'लोभ और प्रीति' की अंतर्वस्तु और विश्लेषण

इकाई की रूपरेखा

1.0 उद्देश्य

1.1 प्रस्तावना

1.2 प्रतिपाद्य

1.2.1 विचार पक्ष

1.2.2 भाव-पथा

1.3 भाषा-शैली

1.4 निबंध में आचार्य शुक्ल का व्यक्तित्व

1.5 संदर्भ सहित व्याख्या

1.6 सारांश

1.7 बोध प्रश्नों के उत्तर

1.0 उद्देश्य

इस इकाई में आप आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के निबंध 'लोग और प्रीति का अध्ययन करेंगे। इस इकाई के अध्ययन के उपरांत आप

1.1 प्रस्तावना

पिछली इकाई में आपने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के मनोविकार संबंधी ललित निबंधों की विशेषताओं का अध्ययन किया। शुक्ल जी ने अपने इन निबंधों में महत्वपूर्ण मानवीय भावों और मनोविकारों का परिचय प्रत्त्तुत किया है। उनका तुलनात्मक महत्व स्पष्ट प्रत्तुत किया है। मानव जीवन में भावों और मनोविकारों की क्या भूमिका रही है इसे भी आप स्पष्ट रूप से समझ चुके है। इसके साथ ही शुक्लजी के ये निबंध सिर्फ मनोविकार संबंधी ललित निबंध नहीं है, वरन् उनके काव्यशास्त्रीय चिंतन के आधार भी हैं। अतः इन्हें काव्यशास्त्रीय निबंधों के रूप में भी पढ़ा जाना चाहिए। इस इकाई में आप आचार्य शुकल के एक विशेष निबंध लोभ और प्रीति में आए बिंदुओं का विस्तृत अध्ययन करेंगे।


1.2 प्रतिपाद्य

1.2.1 विचार पक्ष

'लोभ और प्रीति' मुख्यतः विचार प्रधान निबंध है। इसमें शुक्ल जी ने विस्तार से लोभऔर प्रीति का स्वरूप स्पष्ट किया है। दोनों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरांत उन्होंने लोभ और प्रीति की तुलना की है। दोनों की तुलना करते हुए उनके विकास को रेखांकित किया है। इसके साथ ही लोभ और प्रीति के विविध सोपानों को स्पष्ट किया है। अतः इस निबंध का पाठ-विश्लेषण करते हुए हम निबंध में अभिव्यक्त विचारों के अर्थ का अध्ययन करेंगे। यह अर्थ-विश्लेषण निबंध का विचार-पक्ष है जो इसका प्रमुख हिस्सा है। इसके बाद हम निबंध के भाव पक्ष का भी अध्ययन करेंगे।

लोभ और प्रीति का अर्थ

आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने संस्कृत काव्यशास्त्रियों द्वारा निर्धारित स्थायी भावों का विवेचन नहीं किया है, वरन् स्थायी भावों से व्यापक भावों का विवेचन-विश्लेषण किया है। उदाहरण के लिए श्रृंगार रस का स्थायी भाव रति होता है। शुक्लजी ने रति भाव पर निबंध नहीं लिखा, वरन् 'लोभ और प्रीति' विषय पर लिखा। रति भाव इन्हीं मनोभावों के अंतर्गत व्याख्यायित हो सकता है। बहुत दूर तक ये दोनों समानार्थक है, परंतु लोभ और प्रीति रति से व्यापक सामाजिक भाव है।

सामान्य व्यवहार में हम लोभ और प्रीति को परस्पर विपरीत भाव के रूप में देखते हैं, लेकिन शुक्लजी इन दोनों की एकता से अपने निबंध का प्रारंभ करते हैं। फिर इनके परस्पर विरोध की ओर संकेत करते हैं। शुक्लजी के अनुसार लोभ प्रीति में परिणत हो सकता है। लोभ, लोभ के रूप में रह भी सकता है। कई बार यह बदल जाता है। दोनों की सामान्य विशेषता तो यही है कि दोनों मनोविकार 'सुख या आनन्द देने वाली वस्तु के प्रति' होते हैं। जो वस्तु हमें अच्छी न लगे, आनन्द प्रदान करने में सक्षम प्रतीत न हो. सुंदर सुखद न हो, ऐसी वस्तु के प्रति हमारे मन में न लोभ जाग्रत होगा और न प्रेम।

कोई वस्तु या व्यक्ति हमें पसंद आया, अच्छा लगा, उससे हमें सुख या आनन्द का अनुभव हुआ अर्थात वह वस्तु या व्यक्ति आनन्दस्वरूप है। हम उस पर मुग्ध हुए तो यह लोभ या प्रेम नहीं हुआ। अच्छी चीजें सबको अच्छी लगती हैं। लोभ वह तब माना जाएगा, जब हमारे मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा जाग्रत होगी। "जब संवेदनात्मक अव्यव के साथ इच्छात्मक अवयव का संयोग होगा अर्थात् जब उस वस्तु को प्राप्त करने की, दूर न करने की, नष्ट न होने देने की, इच्छा प्रकट होगी, तभी हमारा लोभलोगों पर खुलेगा।"

किसी वस्तु का अच्छा लगना और उसे प्राप्त करने का प्रयत्न करना यह प्रेम और लोभ दोनों में समान रूप से होता है। दोनों प्रीतिकर वस्तु को पाना चाहते हैं। उसे अपने पास रखना चाहते हैं। दोनों में एक अंतर होता है। 'लोभ' सामान्योन्मुखी होता है और प्रेम' विशेषोन्मुखी। कोई भी अच्छी चीज देखी और यदि कोई लेने दौड़ पड़े, तो वह लोभ हुआ। किसी ने कोई खास वस्तु या व्यक्ति को देखा और उसे प्राप्त करने का प्रयास किया। बाद में उससे भी अच्छी कोई वस्तु या व्यक्ति देखा तो भी उसकी तरफ आकृष्ट नहीं हुआ तो वह प्रेमी हुआ। यही प्रेम का लक्षण है। इसके लिए शुक्ल जी ने वशिष्ठ मुनि की गाय का उदाहरण दिया। विश्वामित्र को वशिष्ठ की गाय

