आदिकालीन एवं मध्यकालीन हिंदी कविता/गोस्वामी तुलसीदास
7. तुलसीदास
डॉ. ग्रियर्सन ने कहा है कि महात्मा बुद्ध के बाद भारत में सबसे बड़े लोकनायक तुलसीदास थे। तुलसीदास हिन्दी के सर्वश्रेष्ठ कवियों में माने जाते हैं। इनके जन्म, माता-पिता आदि के विषय में विभिन्न मत और जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं।
तुलसीदास का जन्म संवत 1554 में बाँदा जिले के राजापुर गाँव में हुआ बताया जाता है। तुलसीदास का बचपन घोर कष्ट में बीता। 'कवितावली' में इन्होंने कहा है कि "मातु पिता जग जाइ तज्यो बिधिहू न लिख्यो कछु भाल भलाइ।" इससे तुलसीदास के बचपन को समझा जा सकता है। कहा जाता है कि गुरू नरहरिदास की कृपा से उन्हें रामभक्ति का मार्ग मिला।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के अनुसार तुलसीदास की बारह रचनाएँ असंदिग्ध रूप से बताई गई हैं- रामचरितमानस, रामललानहछू, वैराग्य संदीपनी, बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, श्रीकृष्ण गीतावली और विनय पत्रिका।
भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके। तुलसी का अनुभव-संसार बहुत व्यापक था। नाना-पुराण-निगमागम का अभ्यास उन्होंने किया था। चंद के छप्पय, कबीर के दोहे-सूरदास के पंद, जायसी के दोहे, चौपाइयाँ, रीतिकारों के सवैया-कवित्त, रहीम के बरवै, गाँववालों का • सोहर आदि जितनी प्रकार की पद्धतियाँ उन दिनों लोक में प्रचलित थीं, सबको अपनी असाधारण प्रतिभा के बल पर अपने रंग में रंग दिया।
लोक और शास्त्र के व्यापक ज्ञान ने उन्हें अभूतपूर्व सफलता दी। उनका सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है। लोक और शास्त्र का समन्वय गार्हस्थ्य और वैराग्य का समन्वय, ज्ञान व भक्ति का समन्वय, लोकभाषा एवं संस्कृत का समन्वय, सगुण व निर्गुण का समन्वय, कथा एवं तत्त्व-ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चांडाल का समन्वय, पांडित्य एवं अपांडित्य का समन्वय तुलसी का काव्य समन्वय का काव्य है।
तुलसीदास का भारत 16वीं-17वीं सदी का भारत है जो नाना प्रकार की विषमताओं से ग्रस्त है। इस विषमताग्रस्त समाज का चित्रण तुलसीदास ने कलियुग के माध्यम से किया है। इसमें दैहिक, दैविक, भौतिक ताप है; यहाँ गरीबी, अकाल, महामारी, नारी-पराधीनता, कुटिल-कपटी राजा, कराल-दंड नीति, सज्जन-दुर्जन, खल- साधु इत्यादि सब हैं। तुलसी के यहाँ इस देश के लोग, वन-उपवन, नदी-तालाब, सुन्दरता कुरूपता से भरा जीवन एवं जगत मौजूद है। तुलसी महान देशभक्त और मूलतः किसान-जीवन के कवि हैं। उनकी कविता में अन्न, फसल, बादल, वर्षा, धान आदि का उल्लेख बार-बार आता है। वे सीता-पार्वती जैसी स्त्रियों से ही नहीं बल्कि सूर्पणखा, मंथरा, कैकेयी जैसी स्त्रियों से भी परिचित थे। तुलसी की कविता की लोकप्रियता का सबसे बड़ा कारण यह भी है कि हमारे देश का यथार्थ उसमें मौजूद है।
