आधुनिक चिंतन और साहित्य/आदिवासी विमर्श

आदिवासी विमर्श बीसवीं सदी के अंतिम दशकों में शुरु हुआ अस्मितामूलक विमर्श है। इसके केंद्र में आदिवासियों के जल जंगल जमीन और जीवन की चिंताएं हैं। माना जाता है कि १९९१ के बाद भारत में शुरु हुए उदारीकरण और मुक्त व्यापार की व्यवस्थाओं ने आदिम काल से संचित आदिवासियों की संपदा के लूट का रास्ता भी खोल दिया। विशाल एवं अत्यंत शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय एवं देशी कंपनियों ने आदिवासी समाज को उनके जल, जंगल और जमीनों से बेदखल कर दिया। इसने आदिवासी इलाकों में बड़े पैमाने पर विस्थापन को जन्म दिया। बड़ी संख्या में झारखंड, छत्तीसगढ़, दार्जिलिंग आदि इलाकों से लोग बड़े महानगरों जैसे दिल्ली, कोलकाता आदि में आने को विवश हुए। इन आदिवासी लोगों के पास न धन था, न ही आधुनिक शिक्षा थी। शहरों में ये दिहाड़ी मजदूर या घरेलु नौकर बनने को बाध्य हुए। विशालकाय महानगरों ने इनकी संस्कृति, लोकगीतों और साहित्य को भी निगल लिया। नई पीढ़ी के कुछ आदिवासियों ने शिक्षा हासिल की और अवसरों का लाभ उठाकर सामर्थ्य अर्जित किया। उन्होंने सचेत रूप से अपने समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाना आरंभ किया। उन्होंने संगठन भी बनाए। आदिवासियों ने अपने लिए इतिहास की नए सिरे से तलाश की। उन्होंने अपने नेताओं की पहचान की। अपने लिए नेतृत्व का निर्माण किया। साथ ही समर्थ आदिवासी साहित्य को जन्म दिया। प्रतिरोध अस्मितामूलक साहित्य की मुख्य विशेषता है। आदिवासी विमर्श भी आदिवासी अस्मिता की पहचान, उसके अस्तित्व संबंधी संकटों और उसके खिलाफ जारी प्रतिरोध का साहित्य है। यह देश के मूल निवासियों के वंशजों के प्रति भेदभाव का विरोधी है। यह जल, जंगल, जमीन और जीवन की रक्षा के लिए आदिवासियों के ‘आत्मनिर्णय’ के अधिकार की माँग करता है।

आदिवासी साहित्य की अवधारणा सम्पादन

आदिवासी साहित्य की अवधारणा को लेकर तीन तरह के मत हैं-

  • (1) आदिवासी विषय पर लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य है।
  • (2) आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य है।
  • (3) ‘आदिवासियत’ (आदिवासी दर्शन) के तत्वों वाला साहित्य ही आदिवासी साहित्य है।

पहली अवधारणा गैर-आदिवासी लेखकों की है। परंतु समर्थन में कुछ आदिवासी लेखक भी हैं। जैसे- रमणिका गुप्ता, संजीव, राकेश कुमार सिंह, महुआ माजी, बजरंग तिवारी, गणेश देवी आदि गैर-आदिवासी लेखक, और हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो, आईवी हांसदा आदि आदिवासी लेखक।

दूसरी अवधारणा उन आदिवासी लेखकों और साहित्यकारों की है जो जन्मना और स्वानुभूति के आधार पर आदिवासियों द्वारा लिखे गए साहित्य को ही आदिवासी साहित्य मानते हैं।

अंतिम और तीसरी अवधारणा उन आदिवासी लेखकों की है, जो ‘आदिवासियत’ के तत्वों का निर्वाह करने वाले साहित्य को ही आदिवासी साहित्य के रूप में स्वीकार करते हैं। ऐसे लेखकों और साहित्यकारों के भारतीय आदिवासी समूह ने 14-15 जून 2014 को रांची (झारखंड) में आयोजित दो दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी में इस अवधारणा को ठोस रूप में प्रस्तुत किया, जिसे ‘आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा-पत्र’ के तौर पर जाना जा रहा है और अब जो आदिवासी साहित्य विमर्श का केन्द्रीय बिंदु बन गया है।

आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा-पत्र सम्पादन

आदिवासी साहित्य की बुनियादी शर्त उसमें आदिवासी दर्शन का होना है जिसके मूल तत्व हैं -

  1. प्रकृति की लय-ताल और संगीत का जो अनुसरण करता हो।
  2. जो प्रकृति और प्रेम के आत्मीय संबंध और गरिमा का सम्मान करता हो।
  3. जिसमें पुरखा-पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभार हो।
  4. जो समूचे जीव जगत की अवहेलना न करें।
  5. जो धनलोलुप और बाजारवादी हिंसा और लालसा का नकार करता हो।
  6. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
  7. जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो।
  8. जो धरती को संसाधन की बजाय मां मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो।
  9. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो।
  10. जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो।
  11. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में हो।
  12. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों तथा व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो।
  13. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यकीन करता हो।
  14. सहानुभूति, स्वानुभूति की बजाय सामूहिक अनुभूति जिसका प्रबल स्वर-संगीत हो।
  15. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्व-दृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो।

हिंदी आदिवासी कविताएं सम्पादन

आदिवासी विमर्श संबंधी साहित्य में कविता, कहानी, उपन्यास आदि प्रमुख विधाओं में रचनाएं हुई हैं। इनमें कविता सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधा है। प्रमुख आदिवासी कविता संग्रहों में झारखण्ड की संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल की 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'; रामदयाल मुंडा का 'नदी और उसके संबंधी तथा अन्य नगीत' और 'वापसी, पुनर्मिलन और अन्य नगीत' आदि हैं। इसी तरह कुजूर, मोतीलाल और महादेव टोप्पो की कविताएं भी अपने प्रतीक चरित्रों और घटनाओं की कथात्मक संशलिष्टता के कारण विशिष्ट पहचान बनाने में सफल रही हैं। मुक्त बाजार आधारित अर्थव्यवस्था के दौर में आदिवासी कभी पैसे और कभी सरकारी नियमों के बल पर अपनी जमीन से बेदखल होकर पलायन कर रहे हैं। इसके कारण आदिवासी भाषा एवं संस्कृति संकट में पड़ गई है। परंपरागत खेलों से लेकर आदिवासियों की लोक-कला तक विलुप्त होती जा रही है। यह संकट वामन शेलके के यहाँ इस रूप में है-

सच्चा आदिवासी

कटी पतंग की तरह भटक रहा है,
कहते हैं, हमारा देश

इक्कीसवीं सदी की ओर बढ़ रहा है।

मदन कश्यप की कविता "आदिवासी" बाजार के क्रूर चेहरे को सामने लाती है-

ठण्डे लोहे-सा अपना कन्धा ज़रा झुकाओ,

हमें उस पर पाँव रखकर लम्बी छलाँग लगानी है,
मुल्क को आगे ले जाना है।
बाज़ार चहक रहा है
और हमारी बेचैन आकांक्षाओं में साथ-साथ हमारा आयतन भी
बढ़ रहा है,

तुम तो कुछ हटो, रास्ते से हटो।

अनुज लुगुन विस्थापन के भय को स्वर देते हुए लिखते हैं -

बाज़ार भी बहुत बड़ा हो गया है,

मगर कोई अपना सगा दिखाई नहीं देता।
यहाँ से सबका रूख शहर की ओर कर दिया गया है:
कल एक पहाड़ को ट्रक पर जाते हुए देखा,
उससे पहले नदी गयी,
अब खबर फैल रही है कि

