आधुनिक कालीन हिंदी कविता (छायावाद तक)/सुमित्रानंदन पंत

"हाय! मृत्यु का ऐसा अमर, अपार्थिव पूजन?
जब विषण्ण, निर्जीव पड़ा हो जग का जीवन!
संग-सौध में हो शृंगार मरण का शोभन,
नग्न, क्षुधातुर, वास-विहीन रहें जीवित जन?

मानव! ऐसी भी विरक्ति क्या जीवन के प्रति?
आत्मा का अपमान, प्रेत औ’ छाया से रति!!
प्रेम-अर्चना यही, करें हम मरण को वरण?
स्थापित कर कंकाल, भरें जीवन का प्रांगण?
शव को दें हम रूप, रंग, आदर मानन का
मानव को हम कुत्सित चित्र बना दें शव का?

गत-युग के बहु धर्म-रूढ़ि के ताज मनोहर
मानव के मोहांध हृदय में किए हुए घर!
भूल गये हम जीवन का संदेश अनश्वर,
मृतकों के हैं मृतक, जीवितों का है ईश्वर!"

व्याख्या 

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परिवर्तन[]

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(1)
आज कहां वह पूर्ण-पुरातन, वह सुवर्ण का काल?
भूतियों का दिगंत-छबि-जाल,
ज्योति-चुम्बित जगती का भाल?

राशि राशि विकसित वसुधा का वह यौवन-विस्तार?
स्वर्ग की सुषमा जब साभार
धरा पर करती थी अभिसार!
प्रसूनों के शाश्वत-शृंगार,
(स्वर्ण-भृंगों के गंध-विहार)
गूंज उठते थे बारंबार,
सृष्टि के प्रथमोद्गार!
नग्न-सुंदरता थी सुकुमार,
ॠध्दि औ’ सिध्दि अपार!

अये, विश्व का स्वर्ण-स्वप्न, संसृति का प्रथम-प्रभात,
कहाँ वह सत्य, वेद-विख्यात?
दुरित, दु:ख, दैन्य न थे जब ज्ञात,
अपरिचित जरा-मरण-भ्रू-पात!

(2)
हाय! सब मिथ्या बात! -
आज तो सौरभ का मधुमास
शिशिर में भरता सूनी साँस!

वही मधुऋतु की गुंजित डाल
झुकी थी जो यौवन के भार,
अकिंचनता में निज तत्काल
सिहर उठती - जीवन है भार!

आज पावस नद के उद्‌गार
काल के बनते चिह्न कराल,
प्रात का सोने का संसार
जला देगी संध्या की ज्वाल!

अखिल यौवन के रंग उभार
हड्डियों के हिलते कंकाल;
कचों के चिकने, काले व्याल
केंचुली, कास; सिवार
गूँजते हैं सबके दिन चार,
सभी फिर हाहाकार!

(3)
आज बचपन का कोमल गात
जरा का पीला पात!
चार दिन सुखद चाँदनी रात,
और फिर अन्धकार, अज्ञात!

शिशिर-सा झर नयनों का नीर
झुलस देता गालों के फूल,
प्रणय का चुंबन छोड़ अधीर
अधर जाते अधरों को भूल!

मृदुल होठों का हिमजल हास
उड़ा जाता निःश्वास समीर,
सरल भौहों का शरदाकाश
घेर लेते घन, घिर गंभीर!

शून्य साँसों का विधुर वियोग
छुड़ाता अधर मधुर संयोग;
मिलन के पल केवल दो, चार,
विरह के कल्प अपार।

अरे, वे अपलक चार नयन
आप आँसू रोते निरुपाय;
उठे रोओं के आलिंगन
कसक उठते काँटों-से हाय!

(4)
किसी को सोने के सुख साज
मिल गये यदि ऋण भी कुछ आज;
चुका लेता दुख कल ही ब्याज,
काल को नहीं किसी की लाज।

विपुल मणि रत्नों का छवि जाल;
इंद्रधनु की-सी छटा विशाल -
विभव की विद्युत ज्वाल
चमक, छिप जाती है तत्काल;

मोतियों जड़ी ओस की डार
हिला जाता चुपचाप बयार!

(5)
खोलता इधर जन्म लोचन,
मूँदती उधर मृत्यु क्षण-क्षण,
अभी उत्सव औ' हास हुलास
अभी अवसाद अश्रु, उच्छ्वास!