लोभ के विविध रूप

शुक्लजी ने लोभ की इच्छा में दो बातें बताई हैं-

1. प्राप्ति या सान्निध्य की इच्छा

2. दूर न करने या नष्ट न होने देने की इच्छा।

आगे उन्होंने प्राप्ति या सान्निध्य की इच्छा के भी दो रूप बताए हैं-

1. इतने संपर्क की इच्छा जितनी और किसी की न हो और

2. इतने संपर्क की इच्छा जितना सब कोई या बहुत से लोग एक साथ रख सकते हैं।

सबके साथ यदि आप भी किसी का सान्निध्य प्राप्त कर रहे हों, तब तक किसी को कोई कष्ट नहीं होता या सबकी अभिरुचि भिन्न-भिन्न हो, कोई किसी को चाहता है, दूसरा किसी और को चाहता है, तब किसी को कोई परेशानी नहीं होती। लोभसामाजिक विरोध उत्पन्न करने वाला भाव होता है। सब यदि उसी वस्तु को चाहते हों तो सब आपस में प्रतिद्वंद्विता की स्थिति में आ जाएँगे। तब कहा जाएगा कि 'अमुक व्यक्ति बहुत लोभी है, जो माँगने पर भी देता नहीं। उसी बात को दूसरा व्यक्ति कहेगा कि 'अमुक व्यक्ति बहुत लोभी है जो हमेशा माँगता ही रहता है। शुक्ल जी के अनुसार ये दोनों व्यक्ति लोभी कहे जाएँगे।

कई बार मनुष्य के लोभ पर दूसरे मनोविकारों का प्रभाव पड़ जाता है। दो लोभी व्यक्तियों के झगड़े में यदि किसी एक व्यक्ति को क्रोध आ गया तो और इस क्रोध के वशीभूत होकर उसने उस वस्तु को तोड़ दिया तो वह पक्का लोभी नहीं माना जाएगा। उसके लोभ पर क्रोध हावी हो गया है। पक्का लोभी कभी प्रिय वस्तु को नष्ट नहीं करता। वह धुन का पक्का होता है। वह इस मानसिकता में नहीं आता कि यदि मुझे नहीं मिला तो वह किसी और को भी न मिले। लेकिन लोभी व्यक्ति में ऐसी हिंसक मनोवृत्ति को भी देखा जा सकता है।

शुक्लजी मानते हैं कि लोभ के दो विषय होते हैं- सामान्य और विशेष। "अच्छा खाना, अच्छा कपड़ा, अच्छा घर तथा धन, जिससे वे सब वस्तुएँ सुलभ होती हों सबको भाता है। सब उसकी प्राप्ति की आकांक्षा करते हैं।" ये सब लोभ के सामान्य विषय के अंतर्गत आते हैं। इसे सहज वृत्ति मान कर समाज स्वीकार कर लेता है। ऐसे लोभी की निंदा नहीं होती। कभी-कभी व्यक्ति किसी खास चीज को चाहता है और तब समस्या आती है। फिर मनुष्य ने सामान्य लोभ की वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए मुद्रा का आविष्कार कर लिया। इस मुद्रा से. धन से उसे सब कुछ मिल सकता है। इसके परिणामस्वरूप "जो बातें पारस्परिक प्रेम की दृष्टि से, धर्म की दृष्टि से, की जाती थीं वे भी रूपये पैसे की दृष्टि से होने लगीं।" नए व्यापारिक युग के आगमन के प्रभाव की अभिव्यक्ति करते हुए शुक्लजी लिखते हैं कि 'पैसे से राज सम्मान की प्राप्ति, विद्या की प्राप्ति और न्याय की प्राप्ति होती है। जिनके पास कुछ रूपया है, बड़े-बड़े विद्यालयों में अपने लड़कों को भेज सकते हैं, न्यायालयों में फीस देकर अपने

शुक्लजी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि "लोभ' शब्द कहने में आजकल प्रायः धन की भावना होती है। इसका कारण यह है कि धन से अनेक सांसारिक कष्ट दूर हो सकते हैं, और सांसारिक सुख के साधन उपलब्ध हो सकते हैं। यहाँ तक कि "धन के बिना संसार में रहना संभव नहीं।" संसार में लोग धन संग्रह क्यों करते हैं इसका श्रेणी विभाजन किया जाए तो (1) कुछ लोग घोर कष्ट निवारण के लिए (2) कुछ और भी अधिक सुख प्राप्त करने करने के लिए (3) कुछ लोग भविष्य में सुख के अभाव की आशंका दूर करने के लिए और (4) कुछ लोग बिना किसी उद्देश्य-भावना के धन संग्रह करते हैं। इनमें से प्रथम श्रेणी के लोगों को धन का लोभी नहीं कहा जा सकता क्योंकि वे अपने कष्टों को दूर करने के लिए धन की कामना करते हैं। दूसरी श्रेणी के लोगों पर लोभ का आरोप लग सकता है। यह आरोप हर अगली श्रेणी के लोगों पर बढ़ता चलता है। प्रारंभिक तीन तरह के लोग फिर भी क्षम्य हैं। कष्ट निवारण, की इच्छा, अधिक सुख प्राप्ति की इच्छा, सुख के अभाव की कल्पना समाज की दृष्टि में फिर भी क्षम्य है।

अब यह अलग प्रश्न है कि कितना धन होने पर आपका वर्तमान और भविष्य का कष्ट निवारण हो सकेगा ! इसका निर्णय करना अभी भी सरल नहीं है। यह समय, परिस्थिति और समाज पर निर्भर करता है। तब भी कोई सीमा तो अवश्य हो सकती है। शुक्ल जी ने निबंध में इसका कोई तथ्यात्मक प्रत्युत्तर तो नहीं दिया, हाँ, इतना अवश्य कहा है कि किसी मनोविकार की उचित सीमा का अतिक्रमण प्रायः वहाँ समझा जाता है, जहाँ और मनोवृत्तियों दब जाती हैं या उनके लिए बहुत कम स्थान रह जाता है'। शुक्लजी मानते हैं और अपने विवेचन में कहते हैं कि मनुष्य को अपने जीवन में सभी मनोविकारों का उचित सामंजस्य बनाए रखना चाहिए। जहाँ किसी एक मनोविकार का आधिक्य हो जाता है, वहाँ अन्य मनोभाव शांत हो जाते हैं। यह मनुष्य की सजीवता के लक्षण नहीं है। जहाँ उसे क्रोध आना चाहिए, वहाँ उसे क्रोध की अनुभूति होनी चाहिए। जहाँ घृणा प्रकट करने की अनिवार्यता होनी चाहिए, वहाँ मनुष्य को उसे व्यक्त करना चाहिए। तभी मनुष्य सजीव माना जाएगा। अन्यथा उसके मस्तिष्क का वह भाग मृत-प्राय समझा जाएगा।

