गांधीवाद महात्मा गांधी के आदर्शों, विश्वासों एवं दर्शन से उदभूत विचारों के संग्रह को कहा जाता है, जो भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे बड़े राजनैतिक एवं आध्यात्मिक नेताओं में से थे। यह ऐसे उन सभी विचारों का एक समेकित रूप है जो गांधीजी ने जीवन पर्यंत जिया था।

सत्य सम्पादन

सत्य गाँधी दर्शन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व है। गाँधी सत्य को शाश्वत मानते थे। गांधीजी कहते थे कि- “मेरे पास दुनियावालों को सिखाने के लिए कुछ भी नया नहीं है। सत्य एवं अहिंसा तो दुनिया में उतने ही पुराने हैं जितने हमारे पर्वत हैं।”[उद्धरण आवश्यक] वे मानते थे कि सत्य को ही किसी भी राजनैतिक संस्था और सामाजिक संस्थान आदि की धुरी होनी चाहिए। वे अपने किसी भी राजनैतिक निर्णय को सत्य की कसौटी पर जरूर कसते थे। वे दयाबल को आत्मबल के रूप में देखते थे तथा उसी को सत्याग्रह भी मानते थे। वे सत्य को दुनिया का आधार मानते थे जिसका सत्यापन हिंद स्वराज की उनकी उक्ति से होता है कि- "दुनिया में इतने लोग आज भी ज़िन्दा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, परन्तु सत्य, दया या आत्मबल पर है।"[१] सत्य से जुड़ा सत्याग्रह गाँधी के अनुसार कमजोरों का हथियार नहीं हैं। वे मानते थे कि- "सत्याग्रह ऐसी तलवार है, जिसके दोनों ओर धार है। उसे चाहे जैसे काममें लिया जा सकता है। जो उसे चलाता है और जिस पर वह चलाई जाती है, वे दोनों सुखी होते हैं। वह खून नहीं निकालती, लेकिन उससे भी बड़ा परिणाम ला सकती है। उसको जंग नहीं लग सकती। उसे कोई (चुराकर) ले नहीं जा सकता।"[२] सत्याग्रह के स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए गाँधीजी ने कहा कि- "जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है।"[३] सत्याग्रही के लिए आवश्यक गुणों का उल्लेख करते हुए गाँधी ने बताया कि ब्रह्मचर्यका पालन करके, गरीबी अपनाकर, अभय रहकर सत्य का पालन करने वाला ही सत्याग्रही कहा सकता है। इसी सत्याग्रह को गाँधीजी स्वराज की कुंजी मानते थे।

अहिंसा सम्पादन

अहिंसा का सामान्य अर्थ है 'हिंसा न करना'। इसका व्यापक अर्थ है - किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से कोई नुकसान न पहुँचाना। मन में भी किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी आदि के द्वारा भी पीड़ा न देना तथा कर्म से भी किसी भी अवस्था में, किसी भी प्राणी का कोई नुकसान न करना। 'युद्ध और अहिंसा' नामक पुस्तक में गाँधीजी अहिंसा को सक्रिय शक्ति के रूप में स्वीकार करते हैं। वे अहिंसा को सार्वभौम नियम के रूप में देखते थे। इसके संबंध में गाँधीजी लिखते हैं कि- "अगर मैं अपने विरोधी पर प्रहार करता हूँ, तब तो मैं हिंसा करता ही हूँ। पर अगर मैं सच्चा अहिंसक हूँ, तो जब वह मेरे ऊपर प्रहार कर रहा हो तब भी मुझे उसपर प्रेम करना है, और उसका कल्याण चाहना है, उसके लिए ईश्वर से प्रार्थना करनी है।"[४] गाँधी अहिंसा को दुनिया की सबसे बड़ी ताकत मानते थे। इसके संबंध में वे लिखते हैं कि- "अहिंसा सिर्फ व्यक्तिगत गुण नहीं है, बल्कि एक सामाजिक गुण भी है जिसे दूसरे गुणों की तरह विकसित करना चाहिए।"[५]