अचिरता देख जगत की आप
शून्य भरता समीर निःश्वास,
डालता पातों पर चुपचाप
ओस के आँसू नीलाकाश;
सिसक उठता समुद्र का मन,
सिहर उठते उडगन।

(6)
अहे निष्ठुर परिवर्तन!
तुम्हारा ही ताण्डव नर्तन
विश्व का करुण विवर्तन।
तुम्हारा ही नयनोन्मीलन,
निखिल उत्थान पतन!

अहे वासुकि सहस्त्र फन!
लक्ष अलक्षित चरण तुम्हारे चिह्न निरन्तर
छोड़ रहे हैं जग के विक्षत वक्षःस्थल पर!
शत शत फेनोच्छ्वसित, स्फीत फूत्कार भयंकर
घुमा रहे हैं घनाकार जगती का अम्बर।
मृत्यु तुम्हारा गरल दन्त, कंचुक कल्पान्तर,
अखिल विश्व ही विवर,
वक्र कुण्डल
दिङ्मण्डल!

(7)
अहे दुर्जेय विश्वजित्।
नवाते शत सुरवर, नरनाथ
तुम्हारे इन्द्रासन तल माथ,
घूमते शत-शत भाग्य अनाथ,
सतत रथ के चक्रों के साथ!

तुम नृशंस नृप-से जगती पर चढ़ अनियंत्रित;
करते हो संसृति को उत्पीड़ित, पदमर्दित,
नग्न नगर कर, भग्न भवन, प्रतिमाएँ खण्डित,
हर लेते हो विभव, कला, कौशल चिर-संचित!

आधि, व्याधि, बहुवृष्टि, वात, उत्पात, अमंगल
वह्नि, बाढ़, भूकम्प-तुम्हारे विपुल सैन्य-दल,
अहे निरंकुश! पदाघात से जिनके विह्वल
हिल-हिल उठता है टल मल
पद दलित धरातल!

(8)
जगत का अविरल हृतकम्पन
तुम्हारा ही भय सूचन;
निखिल पलकों का मौन पतन
तुम्हारा ही आमन्त्रण!

विपुल वासना विकच विश्व का मानस शतदल
छान रहे तुम, कुटिल काल कृमि-से घुस पल-पल;
तुम्हीं स्वेद-सिंचित संसृति के स्वर्ण शस्य दल
दलमल देते, वर्षोपल बन, वांछित कृषिफल!
अये, सतत ध्वनि स्पन्दित जगती का दिङ् मण्डल
नैश गमन सा सकल
तुम्हारा ही समाधि-स्थल!

(9)
काल का अकरुण भृकुटि विलास
तुम्हारा ही परिहास;
विश्व का अश्रुपूर्ण इतिहास!
तुम्हारा ही इतिहास!

एक कठोर कटाक्ष तुम्हारा अखिल प्रलयंकर
समर छेड़ देता निसर्ग संसृति में निर्भर!
भूमि चूम जाते अभ्रध्वज सौध, शृंगवर,
नष्ट-भ्रष्ट साम्राज्य-भूति के मेघाडम्बर!
अये, एक रोमांच तुम्हारा दिग्भूकम्पन,
गिर-गिर पड़ते भीत पक्षि पोतों-से उडगन!
आलोड़ित अम्बुधि फेनोन्नत कर शत-शत फन,
मुग्ध भुजंगम-सा, इंगित पर करता नर्तन!
दिक् पिंजर में बद्ध, गजाधिप-सा विनतानन
वाताहत हो गगन
आर्त करता गुरु गर्जन!

(10)
जगत की शत कातर चीत्कार
बेधती बधिर! तुम्हारे कान?
अश्रु स्रोतों की अगणित धार
सींचती उर पाषाण!

अरे क्षण-क्षण सौ-सौ निःश्वास
छा रहे जगती का आकाश!
चतुर्दिक् घहर घहर आक्रान्ति
ग्रस्त करती सुख शान्ति!

(11)
हाय री दुर्बल भ्रान्ति!
कहाँ नश्वर जगती में शान्ति!
सृष्टि ही का तात्पर्य अशान्ति!

जगत अविरत जीवन संग्राम
स्वप्न है यहाँ विराम!
एक सौ वर्ष, नगर उपवन,
एक सौ वर्ष, विजन वन,
- यही तो है असार संसार,
सृजन, सिंचन, संहार!
आज गर्वोन्नत हर्म्य अपार
रत्न दीपावलि, मन्त्रोच्चार;
उलूकों के कल भग्न विहार,
झिल्लियों की झनकार!
दिवस निशि का यह विश्व विशाल
मेघ मारुत का माया जाल!