अन्य मनोविकारों की तुलना में लोभ अधिक स्थायी रहता है। वह अन्य मनोविकारों को दबाने में अधिक सक्षम होता है। यहाँ शुक्लजी ने क्रोध का उदाहरण दिया है तथा क्रोध से लोभ की तुलना की है। उदाहरण के लिए क्रोधी स्वभाव के व्यक्ति ऐसी बातों से भी चिढ़ जाता है, जिनसे सामान्य लोग नहीं चिढ़ते। जब ऐसी बातें उसके सामने आती हैं, तब उसे क्रोध आता है। यदि ऐसी बातें सामने न आए तो वह ऐसी बातों को खोजता नहीं, अपितु शांत रहता है। इसी तरह क्रोध से 'आग बबूला' व्यक्ति करुणा से विगलित हो जाता है या जब उसे एहसास होता है कि उसने गलत क्रोध किया है तो उसे लज्जा भी आने लगती है। क्रोध के कारण जो अन्य मनोवृत्तियाँ बाधित होती हैं,

[2/4, 11:55 PM] Varun Kumar: वह प्रायः क्षणिक होती हैं। क्रोध के आवेग के चरम क्षण के बाद वह शांत हो जाता है। लेकिन लोभ का प्रथम अवमन हैं- सुख की आकांक्षा। यह कभी समाप्त नहीं होती। लोभ बराबर बना रहता है। धन का लोभी धन पाकर संतुष्ट नहीं होता, उसका लोभ बढ़ता चला जाता है। और वह अपने धन की रक्षा के लिए उचित अनुचित के विवेक का परित्याग कर देता है। शुक्ल जी ने अत्यधिक लोभ के दो लक्षण बताए हैं-

1. असंतोष

2. अन्य वृत्तियों का दमन।

शुक्लजी का कहना है कि अधिक लोभी व्यक्ति कभी संतुष्ट नहीं हो पाता। धन मिल गया तो भी कोई संतोष नहीं होता। उसे और भी धन चाहिए होता है। इस लालसा के कारण उसे कभी सुख की अनुभूति नहीं होती। जिस सुख के लिए उसने धन का संचय किया और करता ही जा रहा है, उस धन के अभाव का असंतोष ही उसके हृदय में रहता है। यह "असंतोष अभाव-कल्पना से उत्पन्न दुःख" है और इस दुःख का कोई उपचार नहीं है। उसके लिए अभाव ही सत्य है। जो है उसका उसके लिए कोई मूल्य नहीं है। जो है उसका वह कभी भोग ही नहीं कर पाता। ऐसा व्यक्ति "न किसी को देखकर वह प्रसन्न होता है और न उसे देखकर कोई प्रसन्न होता है। इसी कारण हमारे प्राचीन संतों ने संतोष को सात्विक जीवन का अंग बताया है। हालाँकि असंतोष से मनुष्य की कर्मठता बढ़ती है। कई बार "असंतोष का अभाव आलस्य सूचक" भी होता है।

इस तरह शुक्लजी के अनुसार धन का यह लोभ 'मानसिक व्याधि' बन जाता है। इस व्याधि के कारण मनुष्य के अंतःकरण की शेष वृत्तियाँ "अनायास से कुण्ठित" हो जाती है। "जो लोभ और मान-अपमान के भाव को, करुणा और दया के भाव को, न्याय-अन्याय के भाव को, यहाँ तक कि अपने कष्ट निवारण या सुख भोग की इच्छा तक को दबा दे, वह मनुष्यता कहाँ तक रहने देगा। इसके बाद शुक्लजी ने इसके सामाजिक प्रभाव के कुछ उदाहरण दिए हैं। ऐसा लोभी कहाँ तक जा सकता है ? वह किसी अनाथ-विधवा का सर्वस्व हरण करने के लिए कुर्क अमीन लेकर चढ़ाई कर सकता है, जो अभिमानी धनिकों की दुत्कार सुनकर भी क्रोध प्रकट नहीं करता। ऐसे लोग तो वे होते हैं "जो मिट्टी में रूपया गाड़कर न आप खाते हैं और न दूसरों को खाने देते हैं। ऐसे लोग अपने परिजनों का कष्ट क्रन्दन भी नहीं सुनते। वे अधमरे होकर जीते हैं। उनका आधा अंतःकरण मारा गया समझिए। जो किसी के लिए नहीं जीते, उनका जीना न जीना बराबर है।"

इस तरह ऐसे लोभी अपने ही मन का दमन करते हैं। शुक्लजी उनके दमन को योगियों के दमन के बराबर समझते हैं। "लोभ के बल से काम और क्रोध को जीतते हैं, सुख की वासना का त्याग करते हैं, मान अपमान में समान भाव रखते हैं।" सामान्य रूप में ये अच्छी बाते हैं, लेकिन लोभियों के प्रसंग में ये निंदनीय ही मानी जाएँगी। ऐसे लोभियों को न "मक्खी चूसने में घृणा होती है और न रक्त चूसने में दया। सुंदर से सुंदर रूप देखकर वे अपनी एक कौड़ी भी नहीं भूलते। करुण से करुण स्वर सुनकर वे अपना एक पैसा भी किसी के यहाँ नहीं छोड़ते। तुच्छ से तुच्छ व्यक्ति के सामने हाथ पैर फैलाने में वे लज्जित नहीं होते।"

इस प्रकार शुक्लजी भाव को एक स्थिति में नहीं देखते। वे भाव को विकासमान रूप में देखते हैं। लोभ मात्रा के अनुसार घटने-बढ़ने वाला भाव है। इन भावों की मूल्य-मीमांसा भी शुक्लजी करते हैं और सामाजिक रूप से निंदनीय व्यक्ति की वे

निंदा करते हैं। लोभियों को संबोधित करते हुए इस प्रकरण के अंत में वे लिखते हैं, 'लोभियो ! तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा इन्द्रिय-निग्रह, तुम्हारी मानापमान-समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है, तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लजता, तुम्हारा अविवेक, तुम्हारा अन्याय विगर्हणीय है। तुम धन्य हो ! तुम्हें धिक्कार है!' इसी में शुक्ल जी पक्के लोभी और कच्चे लोभी में भेद करते हैं। पक्के लोभी लक्ष्य भ्रष्ट नहीं होते, कच्चे हो जाते हैं। पक्का लोभी अपने लोभ पर ध्यान केन्द्रित रखता है और विचलित नहीं होता।