मेरा गाँव भी यहाँ से जाने वाला है।

हिंदी आदिवासी गद्य सम्पादन

आदिवासी गद्य साहित्य की शुरुआत बीसवीं सदी के आठवें दशक में हुई। वाल्टर भेंगरा ने झारखण्ड अंचल और वहाँ के जीवन को केंद्र में रखते हुए 'सुबह की शाम' उपन्यास लिखा। इसे हिंदी का पहला आदिवासी उपन्यास माना जाता है। पीटर पाल एक्का ने 'जंगल के गीत' लिखा। इस उपन्यास में उन्होंने तुंबा टोली गाँव के युवक करमा और उसकी प्रिया करमी के माध्यम से बिरसा मुण्डा के उलगुलान का संदेश पहुंचाया। आदिवासियों द्वारा लिखे गए उपन्यास समकालीन शिल्प और ढाँचों से दूर दिखाई पड़ते हैं। इस कमी की भरपायी गैर आदिवासियों द्वारा लिखे गए आदिवासी उपन्यासों से कुछ हद तक हो गई है। ऐसे उपन्यासों में रमणिका गुप्ता का ‘सीता-मौसी’, कैलाश चंद चौहान का ‘भँवर’, रणेंद्र का 'ग्लोबल गाँव का देवता' आदि महत्वपूर्ण हैं। आदिवासियों द्वारा लिखे गए हाल के उपन्यासों में हरिराम मीणा का ‘धूणी तपे तीर’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। रणेंद्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सिर्फ आग और धातु की खोज करनेवाली और धातु पिघलाकर उसे आकार देनेवाली कारीगर असुर जाति के “जीवन का संतप्त सारांश” है। उपन्यास की शुरुआत इस पीड़ा से होती है- “छाती ठोंक ठोंककर अपने को अत्यन्त सहिष्णु और उदार करनेवाली हिन्दुस्तानी संस्कृति ने असुरों के लिए इतनी जगह भी नहीं छोड़ी थी। वे उनके लिए बस मिथकों में शेष थे। कोई साहित्य नहीं, कोई इतिहास नहीं, कोई अजायबघर नहीं। विनाश की कहानियों के कहीं कोई संकेत्र मात्र भी नहीं’ उपन्यास के अंत तक असुर जनजाति की त्रासदी 'व्यापक समाज की त्रासदी का प्रारूप बन जाती है।'


हरिराम मीणा के ’धूणी तपे तीर‘ में गोविन्द गुरु द्वारा भीलों-मीणों के बीच जागृति फैलाने, संगठित करने और उन्हें अपने हक के लिए बोलना और लड़ना सिखाने तथा बलिदान के लिए तैयार करने की कथा है। यह सन् 1913 ई. में राजस्थान के बाँसवाड़ा अंचल में स्थित मानगढ़ पहाड़ी के आदिवासियों के बलिदान की सच्ची घटना पर आधारित है। आदिवासियों द्वारा सामंतों और औपनिवेशिक शक्तियों की साम्राज्यवादी मानसिकता के विरुद्ध गोविन्द गुरु के नेतृत्व में शांतिपूर्ण विद्रोह का बिगुल बजाया गया जिसने आगे चलकर औपनिवेशिक दमन की प्रतिक्रिया में हिंसक रूप ले लिया। इस उपन्यास में लेखक ने आदिवासी-अस्मिता को शोषित-उत्पीड़ित वर्ग और शोषक वर्ग के बीच के वृहत्तर पारंपरिक संघर्ष के रूप में देखा है।

संबंधित पत्रिकाएं सम्पादन

साहित्यिक विमर्शों का निर्माण पत्र-पत्रिकाओं के सहारे ही हो सकता है। आदिवासी विमर्श के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रिकाओं कुछ पत्रिकाओं की सूची दी जा रही है-

पत्रिका का नाम प्रकाशन स्थल संपादक
आदिवासी साहित्‍य नई दिल्‍ली गंगा सहाय मीणा
अरावली उद्घोष उदयपुर बीपी वर्मा पथिक
आदिवासी सत्ता दुर्ग, छत्तीसगढ केआर शाह
झारखंडी भाषा साहित्य, संस्कृति अखड़ा रांची वंदना टेटे
युद्धरत आम आदमी दिल्ली, हजारीबाग रमणिका गुप्ता

आदिवासी विमर्श संबंधी रचनाओं को पत्र-पत्रिकाओं के सहारे बढ़ावा देने वालों में ‘तरंग भारती’ की पुष्पा टेटे, ‘देशज स्वर’ के सुनील मिंज आदि भी उल्लेखनीय हैं। मुख्य धारा की पत्रिकाओं ने भी समय-समय पर आदिवासी विशेषांकों के जरिए इस विमर्श को आगे बढ़ाया है। इनमें ‘समकालीन जनमत’ (2003), ‘दस्तक’ (2004), ‘कथाक्रम’(2012), ‘इस्पातिका’ (2012) आदि प्रमुख हैं।