(12)
अरे, देखो इस पार -
दिवस की आभा में साकार
दिगम्बर, सहम रहा संसार
हाय! जग के करतार!!
प्रात ही तो कहलाई मात
पयोधर बने उरोज उदार,
मधुर उर इच्छा को अज्ञात
प्रथम ही मिला मृदुल आकार;

छिन गया हाय! गोद का बाल
गड़ी है बिना बाल की नाल!
अभी तो मुकुट बँधा था माथ,
हुए कल ही हलदी के हाथ;
खुले भी न थे लाज के बोल,
खिले भी चुम्बन शून्य कपोल;
हाय! रुक गया यहीं संसार
बना सिन्दूर अँगार;
वात-हत लतिका वह सुकुमार
पड़ी है छिन्नाधार!

(13)
काँपता उधर दैन्य निरुपाय,
रज्जु-सा, छिद्रों का कृश काय!
न उर में गृह का तनिक दुलार,
उदर ही में दानों का भार!
भूँकता सिड़ी शिशिर का श्वान
चीरता हरे! अचीर शरीर;
न अधरों में स्वर, तन में प्राण,
न नयनों ही में नीर!

(14)
सकल रोओं से हाथ पसार
लूटता इधर लोभ गृह द्वार;
उधर वामन डग स्वेच्छाचार;
नापती जगती का विस्तार;
टिड्‍डियों-सा छा अत्याचार
चाट जाता संसार!

(15)
बजा लोहे के दन्त कठोर
नचाती हिंसा जिह्वा लोल;
भृकुटि के कुंडल वक्र मरोर
फुहुँकता अन्ध रोष फल खोल!
लालची गीधों-से दिन-रात,
नोचते रोग शोक नित गात,
अस्थि पंजर का दैत्य दुकाल
निगल जाता निज बाल!

(16)
बहा नर शोणित मूसलधार,
रुण्ड मुण्डों की कर बौछार,
प्रलय घन-सा घिर भीमाकार
गरजता है दिगन्त संहार;
छेड़कर शस्त्रों की झनकार
महाभारत गाता संसार!
कोटि मनुजों के निहित अकाल,
नयन मणियों के जटित कराल,
अरे, दिग्गज सिंहासन जाल
अखिल मृत देशों के कंकाल;
मोतियों के तारक लड़ हार,
आँसुओं के शृंगार!

(17)
रूधिर के हैं जगती के प्रात,
चितानल के ये सायंकाल;
शून्य निःश्वासों के आकाश,
आँसुओं के ये सिन्धु विशाल!
यहाँ सुख सरसों, शोक सुमेरु,
अरे, जग है जग का कंकाल!!
वृथा रे ये अरण्य चीत्कार,
शान्ति सुख है उस पार!

(18)
आह भीषण उद्गार!
नित्य का यह अनित्य नर्तन,
विवर्तन जग, जग व्यवर्तन,
अचिर में चिर का अन्वेषण
विश्व का तत्त्वपूर्ण दर्शन!

अतल से एक अकूल उमंग,
सृष्टि की उठती तरल तरंग
उमड़ शत शत बुदबुद संसार
बूड़ जाते निस्सार।
बना सैकत के तट अतिवात
गिरा देती अज्ञात!

(19)
एक छवि के असंख्य उडगण,
एक ही सब में स्पन्दन;
एक छवि के विभात में लीन,
एक विधि के रे नित्य अधीन!

एक ही लोल लहर के छोर
उभय सुख दुख, निशि भोर;
इन्हीं से पूर्ण त्रिगुण संसार,
सृजन ही है, संसार!

मूँदती नयन मृत्यु की रात
खोलती नव जीवन की प्रात
शिशिर की सर्व प्रलयंकर वात
बीज बोती ज्ञात!

म्लान कुसुमों की मृदु मुसकान
फलों में फिरती फिर अम्लान
महत् है अरे आत्म-बलिदान
जगत केवल आदान प्रदान!

(20)
एक ही तो असीम उल्लास
विश्व में पाता विविधाभास,
तरल जलनिधि में हरित विलास;
शान्त अम्बर में नील विकास;
वही उर उर में प्रेमोच्छ्वास,
काव्य में रस, कुसुमों में वास;
अचल तारक पलकों में हास,
लोल लहरों में लास!
विविध द्रव्यों में विविध प्रकार
एक ही मर्म मधुर झंकार!

(21)
वही प्रज्ञा का सत्य स्वरूप
हृदय में बनता प्रणय अपार
लोचनों में लावण्य अनूप,
लोक सेवा में शिव अविकार;
स्वरों में ध्वनित मधुर, सुकुमार
सत्य ही प्रेमोदगार;
दिव्य सौन्दर्य, स्नेह साकार,
भावनामय संसार!