प्रीति के विविध रूप

हालाँकि लोभ और प्रीति में कई बातें समान होती हैं, फिर भी वस्तु का लोभ लोभ ही रहता है, व्यक्ति के लिए लोभ प्रीति में बदल सकता है। इसका कारण यह है कि जिस तरह प्रेम करने वाले व्यक्ति में चेतना होती है, उसी तरह प्रिय पात्र में भी चेतना होती है, जिसे शुक्लजी 'मनस्तत्व' कहते हैं। बेजान वस्तु में चेतना नहीं होती। किसी व्यक्ति को चाहने वाले उसके बाह्य कारण से ही संतुष्ट नहीं होता, उसकी अंतर्वृति को भी प्रभावित करना चाहता है। उसके मन में अपने लिए जगह भी बनाना चाहता है। 'प्रभाव डालने की यह वासना प्रेम उत्पन्न होने के साथ ही जगती और बढ़ी चली जाती है। इसलिए शुक्लजी कहते हैं कि मानवीय संबंध बहुत जटिल होता है।

लोभ में आलंबन अप्रभावित रहता है। "प्रेम में आलंबन और आश्रय न केवल चेतना-संपन्न होते हैं, वरन् एक दूसरे के रूप में बदल भी जाते हैं।" आश्रय आलंबन बन जाता है और आलंबन आश्रय। इसलिए जब भी किसी व्यक्ति को कोई व्यक्ति पसन्द आता है तो वह सबसे पहले उसे यह सूचित करने लग जाता है कि वह उसको पसन्द करता है। उसे प्रेम करता है। ऐसा वह इसलिए करता है ताकि प्रिय का सान्निध्य या संपर्क उसे मिलता रहे, ताकि प्रेमी को सुख की अनुभूति होती रहे। फिर "प्रेम का पूर्ण विकास तभी होता है जब दो हृदय एक दूसरे की ओर क्रमशः खिंचते हुए मिल जाते हैं। इस अंतर्योग के बिना प्रेम की सफलता नहीं मानी जा सकती।" प्रेम की सूचना एक तरह का निमंत्रण है, जो प्रेमी अपने प्रिय को देता है। जब उसके पास सूचना पहुँच जाती है और प्रेमी आश्वस्त हो जाता है तब वह अपनी 'अच्छी छवि प्रिय के मन में बिठाता है। प्रेम का तो पहला तत्व ही है 'अच्छा लगना। 'अच्छी छवि' के लिए प्रेमी सोचता है कि अब मुझे तो प्रिय अच्छा लगा, अब मैं भी प्रिय को अच्छा लगूँ। अब वह अपनी छवि प्रस्तुत करता है। अच्छे कपड़े पहनकर रहता है। साफ-सुथरा दिखता है। शुक्लजी ने इस मनोवृत्ति का पूरा विवरण दिया है। "जब कभी किसी नवयुवक का चित्र किसी युवती की ओर आकर्षित होता है, तब ऐसे स्थानों पर जाते समय जहाँ उसके दिखाई पड़ने की संभावना होती है, उसका ध्यान कपड़े-लत्ते की सफाई और सजावट की ओर कुछ अधिक हो जाता है। सामने होने पर बातचीत और चेष्टा में भी एक खास ढब देखा जाता है। अवसर पड़ने पर चित्त की कोमलता, सुशीलता, वीरता, निपुणता इत्यादि का भी प्रदर्शन होता है।"

इस तरह आचार्य शुक्ल के अनुसार जब दो हृदयों का मिलन होता है. दोनों एक दूसरे को पसंद करने लगते हैं, अधिक से अधिक समय तक साथ रहने का प्रयास करने लगते हैं, तब उनके जीवन में विशेष आनंद उत्पन्न हो जाता है। प्रिय का आनन्द अपना आनन्द लगने लगता है। यहाँ तक होता है कि प्रेम के इस आनन्द के कारण संसार की अन्य चीजों में भी उन्हें आनन्द की अनुभूति होने लगती है। ऐसे में यदि कभी वियोग की स्थिति आती है, तब उनमें दुःख की मात्रा भी उतनी ही बढ़ती जाती है।

यहाँ पुनः शुक्ल जी प्रेम के दो क्षेत्रों की ओर इशारा करते हैं। प्रेम एकांत भाव में भी होता है और लोकजीवन के अन्य क्षेत्रों में भी होता है। कई बार प्रेमी चाहता है कि वह अपने प्रेम को संसार से छिपाकर सिर्फ अपने पास रखे। वे दो लोग रहें तथा और कोई न हो। शुक्ल जी इस एकांत प्रेम की प्रशंसा नहीं करते। शुक्लजी के अनुसार फारसी साहित्य में ऐसे "एकांतिक और लोक-बाह्य प्रेम की अधिकता दिखाई पड़ती है। भक्ति साहित्य में भी ऐसा एकांतिक प्रेम मिलता है।

दूसरा प्रेम लोकजीवन के बीच घटित होता है। शुक्ल जी इस प्रेम को व्यापक एवं काम्य मानते हैं। "प्रेम के दिव्य प्रभाव से उसे अपने आसपास चारों ओर सौन्दर्य की आभा फैली दिखाई पड़ती है, जिसके बीच वह बड़े उत्साह और प्रफुल्लता के साथ अपना कर्म सौन्दर्य प्रस्तुत करता है। वह अपने प्रिय को समग्र जीवन का सौन्दर्य जगत के बीच दिखाना चाहता है"। शुक्लजी को राम के जीवन में ऐसा सौन्दर्य और प्रेम दिखाई देता है। घर-परिवार, माता-पिता से प्रेम करते हुए नायक जब चलता है, तब "रास्ते में चींटियों को बचाता चलता है। किसी प्राणी का दुःख देख आँसू बहाता हुए रुक जाता है, किसी दीन पर निष्ठुर अत्याचार होते देख क्रोध से तिलमिलाता हुआ अत्याचारी का हाथ थामने के लिए कूद पड़ता है, बालकों की क्रीड़ा देख विनोद से पूर्ण हो जाता है, लहलहाती हुई हरियाली देख लहलहा उठता है और खिले हुए फूलों को देख खिल जाता है।" यह आचार्य शुक्ल के आदर्श प्रेम की परिकल्पना है, जिसमें सारे मानवीय भाव, मानवीय रूप में उपस्थित हो जाते हैं।

