आधुनिक चिंतन और साहित्य/मनोविश्लेषणवाद

मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्त्तक सिग्मण्ड फ्रायड हैं। मानव मस्तिष्क तथा उसका चिंतन इस विचारधारा के केंद्र में रहा है। इसके अंतर्गत मानव-स्वप्न का भी अध्ययन किया गया। फ्रायड के चिंतन के संबंध में प्रीति अग्रवाल लिखती हैं कि-'मानसिक-स्नायविक रोगों की चिकित्सा के दौरान फ्रायड ने पाया कि सम्मोहन-क्रिया अथवा वार्तालाप में स्वच्छन्द-विचार-साहचर्य से बहुत से पुराने अनुभव पुनरुज्जीवित हो उठते हैं। साथ ही इन अनुभवों का मूल कारण कामवृत्ति और उसका अचेतन रूप से दमन है।'[१] फ्रयाड ने इसका प्रयोग प्रारम्भ चिकित्सा के क्षेत्र में ही किया किन्तु फ्रायड के समय से लेकर अब तक मनोविश्लेषण ने इतनी प्रगति कर ली है कि आधुनिक युग की कोई भी विचारधारा इसके प्रभाव से अछुति नहीं रह सकी।[२]

फ्रायड सम्पादन

मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्त्तक फ्रायड हैं। मानसिक स्नायविक रोगों की चिकित्सा करते वक्त फ्रायड ने पाया कि सम्मोहन क्रिया अथवा वार्तालाप में स्नच्छंद विचार साहचर्य से बहुत से पुराने अनुभव पुनरुज्जीवित हो उठते हैं। उन्होनें यह भी पाया कि इन अनुभव का मूल कारण कामवृत्ति और उसका अचेतन रूप से दमन है। इस कारण वे जिस मनोवैज्ञानिक सिद्धांत पर पहुँचे उसका सार है--शैशविय दमित कामवृत्ति। फ्रायड के अनुसार शैशवीय दमित कामवृत्ति जो कि शिशु के जन्म से ही कार्यशील रहती है, उसका प्रकाशन मनुष्य के समस्त व्यवहार में परोक्ष रूप से विद्यमान रहता है।[३] वे इसे मनुष्य के जीवन की मुख्य प्रेरक शक्ति के रूप में देखते थे। इस शक्ति को वे लिबिडो कहते है। शैशव में मानस में केवल इड ही विकसित रहता, उस वक्त उसमें कामवासना तथा अन्य कई इच्छा रहते हैं और उस वक्त दमन का कोई प्रश्न नहीं उठता। शिशु का अंगूठा चूसना तथा बाद में माता-पिता, संबंधियों के प्रति आकर्षित होना जैसी क्रियाएँ इसका उदाहरण हैं। बाद में उसके चेतन मन से उसे सामाजिक संबंध का ज्ञान होता है और उसके अन्दर सामाजिक और नैतिक दवाबों के कारण अहं और सुपर अहं का विकास होने लगता है और स्वाभाविक कामेच्छाओं का दमन हो जाता है। इन दमित इच्छाओं से अचेतन मानस का निर्माण होता है। जो शिशु के लिए निषिद्ध है या भय का रूप ले लेता है वहीं उसके प्रबल इच्छा है जो वह पूरे नहीं कर पाता। बचपन में शिशु के मन में कई इच्छा रहती है किन्तु सामाजिक और नैतिक दबाव के कारण उसके कई सारे इच्छा अपूर्ण रह जाते है। इन्हीं इच्छाओं की पूर्ति वह अपने मन के लोक में करता है। शिशु की कामवृत्ति अपने माता-पिता, और भाई-बहन की ओर प्रेरित होती है। फ्रायड मानते है कि शिशु में विषमलिंगी के प्रति कामेच्छा और समलिंगी जन के प्रति ईर्ष्या होती है पर इन दोनों का दमन हो कर उसमे नैतिक और सामाजित रूप से स्विकृत प्रेम और आदर का भाव प्रकाशित होता है। फ्रायड की यह मानसिकता इडिपस कुंठा‍‍ से प्रभावित है।इडिपस कुंठा इडिपस नाम के एक व्यक्ति के नाम पर बना है जिसनें अपने पिता की हत्या कर अपनी माँ से विवाह किया था। फ्रायड मानते है कि हमारी किसी भी प्रेरणा के पिछे हमारे अचेतन मन में इक्ट्ठा हमारी इच्छा का ही हाथ होता है। फ्रायड का मानना है कि कला और धर्म दोनों का उद्भव अचेतन मानस की संचित प्रेरणाओं और इच्छाओं में ही होता है। कलाकार जब नैतिक दबाव के कारण इच्छाओं को व्यक्त नहीं कर पाता है तो वह कला के माद्यम से यद कार्य करता है।[४] फ्रायड की मानना है कि मानसिक जीवन में कुछ भी अकारण अथवा निष्प्रयोजन नहीं होता है। प्रयोजन या प्रेरणा प्रमुखतः कोई कामेच्छा होती है जिसे हम मनोविश्लेषण के द्वारा जान सकते हैं। फ्रायड चेतना को तीन भाग में बाँटते है-ः