(22)
स्वीय कर्मों ही के अनुसार
एक गुण फलता विविध प्रकार;
कहीं राखी बनता सुकुमार
कहीं बेड़ी का भार!

(23)
कामनाओं के विविध प्रहार,
छेड़ जगती के उर के तार,
जगाते जीवन की झंकार,
स्फूर्ति करते संचार;
चूम सुख दुख के पुलिन अपार
छलकती ज्ञानामृत की धार!

पिघल होंठों का हिलता हास
दृगों को देता जीवन दान,
वेदना ही में तपकर प्राण
दमक दिखलाते स्वर्ण हुलास!
तरसते हैं हम आठों याम,
इसी से सुख अति सरस, प्रकाम;
झेलते निशि दिन का संग्राम
इसी से जय अभिराम;
अलभ है इष्ट, अतः अनमोल,
साधना ही जीवन का मोल!

(24)
बिना दुख के सब सुख निस्सार,
बिना आँसू के जीवन भार;
दीन दुर्बल है रे संसारर,
इसी से दया क्षमा औ' प्यार!

(25)
आज का दुख, कल का आह्लाद,
और कल का सुख, आज विषाद;
समस्या स्वप्न-गूढ़ संसार,
पूर्ति जिसकी उस पार;
जगत जीवन का अर्थ विकास,
मृत्यु, गति-क्रम का ह्रास!

(26)
हमारे काम न अपने काम,
नहीं हम, जो हम ज्ञात;
अरे, निज छाया में उपनाम
छिपे हैं हम अपरूप;
गँवाने आये हैं अज्ञात
गँवाकर पाते स्वीय स्वरूप!

(27)
जगत की सुन्दरता का चाँद
सजा लांछन को भी अवदात
सुहाता बदल, बदल दिन-रात,
नवलता ही जग का आह्लाद!

(28)
स्वर्ण शैशव स्वप्नों का जाल,
मंजरित यौवन, सरस रसाल;
प्रौढ़ता, छायावट सुविशाल;
स्थविरता, नीरव सायंकाल;

वही विस्मय का शिशु नादान
रूप पर मँडरा, बन गुंजार;
प्रणय से बिंध, बँध, चुन-चुन सार
मधुर जीवन का मधु कर पान;
साध अपना मधुमय संसार
डुबा देता नित तन, मन, प्राण!

एक बचपन ही में अनजान
जागते सोते, हम दिन-रात;
वृद्ध बालक फिर एक प्रभात
देखता नव्य स्वप्न अज्ञात;

मूँद प्राचीन मरण,
खोल नूतन जीवन!

(29)
विश्वमय हे परिवर्तन!
अतल से उमड़ अकूल अपार,
मेघ-से विपुलाकर;
दिशावधि में पल विविध प्रकार
अतल में मिलते तुम अविकार!

अहे अनिर्वचनीय! रूप धर भव्य, भयंकर,
इन्द्रजाल-सा तुम अनन्त में रचते सुन्दर;
गरज-गरज, हँस-हँस, चढ़ गिर, छा ढा, भू अम्बर
करते जगती को अजस्र जीवन से उर्वर;
अखिल विश्व की आशाओं का इन्द्रचाप वर
अहे तुम्हारी भीम भृकुटि पर
अटका निर्भर!

(30)
एक औ' बहु के बीच अजान
घूमते तुम नित चक्र समान
जगत के उर में छोड़ महान्
गहन चिह्नों में ज्ञान!

परिवर्तित कर अगणित नूतन दृश्य निरन्तर
अभिनय करते विश्व मंच पर तुम मायाकार!
जहाँ हास के अधर, अश्रु के नयन करुणतर
पाठ सीखते संकेतों में प्रकट अगोचर;
शिक्षास्थल यह विश्व मंच, तुम नायक नटवर,
प्रकृति नर्तकी सुघर
अखिल में व्याप्त सूत्रधर!

(31)
हमारे निज सुख, दुख, निःश्वास
तुम्हें केवल परिहास;
तुम्हारी ही विधि पर विश्वास
हमारा चिर आश्वास!

अनन्त हृत्कम्प! तुम्हारा अविरत स्पन्दन
सृष्टि शिराओं में संचारित करता जीवन;
खोल जगत के शत-शत नक्षत्रों-से लोचन
भेदन करते अन्धकार तुम जग का क्षण-क्षण;
सत्य तुम्हारी राज यष्टि, सम्मुख नत त्रिभुवन
भूप, अकिंचन,
अटल शास्ति नित करते पालन!