स्वराज सम्पादन

गांधीजी के अनुसार- "हम अपने ऊपर राज करें वही स्वराज्य है; और वह स्वराज्य हमारी हथेली में है। इस स्वराज्य को आप सपने जैसा न मानें। मन से मानकर बैठे रहने का भी यह स्वराज्य नहीं है। यह तो ऐसा स्वराज्य है कि आपने अगर इसका स्वाद चख लिया हो, तो दूसरोंको इसका स्वाद चखाने के लिए आप ज़िन्दगी भर कोशिश करेंगे। लेकिन मुख्य बात तो हर शख्स के स्वराज्य भोगने की है। डूबता आदमी दूसरे को नहीं तारेगा, लेकिन तैरता आदमी दूसरे को तारेगा। हम खुद गुलाम होंगे और दूसरों को आज़ाद करनेकी बात करेंगे, तो वह संभव नहीं है। "[६] गांधी मानते थे कि यह जरूरी नहीं है कि स्वराज प्राप्ति के लिए अंग्रेजों को देश से निकाला जाए। अपनी अंग्रेजी सभ्यता को छोड़कर यदि अंग्रेज हिंदुस्तानी बनकर भारत में रहना चाहें तो गांधी को इसमें किसी प्रकार की आपत्ति नहीं थी। इसके अतिरिक्त वे मानते थे कि- "अगर लोग एक बार सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी मालूम हो उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसी का भी जुल्म बाँध नहीं सकता। यही स्वराज्य की कुंजी है।"[७] गांधीजी ने स्वराज को भाषा से भी जोड़कर देखा था। उन्होंने माना कि स्वराज की बात अपनी भाषा में करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त वे स्वदेशी वस्तुओं के प्रयोग पर जोर देते थे। स्वराज प्राप्ति के उपायों को सुझाते हुए गांधी हिंद स्वराज में लिखते हैं कि- "स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिये-और सबको उसे अपना बनाना चाहिये। दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं है, बल्कि परराज्य है। इसलिए सिर्फ़ अंग्रेजों को बाहर निकाला कि आपने स्वराज्य पा लिया, ऐसा अगर आप मानते हों तो वह ठीक नहीं है। सच्चा स्वराज्य जो मैंने पहले बताया वही होना चाहिये। उसे आप गोला-बारूद से कभी नहीं पायेंगे। गोला-बारूद हिन्दुस्तान को सधेगा नहीं। इसलिए सत्याग्रह पर ही भरोसा रखिये। मनमें ऐसा शक भी पैदा न होने दीजिये कि स्वराज्य पाने के लिए हमें गोला-बारूद की ज़रूरत है।"[८] गांधी ने अपने स्वराज संबंधी विचारों को सार रूप में एक साथ अभिव्यक्त करते हुए लिखा कि-

  1. 'अपने मन का राज्य स्वराज्य है।
  2. उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करुणा-बल है।
  3. उस बलको आजमाने के लिए स्वदेशीको पूरी तरह अपनाने की ज़रूरत है।
  4. हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजोंके लिए (हमारे मनमें) द्वेष है इसलिए या उन्हें सजा देनेके लिए नहीं करें, बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। मतलब यह कि अंग्रेज अगर नमक-महसूल रद कर दें, लिया हुआ धन वापस कर दें, सब हिन्दुस्तानियों को बड़े बड़े ओहदे दे दें और अंग्रेजी लश्कर हटा लें, तो हम उनकी मिलों का कपड़ा पहनेंगे, या अंग्रेजी भाषा काम में लायेंगे, या उनकी हुनर-कला का उपयोग करेंगे सो बात नहीं है। हमें यह समझना चाहिये कि वह सब दरअसल नहीं करने जैसा है, इसलिए हम उसे नहीं करेंगे।'[९]

हिंदी साहित्य पर प्रभाव सम्पादन

हिंदी साहित्य में प्रेमचंद तथा उनकी रचनाओं पर गाँधीवाद का प्रभाव दिखाई देता है। भीष्म साहनी के 'तमस' उपन्यास का पात्र जरनैल भी इसी विचारधारा से प्रेरित है। रामवृक्ष बेनीपुरी का 'सुभान खाँ' रेखाचित्र भी गाँधीवाद के प्रभाव में दिखाई देता है।

संदर्भ सम्पादन

  1. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.६०
  2. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.६५
  3. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.६६
  4. गांधीजी-'युद्ध और अहिंसा', सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली: १९४१, पृ.१६०
  5. गांधीजी-'युद्ध और अहिंसा', सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली: १९४१, पृ.१४१
  6. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.४७
  7. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.६३
  8. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.८०
  9. गांधीजी-हिन्द स्वराज्य, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद: १९४९, पृ.८७