चेतना सम्पादन

फ्रायड मानते हैं कि हमारे इच्छाओं का संबंध हमारे मन से है क्योंकि यहीं पर हमारे इच्छा अचेत रूप में दबी रहती है और यहीं से उन इच्छाओं की पूर्ति की प्रेरणा मिलती है ‌। फ्रायड चेतना के तीन रूप मानते हैं;-

अचेतन सम्पादन

फ्रायड अचेतन मन को सबसे महत्वपूर्ण मानते हैं क्योंकि हमारे सभी दमित इच्छाओं का संग्रहण यहीं होता है और इसी चेतना का प्रभाव हमारे समस्त कार्यों पर भी पड़ता है। यही पर एकत्रित इच्छाओं की पूर्ति के लिए हमारा मन कई बार हम पर दबाव डालता है और यथार्थ संसार में ना पूरा होने पर कल्पना या स्वप्न लोक की रचना करता है।

अर्द्ध चेतन सम्पादन

हमारे दमित इच्छा कई बार यथार्थ संसार में हम पर हावी होने का प्रयास करती है किन्तु हमारे सुपर इगो के कारण वह पूर्ण नहीं हो पाते। जब कभी इन दमित इच्छाओं को हमारा सुपर इगो रोक नहीं पाता तो वह अपराध, खंडित व्यक्तित्व, हिस्टिरिया आदि रूप में बाहर आ जाती है।

चेतन सम्पादन

चेतन मन का मुख्य कार्य होता है, संसार में हमें नैतिकता और सामाजिक संबंधों का बोध कराना। शिशुओं में यह चेतन मन विकसित नहीं होता परन्तु जैसे जैसे वह बड़ा होता है इसी चेतन मन के कारण उसमें अहं और‌ सुपर अहं विकसित होती है और उसके कई इच्छाओं का दमन हो कर अचेतन मन का निर्माण होता है।

निष्कर्षतः हम देखते है कि फ्रयाड के अनुसार कोई शिशु संसार में आता है तो उस वक्त उसके मन में कई इच्छाएं रहती है किन्तु चेतन मन के द्वारा उसके कई सारे इच्छा दब जाते हैं और वे अचेतन मन का हिस्सा बन जाते है। इन इच्छाओं को वह पूर्ण करना चाहता है किन्तु अगर यथार्थ संसार में वह असफल होता है तो कल्पना लोक की ओर अग्रसर होता है, उदाहरण के रूप में हम अपने स्वप्न को देख सकते है, जब हम सोते है उस वक्त हमारा अचेतन मन अधिक जागृत रहता है और हम सपने में वे कार्य करते है जो संसार में नहीं कर पाते। रह रहकर उसके यह इच्छाएं उसे इस संसार में भी प्रेरित करती है किन्तु सुपर इगो के कारण वह पूर्ण नहीं हो पाती। कलाकार अपने इन्हीं इच्छाओं को कला के माध्यम से अभिव्यक्ति देता है। मानसिक जीवन में यथार्थ और सुखेच्छा के बीच जो संघर्ष होता है, उसका समाधान कलाकार कला के द्वारा करता है। व्यक्ति की जो दमित इच्छा पूर्ण हो जाती है वह उसके अचेतन मन से निकलकर जीवन का हिस्सा बन जाती है।

