हिंदी भाषा और साहित्य ख/कबीर

स्रोत: संपा, श्यामसुंदर दास, कबीर ग्रंथावली, नागरी प्रचारिणी सभा काशी, उन्नीसवां संस्करण, सं. २०५४ वि.

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

संदर्भ-राम नाम का महत्व समझ लेना ही वास्तविक पण्डित होना है।

भावार्थ-संसार के समस्त धर्म ग्रन्थों को पढ़-पढ़ करके सारा संसार मर गया किन्तु उनमें से कोई भी वास्तविक पंडित नहीं हो सका। किन्तु जिसने प्रियतम का (प्रभु का) एक शब्द 'राम' पढ़ लिया वह वास्तव में पंडित हो गया।[]

कस्तूरी कुंडलि बसै मृग ढूँढत बन माहि ।
ज्यों घट घट में राम हैं दुनिया देखत नाहि॥

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान
शीश दिए जो गुरु मिले तो भी सस्ता जान

सात समुंदर की मसि करूं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

संदर्भ-हरि के गुण अनिर्वचनीय हैं।

भावार्थ-इसका तात्पर्य है कि सातों समुद्र में स्याही घोल लूँ तथा समस्त वृक्षों की लेखनी बना लूँ, समस्त धरती को कागज बना लूँ, तब भी हरि के गुण का उल्लेख नहीं किया जा सकता है।

साधु ऐसा चाहिए,जैसा सूप सुहाय।
सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय॥

सतगुरु हम सूँ रीझि करि, कहा एक प्रसंग।
बरसा बादल प्रेम का, भीजि गया सव अंग॥

"सन्दर्भ-प्रस्तुत प्रसंग में कबीर ने अनेक बार कहा है कि "सतगुरु मार्या बाण भरि," 'सतगुरु साचा मरिवो, सबद जु बाह्य एक"। "लागत ही मैं मिट गया, पड़या कलेजे छ़ेक" तथा "सतगुरु लई कमांण कहि, बाहण लागा तीर। एक जु बाह्या प्रीति सूं भीतरि रह्या सरीर।" एक शब्द बाण से आहत होने के अनन्तर, अब कबीर का अन्तर प्रेम के बादल से भीग जाने का वर्णन है। यहाँ सतगुरु ने एक प्रसंग कहा है और वहाँ एक कमांन के चलने का उल्लेख है। दोनों का फल एक ही है। परन्तु प्रभाव दोनों का दिव्य, असाधारण और ब्रह्यानुभूति है।

भावार्थ-सतगुरु ने हमसे प्रसन्न होकर एक प्रसंग कहा। फलतः प्रेम का बादल बरसा और सब अंग आर्द्र हो गए।

विशेष-सतगुरु ने शिष्य की योग्यता, सच्चाई और लगन देखकर उसके उपयुक्त प्रेम का एक प्रसंग प्रस्तुत किया। यह प्रेम का प्रसंग ब्रह्यानुभूति का प्रसंग था। प्रेम का यह प्रसंग इतना प्रभावशाली था कि शिष्य के समस्त अंग उसी से आर्द्र हो गये। इसी भाव से प्रेरित होकर कबीर ने अन्यत्र कहा है कि "लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल। लाली देखन मैं गई मैं भी हो गई लाल।" यहाँ भी प्रेम का अनुराग के रंग में समस्त अंगों के भीग जाने का वर्णन है।"[]

  1. टीकाकार डॉ० सावित्री शुक्ल-कबीर ग्रन्थावली, प्रकाशन केन्द्र, लखनऊ, पृ.१९७[१]
  2. कबीर ग्रंथावली