तुलसीदास की रचनाओं में भाव, काव्यरूप, छंद-विवेचन और भाषा की विविधता तथा समृद्धि मिलती है। 'रामचरितमानस' हिन्दी का श्रेष्ठ महाकाव्य माना जाता है। इसकी रचना मुख्यतः दोहा और चौपाई छंद में हुई है। 'गीतावली', तथा 'विनय पत्रिका' पद शैली की रचनाएँ हैं तो 'दोहावली' स्फूट दोहों का संकलन है। 'कवितावली' कवित्त और सवैया छंद में रचित उत्कृष्ट रचना है।
अवधि और ब्रज दोनों भाषाओं पर तुलसीदास का जैसा अधिकार था, वैसा और किसी हिन्दी कवि का नहीं। 'रामचरितमानस' को उन्होंने अवधी में लिखा है। 'कवितावली', 'विनय पत्रिका' और'गीतावली' तीनों की भाषा ब्रज है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में "कवितावली तो ब्रज की चलती भाषा का सुन्दर नमूना है।"
तुलसीदास ने अपने युग में प्रचलित प्रायः सभी काव्य-शैलियों का उपयोग किया है। 'रामचरित मानस' में सात खंड हैं। यह दोहा चौपाई शैली में लिखा गया है। 'गीतावली' सात कांडों में विभक्त गीतबद्ध मुक्तक काव्य है। 'विनय पत्रिका' भौतिकता से दूर आध्यात्मिक पत्रिका दार्शनिक एवं साहित्यिक दोनों दृष्टियों से प्रौढ़ रचना है।‘कवितावली' एक मुक्तक काव्य है। कवित्त, सवैया और घनाक्षरी इसके प्रधान छंद हैं। इसमें कुल 325 छंद हैं। यह रचना सात कांडों में विभक्त है, जिसमें रामचरित कांड क्रम में वर्णित है। तुलसीदास के आत्म-परिचय की दृष्टि से 'कवितावली' का तुलसी की अन्य रचनाओं से अधिक महत्त्व है।
तुलसी की भाषा जितनी लौकिक है उतनी ही शास्त्रीय। काव्योपयोगी भाषा लिखने में तुलसीदास कमाल करते हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के शब्दों में "तुलसीदास कवि थे, भक्त थे,पंडित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य द्रष्टा थे।"
कवितावली ने 'बालकाण्ड' प्रस्तुत खंड में तुलसीदास ने रामचरितमान की तुलना में संक्षिप्त ढंग से राम के बाल-स्वरूप की झाँकी, उनकी बाललीला, धनुर्यज्ञ एवं लक्ष्मण-परशुराम संवाद का सुन्दर चित्रण किया है। एक ही कथा को कितने ढंग से कितनी ही शैलियों में कहा जा सकता है, तुलसीदास मानो ये चुनौती दे रहे हैं।
'रामचरितमानस' के तर्ज पर ही तुलसीदास ने 'कवितावली' की रचना की है परन्तु 'कवितावली' में कवि ने अपने समय के समाज की विषमता से संवाद किया है। संभवतः यही कारण है कि 'कवितावली' में सबसे बड़ा खंड उत्तरकांड है। तुलसी के राम जैसे-जैसे बड़े होते हैं, तुलसी उनके सामने समाज की हकीकत को दर्शाते जाते हैं।
पद
पूँछ बुझाझ खोइ श्रम धरि लघु रूप बहोरि। जनकसुता के आगे ठाढ़ भयउ कर जोरि।। (1) ।। मातु मोहि दीजे कछु चीन्हा। जैसे रघुनायक मोहि दीन्हा। चूड़ामनि उतारि तब दयऊ। हरष समेत पवनसुत लयऊ। कहेहु तात अस मोर प्रनामा। सब प्रकार प्रभु पूरनकामा। दीन दयाल बिरिदु संभारी। हरहु नाथ मम संकट भारी।। तात सक्रसुत कथा सुनाएहु। बान प्रताप प्रभुहि समुझाएहु। मास दिवस महुँ नाथु न आवा। तौ पुनि मोहि जिअत नहिं पांवा।। कहु कपि केहि बिधि राखौं प्राना। तुम्हहू तात कहत अब जाना। तोहि देखि सीतलि भई छाती। पुनि मो कहुँ सोइ दिनु सो राती।।