(32)
तुम्हारा ही अशेष व्यापार,
हमारा भ्रम, मिथ्याहंकार;
तुम्हीं में निराकार साकार,
मृत्यु जीवन सब एकाकार!

अहे महांबुधि! लहरों-से शत लोक, चराचर
क्रीड़ा करते सतत तुम्हारे स्फीत वक्ष पर;
तुंग तरंगों-से शत युग, शत-शत कल्पान्तर
उगल, महोदर में विलीन करते तुम सत्वर;
शत सहस्र रवि शशि, असंख्य ग्रह उपग्रह, उडगण
जलते, बुझते हैं स्फुलिंग-से तुम में तत्क्षण;
अचिर विश्व में अखिल-दिशावधि, कर्म, वचन, मन
तुम्हीं चिरन्तन
अहे विवर्तन हीन विवर्तन!
(1924 में रचित)

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मौन निमंत्रण

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"स्तब्ध ज्योत्सना में जब संसार
चकित रहता शिशु सा नादान,
विश्व के पलकों पर सुकुमार
विचरते हैं जब स्वप्न अजान;
न जाने नक्षत्रों से कौन
निमंत्रण देता मुझको मौन!
सघन मेघों का भीमाकाश
गरजता है जब तमसाकार,
दीर्घ भरता समीर निःश्वास
प्रखर झरती जब पावस-धार;
न जाने, तपक तड़ित में कौन
मुझे इंगित करता तब मौन!
देख वसुधा का यौवन भार
गूंज उठता है जब मधुमास,
विधुर उर के-से मृदु उद्गार
कुसुम जब खुल पड़ते सोच्छ्वास;
न जाने, सौरभ के मिस कौन
संदेशा मुझे भेजता मौन!
क्षुब्ध जल शिखरों को जब बात
सिंधु में मथकर फेनाकार,
बुलबुलों का व्याकुल संसार
बना, बिथुरा देती अज्ञात;
उठा तब लहरों से कर कौन
न जाने, मुझे बुलाता कौन!
स्वर्ण, सुख, श्री सौरभ में भोर
विश्व को देती है जब बोर,
विहग कुल की कल-कंठ हिलोर
मिला देती भू नभ के छोर;
न जाने, अलस पलक-दल कौन
खोल देता तब मेरे मौन!
तुमुल तम में जब एकाकार
ऊँघता एक साथ संसार,
भीरु झींगुर-कुल की झंकार
कँपा देती निद्रा के तार;
न जाने, खद्योतों से कौन
मुझे पथ दिखलाता तब मौन!
कनक छाया में जबकि सकल
खोलती कलिका उर के द्वार,
सुरभि पीड़ित मधुपों के बाल
तड़प, बन जाते हैं गुंजार;
न जाने, ढुलक ओस में कौन
खींच लेता मेरे दृग मौन!
बिछा कार्यों का गुरुतर भार
दिवस को दे सुवर्ण अवसान,
शून्य शय्या में श्रमित अपार
जुड़ाता जब मैं आकुल प्राण;
न जाने, मुझे स्वप्न में कौन
फिराता छाया-जग में मौन!
न जाने कौन अये द्युतिमान
जान मुझको अबोध, अज्ञान,
सुझाते हों तुम पथ अजान
फूँक देते छिद्रों में गान;
अहे सुख-दुःख के सहचर मौन
नहीं कह सकता तुम हो कौन!"

व्याख्या 

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नौका विहार

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"शांत स्निग्ध, ज्योत्स्ना उज्ज्वल!
अपलक अनंत, नीरव भू-तल!
सैकत-शय्या पर दुग्ध-धवल, तन्वंगी गंगा, ग्रीष्म-विरल,
लेटी हैं श्रान्त, क्लान्त, निश्चल!
तापस-बाला गंगा, निर्मल, शशि-मुख से दीपित मृदु-करतल,
लहरे उर पर कोमल कुंतल।
गोरे अंगों पर सिहर-सिहर, लहराता तार-तरल सुन्दर
चंचल अंचल-सा नीलांबर!
साड़ी की सिकुड़न-सी जिस पर, शशि की रेशमी-विभा से भर,
सिमटी हैं वर्तुल, मृदुल लहर।

चाँदनी रात का प्रथम प्रहर,
हम चले नाव लेकर सत्वर।
सिकता की सस्मित-सीपी पर, मोती की ज्योत्स्ना रही विचर,
लो, पालें चढ़ीं, उठा लंगर।
मृदु मंद-मंद, मंथर-मंथर, लघु तरणि, हंसिनी-सी सुन्दर
तिर रही, खोल पालों के पर।
निश्चल-जल के शुचि-दर्पण पर, बिम्बित हो रजत-पुलिन निर्भर
दुहरे ऊँचे लगते क्षण भर।
कालाकाँकर का राज-भवन, सोया जल में निश्चिंत, प्रमन,
पलकों में वैभव-स्वप्न सघन।