फ्रायड का चेतन और अचेतन संबंधित उदाहरण सम्पादन

वैसे तो हम संसार का बोध चेतन मस्तिष्क द्वारा करते हैं किन्तु फ्रायड अचेतन मन को अधिक व्यापक और प्रमुख मानते हैं क्योंकि चेतन मन हमें संसार के नैतिकता और संबंधों से अवगत करवाता है किन्तु चेतन मन द्वारा दमित सारे इच्छाओं का संग्रहण अचेतन मन में होता है और यहीं हमारे सारे कार्यों के प्रेरणा के मूल में है।

  1. फ्रायड ने पहला उदाहरण हिमशिला का लिया है, जिसका तीन भाग जल मग्न है और एक भाग ऊपर है। उन्होंने कहा कि जो तीन भाग जलमग्न है वह अचेतन मन है और जो ऊपर है वह चेतन मन है। मन का बड़ा हिस्सा अचेतन मन का ही है।
  1. दूसरे उदाहरण में वह कहते हैं कि किसी गोदाऊन के बाहर रखा सुव्यवस्थित चीज़ें चेतन मन की सुव्यवस्थित चीजों के समान है और उस गोदाऊन के भीतर पड़ी चीज़ें अचेतन मन के भीतर पड़ी इच्छा के समान है।
  1. तीसरे उदाहरण में वह कहते हैं कि समुद्र का सारा जल अचेतन मन की इच्छा है और समुद्र में उठने वाली लहरें चेतन मन के समान है।

एडलर सम्पादन

फ्रायड के शिष्य एडलर ने 'अहम्' को अधिक महत्त्व दिया। उनका मानना था कि मानसिक स्नायविक रोगों का मुख्य कारण अहम् हो सकता है। वे मानते है कि फ्रायड ने कामवृति को अनावश्यक महत्व दिया है। प्रत्येक व्यक्ति में अहम् स्थापन की स्वाभाविक मूल प्रवृत्ति होती है। एडलर के अनुसार मानसिक जीवन की मुख्य समस्या अहम् स्थापन की इच्छा तथा जीवन के यथार्थ का बोध है। समाज, व्यवसाय तथा विवाह इन तीन जीवन के क्षेत्रों में यह इच्छा अभिव्यक्त होती है। आत्म-स्थापन के सिद्धांत के अनुसार- 'मानसिक-स्नायविक रोग का मूल कारण हीनत्व-कुण्ठा है, यथार्थ से संघर्ष के कारण व्यक्ति के आत्म-स्थापन को संतोष नहीं मिल पाता और उसमें हीनत्वभावना विकसित हो जाती है। इस भावना से मुक्ति पाने के लिए व्यक्ति प्रयत्न करता है, इसका दमन करता है। दमन के परिणामस्वरूप कुछ व्यक्तियों में अत्यधिक गर्व आ जाता है, जिसे हीनत्वकुण्ठा का कपट-रूप माना जाता है।'[५] एडलर के अनुसार व्यक्ति संसार में कमजोर, महत्वहीन और असहाय रूप में आता है। प्रकृति से लड़ने और भोजन, वस्त्र तथा शरण के लिए अपने बड़ों पर अवलम्बित रहता है। दूसरी ओर वह देखता है कि उसके बड़ों के पास अधिक शक्ति है, वे विश्व के प्रति अधिक ज्ञान रखते है और जैसै चाहते है, रहते है। इन सब कारणों से वह एक हीनता की भावना का अनुभव करने लगता है। अपने हीनता की पूर्ति के लिए वह समाज में स्वयं का एक व्यक्तिव समाज में स्थापित करना चाहता है। वह दूसरों का ध्यान और प्रशंसा पाने की चेष्टा करता है किन्तु जब वह वातावरण से कोई उत्तर नहीं पाता है तब वह कल्पना की शरण लेता है और अपने कल्पना लोक में वह अपनी खवाईश पूरी करता है। इस प्रकार हीन भावना की यह अनुभूति बच्चों में प्रयत्नों को जन्म देनेवाली प्रेरक शक्ति है। बच्चा अपनी हीनता की क्षतिपूर्ति के लिए जिन मार्गों को ग्रहण करता है वे उसके लक्ष्य का निश्चय करते है और जो उसके वयस्क जीवन के समस्त व्यपारों का निर्देश करते है। बचपन की हीन भावनाओं की भिन्नताओं के कारण मनुष्य-मनुष्य के जीवन के लक्ष्य भिन्न-भिन्न हुआ करते है। इन भावनाओं का उदय बचपन के भिन्न-भिन्न कारणों के कारण ही अलग-अलग जन में अलग-अलग रूप में होती है। अनुचित प्यार, विषम परिस्थिति, आंगिक हिंसा, प्रथम संतान या अंतीम संतान आदि कारणों से किसी में आनंद तो किसी में ऊब जैसी भावना जन्म लेती है।[६]

