पास करके तुम्हें मारवाड़ से निकलवा देंगे। अतः तुम उनका कुछ गुणगान करो जिससे वह तुम्हारे पुराने हक़ को समझें और जिस प्रकार लार्ड कर्जन ने किसी जमाने में ‘ब्लैकहोल’ को उस पर लाठ बनवाकर उसे संगमरमर से मढ़वाकर शानदार बनवा दिया है उसी प्रकार उसी मारवाड़ी तुम्हारे लिए मखमली काठी, जरी की गद्दियाँ, हीरे पन्नों की नकेल और सोने की घंटियाँ बनवाकर तुम्हे बड़ा करेंगे और अपने बड़ों की सवारी का सम्मान करेंगे।

-श्री शिवशिम्भु शर्मा (भरतमित्र, 12 जून, 1901 ई.)