शुक्लजी प्रेम की एक ही स्थिति का चित्रण नहीं करते, वरन् अनेक स्थितियों का विवेचन करते हैं। राम ने सीता से प्रेम किया, सीता ने राम से प्रेम किया। यह दोनों का संपूर्ण प्रेम हुआ। कई बार ऐसी स्थितियाँ भी आती हैं, जहाँ एक पात्र तो प्रेम करता है, दूसरा उसके प्रेम को स्वीकार नहीं करता। वह किसी अन्य से प्रेम करने लग जाता है। उदाहरण के लिए गोपियाँ कृष्ण से प्रेम करती हैं, परंतु कृष्ण अन्यत्र व्यस्त हो गए हैं, तब भी गोपियों का प्रेम तो प्रेम ही माना जाएगा। हालाँकि इसमें सान्निध्य लाभ नहीं मिला। ऐसी स्थिति में गोपियाँ यही कामना करती हैं कि हमारे प्रिय जहाँ भी रहे खुश रहें। इसका एक और उदाहरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल देते हैं। वे बंकिमचंद्र चटर्जी के उपन्यास 'दुर्गेशनन्दिनी' की आयशा का जिक्र करते हैं- "जिस दिन से उसे जगत सिंह और तिलोत्तमा के प्रेम का पता चलता है, उसी दिन से वह अपने प्रेम को भौतिक कामनाओं से मुक्त करने लगती है और अंत में तिलोत्तमा के साथ जगत सिंह का विवाह कराकर पूर्ण शांति के साथ प्रेम के विशुद्ध मानस लोक में प्रवेश करती है।" हालाँकि इस तरह का प्रेम, लोक में कम पाया जाता है।

प्रिय को प्राप्त करने के लिए प्रेमी बहुत जतन करते हैं। शुक्लजी का मत है कि हृदय की दो कोमल वृत्तियाँ होती हैं-करुणा और प्रेम। अपने प्रेम के द्वारा वह प्रिय को मनाने की कोशिश तो करता ही है और यदि कोशिश करते-करते वह थक जाता है तो करुणा का सहारा लेता है। वह अपने प्रिय के मन में दया का संचार करना चाहता है। दया यदि उत्पन्न हो गई तो धीरे-धीरे प्रेम भी जाग्रत हो जाएगा। इस विश्वास से वह अपने विरह का वर्णन करके प्रिय तक पहुँचाता रहता है। सब मानते हैं और जानते हैं कि "दया मनुष्य मात्र का धर्म है और प्राणि मात्र उसके अधिकारी हैं।" यह दया प्रेम की बराबर सहायता करती है। शुक्ल जी ने इस मनोभूमि का विवेचन करते हुए लिखा है कि जिस प्रकार दूसरे के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने की जरूरत होती है, उसी प्रकार बराबर बनाए रखने की भी। प्रेम की रखवाली करने के लिए प्रेमी प्रिय के हृदय में दया को बराबर जगाता रहता है। फारसी और उर्दू शायरी में तो इसकी

हालाँकि साहित्य में रूप-लोभ को ही प्रेम का प्रवर्तक बताया गया है, परंतु शुक्लजी एक दूसरे प्रकार के प्रेम का भी उल्लेख करते हैं। इसमें न तो रूप का वर्णन होता है और न प्रिय मुग्ध होता है। फिर भी उनमें प्रेम भाव पनप जाता है। ऐसा भाव धीरे-धीरे स्वतः पनपता है और स्थायी रूप से बना रहता है। इसे शुक्लजी ने साहचर्यजन्य प्रेम की संज्ञा दी है। साथ रहते-रहते जो प्रेम जाग्रत होता है वह गार्हस्थिक प्रेम होता है। गोदान' में होरी और धनिया का का प्रेम इसी तरह का साहचर्यजन्य प्रेम है। कवियों की दृष्टि इस प्रेम की तरफ कम गई है। "भाई-बहिन, पिता-पुत्र, इष्ट मित्र से लेकर चिर-परिचित, पशु-पक्षी और वृक्ष तक का प्रेम इसी तरह का होता है। रूप, गुण की भावना से उत्पन्न प्रेम भी आगे चलकर कुछ दिनों में यह साहचर्य जन्य स्वरूप प्राप्त करता है। इसी के अंतर्गत शुक्लजी ने देश प्रेम को भी गिना है।

देश प्रेम का स्वरूप

शुक्लजी जिस समय साहित्य-सर्जन कर रहे थे, वह समय राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का समय था। उस दौर में देश प्रेम की भावना की अभिव्यक्ति बहुत स्वाभाविक थी। हिंदी के लगभग सभी बड़े रचनाकारों ने देश प्रेम की भावनाओं से ओत प्रोत रचनाएँ की थी। इस कारण शुक्लजी ने प्रेम को परिभाषित करते हुए उसमें देश प्रेम को भी स्थान दिया। उन्होंने धनी राष्ट्रों के देश प्रेम को साम्राज्यवादी लिप्सा से जोड़ा तथा भारत के लिए इसे देश की प्रतिष्ठा से जोड़ा।

लोभ और प्रेम के अंतर को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि आज के युग में सब बातें रूपये-पैसे की दृष्टि से होने लगी हैं। पहले जो बातें "परस्पर प्रेम की दृष्टि से की जाती थीं, धर्म की दृष्टि से की जाती थीं, अब इस दृष्टि से नहीं की जाती।" अब जबकि सबकी "टकटकी टके पर" लग गई तो राष्ट्रों की राजनीतिक दृष्टि में भी परिवर्तन होने लगा। अब "व्यापार नीति राजनीति का प्रधान अंग हो गई। इस प्रकरण को आगे बढ़ाते हुए शुक्लजी साम्राज्यवादी देशों की आर्थिक नीतियों की आलोचना करते हैं। उन्होंने कहीं इंग्लैंड का जिक्र नहीं किया, लेकिन इन सब बातों का निहितार्थ इंग्लैंड सहित यूरोपीय देशों की आर्थिक नीति ही था। उन्होंने लिखा, "बड़े-बड़े राज्य माल की बिक्री के लिए लड़ने वाले सौदागर हो गए। जिस समय धर्म की प्रतिष्ठा थी, एक राज्य दूसरे राज्य पर कभी-कभी विजय कीर्ति की कामना से डंके की चोट पर चढ़ाई करता था। अब सदा एक देश दूसरे देशों का चुपचाप दबे पाँव धन हरण करने की ताक में लगा रहता है। इसी से भिन्न-भिन्न राज्यों की परस्पर संबंध समस्या इतनी जटिल हो गई है। कोई-कोई लोभवश इतना अधिक माल तैयार करते हैं कि उसे किसी देश के गले मढ़ने की फिक्र में दिन-रात मरते रहते हैं। जब तक यह व्यापारोन्माद दूर न होगा, तब इस पृथ्वी पर सुख-शांति न होगी।"