नौका से उठतीं जल-हिलोर,
हिल पड़ते नभ के ओर-छोर।
विस्फारित नयनों से निश्चल, कुछ खोज रहे चल तारक दल
ज्योतित कर नभ का अंतस्तल,
जिनके लघु दीपों को चंचल, अंचल की ओट किये अविरल
फिरतीं लहरें लुक-छिप पल-पल।
सामने शुक्र की छवि झलमल, पैरती परी-सी जल में कल,
रुपहरे कचों में ही ओझल।
लहरों के घूँघट से झुक-झुक, दशमी का शशि निज तिर्यक्-मुख
दिखलाता, मुग्धा-सा रुक-रुक।

अब पहुँची चपला बीच धार,
छिप गया चाँदनी का कगार।
दो बाहों-से दूरस्थ-तीर, धारा का कृश कोमल शरीर
आलिंगन करने को अधीर।
अति दूर, क्षितिज पर विटप-माल, लगती भ्रू-रेखा-सी अराल,
अपलक-नभ नील-नयन विशाल;
मा के उर पर शिशु-सा, समीप, सोया धारा में एक द्वीप,
ऊर्मिल प्रवाह को कर प्रतीप;
वह कौन विहग? क्या विकल कोक, उड़ता, हरने का निज विरह-शोक?
छाया की कोकी को विलोक?

पतवार घुमा, अब प्रतनु-भार,
नौका घूमी विपरीत-धार।
ड़ाँड़ों के चल करतल पसार, भर-भर मुक्ताफल फेन-स्फार,
बिखराती जल में तार-हार।
चाँदी के साँपों-सी रलमल, नाँचतीं रश्मियाँ जल में चल
रेखाओं-सी खिंच तरल-सरल।
लहरों की लतिकाओं में खिल, सौ-सौ शशि, सौ-सौ उडु झिलमिल
फैले फूले जल में फेनिल।
अब उथला सरिता का प्रवाह, लग्गी से ले-ले सहज थाह
हम बढ़े घाट को सहोत्साह।

ज्यों-ज्यों लगती है नाव पार
उर में आलोकित शत विचार।
इस धारा-सा ही जग का क्रम, शाश्वत इस जीवन का उद्गम,
शाश्वत है गति, शाश्वत संगम।
शाश्वत नभ का नीला-विकास, शाश्वत शशि का यह रजत-हास,
शाश्वत लघु-लहरों का विलास।
हे जग-जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार,
शाश्वत जीवन-नौका-विहार।
मै भूल गया अस्तित्व-ज्ञान, जीवन का यह शाश्वत प्रमाण
करता मुझको अमरत्व-दान।"

व्याख्या 

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आह! धरती कितना देती है

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"मैने छुटपन मे छिपकर पैसे बोये थे
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे ,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और, फूल फलकर मै मोटा सेठ बनूगा!
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बन्ध्या मिट्टी ने एक भी पैसा उगला।
सपने जाने कहां मिटे, कब धूल हो गये।

मै हताश हो, बाट जोहता रहा दिनो तक,
बाल कल्पना के अपलक पांवड़े बिछाकर।
मै अबोध था, मैने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था।

अर्धशती हहराती निकल गयी है तबसे।
कितने ही मधु पतझर बीत गये अनजाने
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूलीं, शरदें मुसकाई
सी-सी कर हेमन्त कँपे, तरु झरे, खिले वन।

औ' जब फिर से गाढ़ी ऊदी लालसा लिये
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर
मैने कौतूहलवश आँगन के कोने की
गीली तह को यों ही उँगली से सहलाकर
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे।
भू के अंचल में मणि माणिक बाँध दिए हों।

मै फिर भूल गया था छोटी से घटना को
और बात भी क्या थी याद जिसे रखता मन।
किन्तु एक दिन , जब मैं सन्ध्या को आँगन में
टहल रहा था- तब सह्सा मैने जो देखा,
उससे हर्ष विमूढ़ हो उठा मै विस्मय से।

देखा आँगन के कोने मे कई नवागत
छोटी छोटी छाता ताने खडे हुए है ।
छाता कहूँ कि विजय पताकाएँ जीवन की;
या हथेलियाँ खोले थे वे नन्हीं, प्यारी -
जो भी हो, वे हरे हरे उल्लास से भरे
पंख मारकर उडने को उत्सुक लगते थे
डिम्ब तोड़कर निकले चिडियों के बच्चे से।