जनकसुतहि समुझाइ करि बहु बिधि धीरजु दीन्ह। चरन कमल सिरु नाइ कपि गवनु राम पहिं कीन्ह।। (2) ।। चलत महाधुनि गर्जेसि भारी। गर्भ स्त्रवहिं सुनि निसिचर नारी। नाघि सिंधु एहि पारहि आवा। सबद किलिकिला कपिन्ह सुनावा।। हरषे सब बिलोकि हनुमाना। नूतन जन्म कपिन्ह तब जाना। मुख प्रसन्न तन तेज बिराजा। कीन्हेसि रामचंद्र कर काजा।। मिले सकल अति भए सुखारी। तलफत मीन पाव जिमि बारी। चले हरषि रघुनायक पासा। पूँछत कहत नवल इतिहासा।। तब मधुबन भीतर सब आए। अंगद संमत मधु फल खाए। रखवारे जब बरजन लागे। मुटि प्रहार हनत सब भागे।।
जाइ पुकारे ते सब बन उजार जुबराज । सुनि सुग्रीव हरष कपि करि आए प्रभु काज ।। (3) ।। जौं न होति सीता सुधि पाई। मधुबन के फल सकहिं कि खाई। एहि बिधि मन विचार कर राजा। आई गए कपि सहित समाजा।। आई सबन्हि नावा पद सीसा। मिलेउ सबन्हि अति प्रेम कपीसा। पूँछी कुसल कुसल पद देखी। राम कृपाँ भा काजु बिसेषी।। नाथ काजु कीन्हेउ हनुमाना। राखे सकल कपिन्ह के प्राना। सुनि सुग्रीव बहुरि तेहि मिलेऊ। कपिन्ह सहित रघुपति पहिं चलेऊ॥ राम कपिन्ह जब आवत देखा। किएँ काजु मन हरष बिसेषा। फटिक सिला बैठे द्वौ भाई। परे सकल कपि चरनन्हि जाई।।
प्रीति सहित सब भेटे रघुपति करुना पुंज। पूँछी कुसल नाथ अब कुसल देखि पद कंज।। (4)।। जामवंत कह सुनु रघुराया। जा पर नाथ करहु तुम्ह दाया। ताहि सदा सुभ कुसल निरंतर। सुर नर मुनि प्रसन्न ता ऊपर।। सोइ बिजई बिनई गुन सागर। तासु सुजसु त्रैलोक उजागर। प्रभु की कृपा भयउ सबु काजू। जन्म हमार सुफल भा आजू।। नाथ पवनसुत कीन्हि जो करनी। सरसहुँ मुख न जाइ सो बरनी। पवनतनय के चरित सुहाए। जामवंत रघुपतिहि सुनाए। सुनत कृपानिधि मन अति भाए। पुनि हनुमान हरषि हियँ लाए। कहहु तात केहि भाँति जानकी। रहति करति रच्छा स्वप्रान की।।
नाम पाहरू दिवस निसि ध्यान तुम्हार कपाट। लोचन निज पद जंत्रित जाहिं प्रान केहिं बाट।। (5) ।। चलत मोहि चूड़ामनि दीन्ही। रघुपति हृदयँ लाई सोई लीन्ही। नाथ जुगल लोचन भरि बारी। बचन कहे कछु जनककुमारी।। अनुज समेत गहेहु प्रभु चरना। दीन बंधु प्रनतारति हरना। मन क्रम बचन चरन अनुरागी। केहिं अपराध नाथ हौं त्यागी॥ अवगुन एक मोर मैं माना। बिछुरत प्रान न कीन्ह पयाना। नाथ सो नयनन्हि को अपराधा। निसरत प्रान करहिं हठि बाधा।।
निमिष निमिष करुनानिधि जाहिं कलप सम बीति। बेगि चलिअ प्रभु आनिअ भुज बल खल दल जीति।। (6) ॥ सुनि सीता दुख प्रभु सुख अयना। भरि आए जल राजिव नयना। बचन काय मन मम गति जाही। सपनेहुँ बूझिअ बिपति कि ताही।। कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई। जब तब सुमिरन भजन न होई। केतिक बात प्रभु जातुधान की। रिपहि जीति आनिबी जानकी।। सुनु कपि तोहि समान उपकारी। नहिं को सुर नर मुनि तनुधारी। प्रति उपकार करौं का तोरा। सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहीं। देखेउँ करि बिचार मन माहीं। पनि पुनि कपिहि चितव सुरत्राता। लोचन नीर पुलक अति गाता।।
विनय पत्रिका