शुक्लजी मानते हैं कि यह होगा अवश्य और पुनः क्षात्र धर्म की प्रतिष्ठा होगी। हालाँकि ऐसा नहीं हुआ और आगे चलकर विश्वयुद्ध हुए। यद्यपि इस प्रक्रिया में शुक्लजी ने साम्राज्यवादियों के लोभ का यथार्थपरक विश्लेषण कर दिया, उन्होंने लोभ तक ही अपने आपको सीमित रखा। आगे उन्होंने देश-प्रेम की चर्चा की। उनका मत है कि "जन्मभूमि का प्रेम, स्वदेश-प्रेम यदि वास्तव में अंतःकरण का कोई भाव है तो स्थान के लोभ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।" इस लोभ के लक्षणों से शून्य देश-प्रेम कोरी बकवाद या फैशन के लिए गढ़ा हुआ शब्द है। इसके बाद देश-प्रेम को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं- "यदि किसी को अपने देश से प्रेम है तो अपने देश के मनुष्य, पशु-पक्षी, लता, गुल्म, पेड़, पत्ते, वन, पर्वत, नदी, निर्झर सबसे प्रेम होगा; सबको वह वाह भरी दृष्टि से देखेगा, सबको सुध करके वह विदेश में आँसू बहाएगा। जो यह भी नहीं सुनते कि चातक कहाँ चिल्लाता है, जो आँख भर यह भी नहीं देखते आम प्रणय सौरभ-पूर्ण मंजरियों से कैसे लदे हुए हैं, जो यह भी नहीं झांकते कि किसानों के झोंपड़ों के भीतर क्या हो रहा है, वे यदि दस बने-ठने मित्रों के बीच प्रत्येक भारतवासी की औसत आमदनी का परता बताकर देश-प्रेम का दावा करें, तो उनसे पूछना चाहिए कि भाइयो! बिना परिचय के यह प्रेम कैसा ? जिनके सुख-दुख के तुम कभी साथी न हुए उन्हें तुम सुखी देखना चाहते हो. यह समझते नहीं बनता। उनसे कोसों दूर बैठे-बैठे, पड़े पड़े या खड़े-खड़े, तुम विलायती बोली में अर्थशास्त्र की दुहाई दिया करो, पर प्रेम का नाम उसके साथ न घसीटो। प्रेम हिसाब-किताब की बात नहीं है। हिसाब-किताब करने वाले भाड़े पर भी मिल सकते हैं, पर प्रेम करने वाले नहीं।"

यहाँ फिर शुक्लजी प्रेम की परिभाषा को देश-प्रेम से जोड़ते हैं और यह कि प्रेम की पहली सीढ़ी 'परिचय' है। यदि देश से प्रेम करना चाहते हैं तो देश से परिचय प्राप्त करना आवश्यक है। इस तरह देश जब हमारी आँखों में बस जाएगा, तब हमारे मन में इच्छा जागेगी कि यह हमसे कभी न छूटे। वह सदा खुशहाल रहे। यहाँ दुःख-दारिद्र्य न हो। यह प्रेम का सूत्र है। आगे वे कहते हैं कि देश के अतीत का स्मरण करो। राम, कृष्ण, भीम, अर्जुन, विक्रम, कालिदास, भवभूति का स्मरण करो। इस तरह से देश से परिचय होगा और फिर प्रेम। शुक्लजी के अनुसार यही देश प्रेम का रास्ता है। अर्थात् देश-प्रेम का अर्थ हुआ देश के भूगोल, अतीत और इतिहास के माध्यम से देश के निवासियों से प्रेम।

जब परिचय से प्रेम का इतना गहरा संबंध है तो व्यक्ति अपने घर, नगर, राज्य या देश से प्रेम करते समय घर को प्राथमिकता देगा ही और देता भी है। हालाँकि शुक्लजी मानते हैं कि कई बार इसका उल्टा भी होता है। संकट के समय में होना भी चाहिए। संकट के समय में लोग अपने देश के लिए अपने घर का परित्याग कर देते हैं। आम तौर से लोग अपने घर की रक्षा के लिए दूसरे घर से लड़ पड़ते हैं। पुर की रक्षा के लिए दूसरे पुर से या राज्य की रक्षा के लिए दूसरे राज्य से लड़ पड़ते हैं। यह संकुचित हृदय के संकुचित प्रेम की निशानी है। शुक्लजी इसको ठीक नहीं समझते ।

शुक्लजी के अनुसार प्रेम का अंतिम लक्ष्य मानव मात्र से प्रेम होना चाहिए। "जिनकी आत्मा समस्त भेदभाव भेदकर अत्यंत उत्कर्ष पर पहुँची हुई होती है, वे सारे संसार की रक्षा चाहते हैं-जिस स्थिति में भूमण्डल के समस्त प्राणी, कीट-पतंग से लेकर मनुष्य तक सुखपूर्वक रह सकते हैं, उसके अभिलाषी होते हैं। ऐसे लोग विरोध से परे हैं। उनसे जो विरोध रखें, वे सारे संसार के विरोधी हैं, वे लोक के कंटक हैं।" लोभ से

निबंध के अंत में लोभ या प्रेम की विलक्षणता की चर्चा करते हुए शुक्लजी कहते हैं कि यह ऐसा भाव है 'जिनकी व्यंजना हँसकर भी की जाती है और रोकर भी।' अर्थात् यह सुखात्मक भी होता है और दुखात्मक भी। इसीलिए संस्कृत आचार्यों ने श्रृंगार रस के भी दो भेद किए हैं-संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार। उनके अनुसार यह सब आलंबन की उपस्थिति पर निर्भर करता है। आलम्बन के उपस्थित रहने पर आनंद और उसके न रहने पर दुःख उत्पन्न होता है। इसी तरह यह भाव अन्य भावों की तुलना में स्थायी रहता है। इसी कारण शृंगार को विद्वान लोग 'रस राज' शब्द से पुकारते हैं।

1.2.2 भाव-पक्ष

विचार-पक्ष का विस्तृत अध्ययन करने के उपरांत हम इस निबंध के भाव पक्ष का विवेचन करेंगे। शुक्लजी अपनी भावनाओं और मंतव्यों की अभिव्यक्ति करते हैं। आचार्य शुक्ल के निबंध भाव-प्रधान नहीं है। वे सिर्फ अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए निबंध नहीं लिखते। वे विषय को स्पष्ट करने के लिए निबंध लिखते हैं। हालाँकि विषय का बौद्धिक विवेचन करते हुए कई बार वे भाव विह्वल भी हो जाते हैं। अपनी भावनाओं को भी अभिव्यक्त करने लग जाते हैं। इस क्रम में प्रेम, सहानुभूति सात्विक क्रोध, घृणा आदि भावों को भी अभिव्यक्त करने लग जाते हैं। हालाँकि उनके निबंधों में ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं। जब भी ऐसे अवसर आते हैं, शुक्लजी खुलकर अपने हृदयगत भावों को अभिव्यक्त करते हैं। यह अवश्य है कि वे इस अभिव्यक्ति के तुरंत बाद अपने मूल विषय पर आ जाते हैं और मूल विषय का वैचारिक विवेचन करने में रम जाते हैं। लोभ और प्रीति निबंध को इस दृष्टि से भी पढ़ा जा सकता है।