निर्निमेष , क्षण भर मै उनको रहा देखता-
सहसा मुझे स्मरण हो आया कुछ दिन पहले,
बीज सेम के रोपे थे मैने आँगन में
और उन्ही से बौने पौधौं की यह पलटन
मेरी आँखो के सम्मुख अब खडी गर्व से,
नन्हे नाटे पैर पटक , बढ़ती जाती है।

तबसे उनको रहा देखता धीरे धीरे
अनगिनती पत्तो से लद भर गयी झाड़ियाँ
हरे भरे टँग गये कई मखमली चन्दोवे
बेलें फैल गई बल खा , आँगन मे लहरा
और सहारा लेकर बाड़े की टट्टी का
हरे हरे सौ झरने फूट ऊपर को
मै अवाक रह गया वंश कैसे बढता है

यह धरती कितना देती है। धरती माता
कितना देती है अपने प्यारे पुत्रो को
नहीं समझ पाया था मै उसके महत्व को
बचपन में, छि: स्वार्थ लोभवश पैसे बोकर

रत्न प्रसविनि है वसुधा, अब समझ सका हूँ।
इसमे सच्ची समता के दाने बोने है
इसमे जन की क्षमता के दाने बोने है
इसमे मानव ममता के दाने बोने है
जिससे उगल सके फिर धूल सुनहली फसले
मानवता की - जीवन क्ष्रम से हँसे दिशाएं
हम जैसा बोएँगे वैसा ही पाएँगे।"

व्याख्या 

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कौन, कौन तुम परिहत वसना,
म्लान मना, भू पतिता सी,
वात हता विच्छिन्न लता सी
रति श्रांता व्रज वनिता सी?

नियति वंचिता, आश्रय रहिता,
जर्जरिता, पद दलिता सी,
धूलि धूसरित मुक्त कुंतला,
किसके चरणों की दासी?

कहो, कौन हो दमयंती सी
तुम तरु के नीचे सोई?
हाय! तुम्हें भी त्याग गया क्या
अलि! नल सा निष्ठुर कोई!

पीले पत्रों की शय्या पर
तुम विरक्ति सी, मूर्छा सी,
विजन विपिन में कौन पड़ी हो
विरह मलिन, दुख विधुरा सी?

गूढ़ कल्पना सी कवियों की
अज्ञाता के विस्मय सी,
ऋषियों के गंभीर हृदय सी,
बच्चों के तुतले भय सी,

भू पलकों पर स्वप्न जाल सी,
स्थल सी - पर, चंचल जल सी
मौन अश्रुओं के अंचल सी,
गहन गर्त में समतल सी?

तुम पथ श्रांता, द्रुपद सुता सी
कौन छिपी हो अलि! अज्ञात
तुहिन अश्रुओं से निज गिनती
चौदह दुखद वर्ष दिन रात?

तरुवर की छायानुवाद सी
उपमा सी, भावुकता सी
अविदित भावाकुल भाषा सी,
कटी छँटी नव कविता सी;

पछतावे की परछाईं सी
तुम भ्रू पर छाई हो कौन?
दुर्बलता सी, अँगड़ाई सी,
अपराधी सी भय से मौन।

मदिरा की मादकता सी औ'
वृद्धावस्था की स्मृति सी,
दर्शन की अति जटिल ग्रंथि सी
शैशव की निद्रित स्मिति सी,

आशा के नव इंद्रजाल सी,
सजनि! नियति सी अंतर्धान,
कहो कौन तुम, तरु के नीचे
भावी सी हो छिपी, अजान?

चिर अतीत की विस्मृत स्मृति सी,
नीरवता की सी झंकार,
आँखमिचौनी सी असीम की,
निर्जनता की सी उद्गार,

परियों की निर्जल सरसी सी
वन्य देवियाँ जहाँ विहार
करतीं छिप छिप छाया जल में,
अनिल वीचियों में सुकुमार!

तुम त्रिभुवन के नयन चित्र सी
यहाँ कहाँ से उतरीं प्रात,
जगती की नेपथ्य भूमि सी,
विश्व विदूषक सी अज्ञात!

किस रहस्यमय अभिनय की तुम
सजनि! यवनिका हो सुकुमार,
इस अभेद्य पट के भीतर है
किस विचित्रता का संसार?

निर्जनता के मानस पट पर
- बार बार भर ठंडी साँस,
क्या तुम छिप कर क्रूर काल का
लिखती हो अकरुण इतिहास?