युंग सम्पादन

फ्रायड ने काम और व्यक्ति की दमित भावनाओं को तथा एडलर ने अहम् को महत्त्व दिया। युंग ने दोनो को एक साथ रखा। किंतु उन्होंने फ्रायड के इस मत का विरोध किया कि- काम जीनव की प्रमुख प्रेरक शक्ति है। उन्होंने लिबिडो को व्यापक अर्थ प्रदान करते हुए माना कि- 'काम जीवन की वह प्रारम्भिक और सामान्य प्रेरक शक्ति है, जो मानव के सभी व्यवहारों में व्यक्त होती है। यह वह शक्ति है जो विकास, क्रिया तथा जनन में स्वयं को अभिव्यक्त करती है। उन्होनें माना कि मानव मुख्य रूप से एषणात्रय ‍‍यानी कि पुत्रएषणा, वित्तएषणा और लोकएषणा की पूर्ति करना चाहता है, यहीं उसका लक्ष्य है। मनुष्य जीना चाहता है और अपनी इच्छाओं की पूर्ति करना चहता है। इस कारण वह सामाजिक कार्य करता है, साथ ही कला का सृजन भी करता है ताकि उसका अस्तित्व अमर रहे।[७]उन्होंने व्यक्त्तित्व के दो प्रकारों का उल्लेख किया है- अंतर्मुखी तथा बहिर्मुखी।

अंतर्मुखी सम्पादन

युंग के अनुसार अंतर्मुखी व्यक्ति वह होता है जो एकांत प्रिय और कल्पना लोक में रहना अधिक पसंद करता है।

बहिर्मुखी सम्पादन

बहिर्मुखी व्यक्ति समाज के बीच‌ रहना पसंद करता है। वह सामाजिक कार्य करता है।'[८]

संदर्भ सम्पादन

  1. धीरेन्द्र वर्मा(प्र.सं.)-हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी:२०००, पृ.४७५
  2. हिन्दी साहित्य कोश भाग-१--पारिभाषिक शब्दावली-पृष्ठ-४७५
  3. धीरेन्द्र वर्मा(प्र.सं.)-हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी:२०००, पृ.४७५
  4. हिन्दी आलोचना की पारिभाषिक शब्दावली-डाॅ. अमरनाथ-पृष्ठ-२६६
  5. धीरेन्द्र वर्मा(प्र.सं.)-हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी:२०००, पृ.४७६
  6. हिन्दी उपन्यास एक अंतरयात्रा-राम दरश मिश्र-पृष्ठ-८३
  7. हिन्दी उपन्यास एक अंतरयात्रा-राम दरश मिश्र-पृष्ठ-८४
  8. धीरेन्द्र वर्मा(प्र.सं.)-हिन्दी साहित्य कोश, भाग १, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी:२०००, पृ.४७६