जब तक शुक्लजी अपने विषय को स्पष्ट करते हैं, तब तक वे कोई भावनात्मक प्रतिक्रिया नहीं देते। ज्यों ही वे किसी स्थिति से असहमत होते हैं तब तुरंत भावनात्मक प्रतिक्रिया दे देते हैं। ऐसे में उनका भावनात्मक आवेग उदाहरणों में सबसे अधिक प्रकट होता है। 'लोभ और प्रीति' में शुक्लजी लोभी व्यक्ति को पसंद नहीं करते। इसलिए मिठाई के लोभी व्यक्ति पर टिप्पणी करते हुए वे लिख जाते हैं "चौबेजी पेट भर भोजन के ऊपर भी पेड़े पर हाथ फेरते हैं।" अत्यधिक क्रोध की स्थिति में वे व्यंग्य करते हैं। "लक्ष्मी की मूर्ति धातुमयी हो गई, उपासक सब पत्थर के हो गए।" हल्का-सा क्रोध व्यक्त करते हुए वे कहते हैं, "मोटे आदमियो! तुम जरा-से दुबले हो जाते-अपने अंदेशे से ही सही तो न जाने कितनी ठठरियों पर मांस चढ़ जाता।"

शुक्लजी देश प्रेम के समर्थक थे। प्रेम को देश प्रेम तक विकसित करते हुए शुक्लजी भावुक हो गए। अपनी भावनाओं को उन्होंने इन शब्दों में व्यक्त किया है, "बाहर निकलो आँखें खोलकर देखो कि खेत कैसे लहलहा रहे हैं, नाले झाड़ियों के बीच से कैसे बह रहे हैं, टेसू के फूलों से वनस्थली कैसी लाल हो रही है, चौपायों के झुंड चरते हैं, चरवाहे तान लड़ा रहे हैं, अमराइयों के बीच में गाँव झाँक रहे हैं। उनमें घुसो, देखो क्या हो रहा है।" प्रेम के पक्ष के साथ शुक्लजी ने निबंध में लोभियों के अनेक उदाहरण दिए हैं। इन उदारहणों में उनका भाव पक्ष स्वतः प्रकट हो रहा है।

अपनी नाराजगी और क्रोध को दबाते हुए उसे परिहास और व्यंग्य में मिलाकर व्यक्त करते हुए शुक्लजी लिखते हैं, "लोभियों! तुम्हारा अक्रोध, तुम्हारा इन्द्रिय निग्रह, तुम्हारी समता, तुम्हारा तप अनुकरणीय है। तुम्हारी निष्ठुरता, तुम्हारी निर्लज्जता, तुम्हारी अविवेक, तुम्हारा अन्याय विग्रहणीय है। तुम धन्य हो ! तुम्हें धिक्कार है।" यहाँ धन्य भी धिक्कार का अर्थ दे रहा है और यह सब उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया के कारण हैं। दरअसल, शुक्लजी की भावुकता भी उनके विवेक के अधीन है। उनका भाव पक्ष. विचार-पक्ष द्वारा नियंत्रित और संचालित है। इसलिए यहाँ भी वे प्रवाह में बहते नहीं। चोट करके, विरोध करके, नाराजगी प्रकट करके वे पुनः विचार करने लग जाते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि आचार्य शुक्लजी विचार करते-करते कभी-कभी भावुक हो जाते हैं और भावुक होते हुए भी उनकी विचार चेतना जाग्रत रहती है तथा वे अपने मूल विषय पर पुनः आ जाते हैं।

1.3 भाषा-शैली

उन्होंने राजा शिवप्रसाद सितारे-ए-हिंदी की भाषा का अनुसरण नहीं किया। उनकी भाषा संस्कृत, तत्सम निष्ठ थी, तब भी भाषा दुरूह नहीं थी। अर्थ की गम्भीरता के साथ सहज तार्किक प्रवाह उनकी भाषा की अपनी विशेषता है। चूँकि उन्होंने गंभीर-सैद्धांतिक विषयों का विवेचन किया है, इसलिए यह गंभीरता खटकती नहीं। हालाँकि वे कई बार तद्भव शब्दों का भी प्रयोग कर जाते हैं, जब वे सहज परिहास वृत्ति से अपने विषय से थोड़ा-सा भटकते हैं। यह भटकन भी उनकी एक शैली है। सबकी 'टकटकी' 'टके' पर लग गई इस तरह के सूचनात्मक वाक्यों में उनकी भाषा थोड़ी सहज होती है। भावाभिव्यक्ति के समय शुक्लजी की भाषा भी काव्यात्मक हो जाती है। हालाँकि ऐसे अवसर बहुत कम आते हैं। इस निबंध में देश प्रेम का विवेचन करते हुए उन्होंने काव्यात्मक गद्य लिखा है। वे कई बार सूत्र लिखते हैं और फिर उस सूत्र की व्याख्या करते हैं। जब विषय जटिल होता है तो वे उदाहरणों के द्वारा भी वे उस सूत्र को समझाते हैं। कई बार विश्लेषण के पश्चात् भी वे सूत्र वाक्य द्वारा अपने मत को स्थिर करते हैं। भाषा के जिस स्तर से वे अपने निबंध का प्रारंभ करते हैं, अंत तक उस स्तर को बनाए रखते हैं। ऐसा शायद ही होता हो कि निबंध का एक हिस्सा अधिक प्राणवान और गरिष्ठ हो और दूसरा हिस्सा सरल हो। उनके लेखन का मानसिक सतह बराबर समान बना रहता है। इसका एक कारण यह भी है कि वे निबंधों में भी मौलिक चिंतन करते हैं। यह मौलिकता उनकी शैली को प्रौढ़ बनाए रखती है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल अपने मत को पुष्ट करने के लिए मान्य विद्वानों के मतों को उद्धृत नहीं करते, जैसा आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में देखने को मिलता है। जहाँ पर भी वे किसी भारतीय या पाश्चात्य विद्वान को उद्धृत करते हैं, वहाँ उस मत को पर्याप्त सरल और सामान्य रूप में प्रस्तुत करते हैं। यहाँ उद्धरण की गंभीरता कम हो जाती है। इसका कारण शायद यह है कि उनकी अपनी दृष्टि में अपना मत ही पर्याप्त गंभीर और मौलिक है। अतः अपने मत को स्पष्ट करने के लिए  उन्हें किसी अन्य के उद्धरण की आवश्यकता महसूस नहीं होती।