सखि! भिखारिणी सी तुम पथ पर
फैला कर अपना अंचल,
सूखे पातों ही को पा क्या
प्रमुदित रहती हो प्रतिपल?

पत्रों के अस्फुट अधरों से
संचित कर सुख दुख के गान,
सुला चुकी हो क्या तुम अपनी,
इच्छाएँ सब अल्प, महान?

कालानिल की कुंचित गति से
बार बार कंपित होकर,
निज जीवन के मलिन पृष्ठ पर
नीरव शब्दों में निर्भर

किस अतीत का करुण चित्र तुम
खींच रही हो कोमलतर,
भग्न भावना, विजन वेदना,
विफल लालसाओं से भर?

ऐ अवाक् निर्जन की भारति,
कंपित अधरों से अनजान
मर्म मधुर किस सुर में गाती
तुम अरण्य के चिर आख्यान!

ऐ अस्पृश्य, अदृश्य अप्सरसि!
यह छाया तन, छाया लोक,
मुझको भी दे दो मायाविनि,
उर की आँखों का आलोक!

ज्योतिर्मय शत नयन खोल नित,
पुलकित पलक पसार अपार,
श्रांत यात्रियों का स्वागत क्या
करती हो तुम बारंबार?

थके चरण चिह्नों को अपनी
नीरव उत्सुकता से भर,
दिखा रही हो अथवा जग को
पर सेवा का मार्ग अमर?

कभी लोभ सी लंबी होकर,
कभी तृप्ति सी हो फिर पीन,
क्या संसृति की अचित भूति तुम
सजनि! नापती हो स्थिति हीन?

श्रमित, तपित अवलोक पथिक को
रहती या यों दीन मलीन,
ऐ विटपी की व्याकुल प्रेमसि,
विश्व वेदना में तल्लीन!

दिनकर कुल में दिव्य जन्म पा
बढ़ कर नित तरुवर के संग,
मुरझे पत्रों की साड़ी से
ढँक कर अपने कोमल अंग

सदुपदेश सुमनों से तरु के
गूँथ हृदय का सुरभित हार,
पर सेवा रत रहती हो तुम,
हरती नित पथ श्रांति अपार!

हे सखि! इस पावन अंचल से
मुझको भी निज मुख ढँककर,
अपनी विस्मृत सुखद गोद में
सोने दो सुख से क्षणभर!

चूर्ण शिथिलता सी अँगड़ा कर
होने दो अपने में लीन,
पर पीड़ा से पीड़ित होना
मुझे सिखा दो, कर मद हीन!

गाओ, गाओ, विहग बालिके,
तरुवर से मृदु मंगल गान,
मैं छाया में बैठ तुम्हारे
कोमल स्वर में कर लूँ स्नान!

- हाँ सखि! आओ, बाँह खोल हम
लग कर गले, जुड़ा लें प्राण,
फिर तुम तम में, मैं प्रियतम में
हो जावें द्रुत अंतर्धान!

व्याख्या 

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गाँव के लड़के

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मिट्टी से भी मटमैले तन,
अधफटे, कुचैले, जीर्ण वसन,--
ज्यों मिट्टी के हों बने हुए
ये गँवई लड़के—भू के धन!

कोई खंडित, कोई कुंठित,
कृश बाहु, पसलियाँ रेखांकित,
टहनी सी टाँगें, बढ़ा पेट,
टेढ़े मेढ़े, विकलांग घृणित!

विज्ञान चिकित्सा से वंचित,
ये नहीं धात्रियों से रक्षित,
ज्यों स्वास्थ्य सेज हो, ये सुख से
लोटते धूल में चिर परिचित!

पशुओं सी भीत मूक चितवन,
प्राकृतिक स्फूर्ति से प्रेरित मन,
तृण तरुओं-से उग-बढ़, झर-गिर,
ये ढोते जीवन क्रम के क्षण!

कुल मान न करना इन्हें वहन,
चेतना ज्ञान से नहीं गहन,
जग जीवन धारा में बहते
ये मूक, पंगु बालू के कण!

कर्दम में पोषित जन्मजात,
जीवन ऐश्वर्य न इन्हें ज्ञान,
ये सुखी या दुखी? पशुओं-से
जो सोते जगते साँझ प्रात!

इन कीड़ों का भी मनुज बीज,
यह सोच हृदय उठता पसीज,
मानव प्रति मानव की विरक्ति
उपजाती मन में क्षोभ खीझ!

व्याख्या 

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संदर्भ

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  1. पल्लव (1926), सुमित्रानंदन पंत, इंडियन प्रेस लिमिटेड, प्रयाग, पृष्ठ - 112-131