अबलौं नसानी, अब न नसैहौं। राम कृपा भव-निसा सिरानी, जागे फिरि न डसैहौं॥ (1) ॥ पायेउँ नाम चारु चिंतामनि, उर कर तें न खसैहौं। स्यामरूप सुचि रुचिर कसौटी, चित कंचनहिं कसैहौं।। (2) ॥ परबस जानि हँस्यो इन इंद्रिन, निज बस है न हँसैहौं। मन मधुकर पनकै तुसली रघुपति-प -पद-कमल बसैहौं॥ (3) ॥
केसव ! कहि न जाइ का कहिये। देखत तव रचना विचित्र हरि! समुझि मनहिं मन रहिये॥ (1) ॥ सून्य भीति पर चित्र, रंग नहिं, तनु बिनु लिखा चितेरे। धोये मिटइ न मरइ भीति, दुख पाइय एहि तनु हेरे।। (2) ।। रबिकर-नीर बसै अति दारुन मकर रूप तेहि माहीं। बदन-हीन सो ग्रसै चराचर, पान करन जे जाहीं॥ (3) ॥ कोउ कह सत्य, झूठ कह कोऊ, जुगल प्रबल कोउ मानै। तुलसिदास परिहरै तीन भ्रम, सो आपन पहिचानै॥ (4) ॥
राग सोरठ
ऐसो को उदार जग माहीं। बिनु सेवा जो द्रवै दीनपर राम सरिस कोउ नाहीं।। (1) ॥ जो गति जोग बराग जतन करि नहिं पावत मुनि ग्यानी। सो गति देत गीध सबरी कहँ प्रभु न बहुत जिय जानी।। (2) ॥ जो संपति दस सीस अरप करि रावन सिव पहँ लीन्हीं। सो संपदा बिभीषन कहँ अति सकुच-सहित हरि दीन्हीं।। (3)॥ तुलसिदास सब भाँति सकल सुख जो चाहसि मन मेरो। तौ भजु राम, काम सब पूरन करें कृपानिधि तेरो॥ (4)।।
कवितावली बालरूप की झाँकी
अवधेसके द्वारें सकारें गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे। अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से॥ तुलसी मन-रंजन रंजित अंजन नैन सुखंजन-जातक-से। सजनी ससिमें समसील उभै नवनील सरोरुह से बिकसे॥
सुनि सुंदर बैन सुधारस-साने सयानी हैं जानकीं जानी भली। निरछे करि नैन, दै सैन तिन्हें समुझांड कछू, मुसुकाइ चली॥ तुलसी तेहि औसर सोहैं सबै अवलोकति लोचनलाहु अलीं। अनुराग-तड़ागमें भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंजकलीं॥
किसबी, किसान- कुल, बनिक, भिखारी, भाट, चाकर, चपल नट, चोर, चार, चेटकी। पेटको पढ़त, गुन गढ़त, चढ़त गिरि, अटत गहन-गन अहन ऊँचे-नीचे अखेटकी॥ करम, धरम-अधरम करि, पेट ही को पचत, बेचत बेटा-बेटकी। 'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें, आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी।।
धूत कहौ, अवधूत कहौ, राजपूतु कहौ, जोलहा कहौ कोऊ। काहूकी बेटीसों बेटा न ब्याहब, काहूकी जाति बिगार न सोऊ॥ तुलसी सरनाम गुलामु है रामको, जाको रुचै सो कहै कछु ओऊ। माँगि कै खैबो, मसीतको सोइबो, लैबोको एक न दैबेको दोऊ॥
शब्दार्थ
सकारे प्रातः- अवलोकि = देखकर, ठगि-सी = मोहित होना, सुखंजन = मनोहर नेत्र, नवनील = नवीन नीलकमल, अबलोँ = अबतक, सिरानी = बीत गयी, परबस = दुसरे के वश में, पनकै = प्रण करके, परिहरै = निवृत हो जाय, आपन-अपना असली स्वरूप, जोग = योग, विराग = वैराग्य, सकुच = संकोच ।
अवधेश = अयोध्यापति, अवलोकि = देखकर समसील = समान रूप वाले, बैन = वाणी, सुधारस-साने = अमृत से सराबोर, भानु = सूर्य, किसबी = श्रमजीवी, चेटकी = बाजीगर, धूत = धूर्त, लैबे को... दोऊ = न किसी से एक लेना है न दो देना है।