1.4 निबंध में आचार्य शुक्ल का व्यक्तित्व

आचार्य रामचंद्र शुक्ल गम्भीर आलोचक, निबंध लेखक और गंभीर शिक्षक रहे हैं। मनोविकार संबंधी ललित निबंध लिखते समय वे एक अच्छे शिक्षक के रूप में भी दिखाई देते हैं। वे गूढ़ से गूढ़ बातों को, जटिल से जटिल विषय को उसकी जटिलता बनाए रखते हुए भी पाठकों को समझा देते हैं। यह समझाने का आग्रह शुक्लजी के अध्यापक रूप से आया है। इसे समझाने के लिए कई बार निबंध में कुछ उदाहरण देकर अपनी बात स्पष्ट करते हैं। प्रस्तुत निबंध में उन्होंने लोभ और प्रीति का स्वरूप, उनका विविध रूप, इनके परस्पर परिवर्तन आदि सभी बातों को समझा दिया है। उनके चिंतन की स्पष्टता उनके आलोचक के चिंतन से तो आया ही है, उनके दायित्व से भी आया है।

इसके साथ शुक्लजी के व्यक्तित्व में सहज परिहास वृत्ति और व्यंग्य भी देखने को मिलता है। वे चोट करते हैं तो सहलाते भी हैं, झुंझलाते हैं तो नाराज भी होते हैं, समझाते हैं तो फटकारते भी हैं। लेकिन वे लगातार कुछ न कुछ बातें कहते रहना चाहते हैं। इसके बावजूद शुक्लजी कभी हल्का-फुल्का मजाक नहीं करते। उसमें भी


1.5 संदर्भ सहित व्याख्या

उद्धरण :

कोई वस्तु हमें बहुत अच्छी लगी, किसी वस्तु से हमें बहुत सुख या आनंद मिला, इतने ही पर दुनिया में यह नहीं कहा जाता कि हमने लोभ किया। जब संवेदनात्मक अवयव के साथ इच्छात्मक अवयव का संयोग होगा अर्थात् जब उस वस्तु को प्राप्त करने की, दूर न करने की, नष्ट न होने देने की इच्छा प्रकट होगी तभी हमारा लोभ लोगों पर खुलेगा। इच्छा लोभ या प्रीति का ऐसा आवश्यक अंग है कि यदि किसी को कोई बहुत अच्छा या प्रिय लगता है तो लोग कहते हैं कि वह उसे चाहता है।

यह गद्यांश रामचंद्र शुक्ल के निबंध 'लोभ और प्रीति से लिया गया है। इस निबंध में शुक्ल जी ने 'लोभ और प्रीति के मनोभावों का बारीकी से विश्लेषण किया है। किसी वस्तु के प्रति लगाव कब लोभ में परिणत हो जाता है, इसकी व्याख्या यहाँ की गई है।

व्याख्या :

शुक्ल जी कहते हैं कि किसी वस्तु का हमें बहुत अच्छा लगना या उससे हमें सुख या प्रसन्नता प्राप्त होना ही उसके प्रति हमारे लोभ को प्रमाणित नहीं करता था। केवल किसी वस्तु का पाना और उससे आनंद मिलना हमारी उसके प्रति लोभ की अभिव्यक्ति नहीं है। लोभ तब होता है, जब हमारे हृदय में उस वस्तु के प्रति गहरी आसंक्ति हो, लगाव हो। हमारे हृदय में यह इच्छा उत्पन्न हो कि वह वस्तु हमें प्राप्त हो, हमेशा हमारे ही पास रहे, कभी हमसे दूर न हो और वह कभी भी नष्ट न हो तो उस वस्तु के प्रति ऐसी भावना हमारे 'लोभ' का कारण होगी। किसी को पाने की अपनाने की इच्छा 'लोभ और प्रीति' दोनों का ही आवश्यक अंग है। शुक्ल जी आगे इस बिन्दु को व्याख्यायित करते हुए कहते हैं कि यदि किसी को कोई बहुत अच्छा लगता है या उसे आता है और प्रिय लगता है तो कहा जाएगा कि वह उसे 'चाहता' है। इसके दो अर्थ हैं- पहला यह कि वह उसे 'प्रेम' करता है और दूसरा यह कि वह उसे चाहने की कामना या इच्छा रखता है। लेखक के अनुसार यही चाहना 'लोभ और प्रीति है।

यहाँ एक सूत्र वाक्य की व्याख्या की गई है। 'संवेदनात्मक अवयव के साथ इच्छात्मक अवयव का संयोग' को साधारण शब्दों में व्याख्यायित किया गया है।

1.6 सारांश

सामान्य व्यवहार में हम लोभ और प्रीति को परस्पर विरोधी भाव समझते हैं लेकिन शुक्लजी का मत है कि लोभ और प्रीति में एकता होती है। लोभ ही रूप में ग्रहण करने पर प्रीति में बदल जाता है।

दोनों अच्छी लगने वाली वस्तु या व्यक्ति के प्रति व्यक्त किए हुए भाव होते हैं। अच्छा लगने पर जब उसे प्राप्त करने की इच्छा का उदय होता है, तब इस भाव का पता चलता है।

लोभ सामान्योन्मुखी होता है, जबकि प्रेम विशेषोन्मुखी होता है।

• वस्तुओं को प्राप्त करने वाला भाव आमतौर से लोभ और व्यक्ति विशेष के लिए व्यक्त किया गया भाव प्रेम होता है।

• आजकल लोभ का अर्थ धन का लोभ माना जाता है। क्योंकि धन से सभी सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं।

• धन का लोभ कभी-कभी मानसिक व्याधि का रूप ग्रहण कर लेता है। इस कारण वह दया, करुणा, क्रोध आदि भावनाओं की अनुभूती और अभिव्यक्ति नहीं कर पाता है।

• प्रेम में आलंबन और आश्रय दोनों चेतना समझ होते हैं। अतः वे दोनों एक ही भाव से परिचालित होते हैं। तभी उनका प्रेम पूर्णता को प्राप्त करता है।

• प्रेम एकांत भाव में भी होता है और लोक जीवन में व्याप्त भी होता है। लोकोन्मुख प्रेम को शुक्लजी पसंद करते हैं।

• देश प्रेम भी प्रेम का ही एक रूप है। हालाँकि शुक्लजी का आदर्श विश्व मानव प्रेम है।

•™प्रेम सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों प्रकार का होता है।


लेखक :- वरूण कुमार