कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/मीराबाई की माधुर्य भक्ति


मीरा ने कृष्ण को अपना पति माना है। इस प्रकार अपने को कृष्ण की पत्नी मानकर उन्होंने कृष्ण की मधुर-लीलाओं का आस्वादन किया। उनमें सन्त मत के प्रभाव के कारण रहस्य की छाप पूर्ण रूप में देखी जा सकती है:

मैं गिरधर रंग राती,सैयाँ मैं।
पचरंग चोला पहर सखी मैं, झिरमिट खेलन जाती।।
ओह झिरमिट माँ मिल्यो साँवरो ,खोल मिली तन गाती।
जिनका पिया परदेश बसत है,लिख लिख भेजें पाती।।
मेरा पिया मेरे हिये बसत है, ना कहुँ आती जाती।
चंदा जायगा सूरज जायगा, जायगी धरणि अकासी।।
पवन पाणी दोनुं ही जायेंगे, अटल रहे अविनासी।
सुरत निरत का दिवला संजोले,मनसा की करले बाती।।
प्रेम हटी का तेल मंगाले जगे रह्या दिन ते राती।
सतगुरु मिलिया साँसा भाग्या, सैन बताई साँची।
ना घर तेरा न घर मेरा, गावे मीरा दासी।।

अन्यथा मीरा का सारा समय प्रियतम से यही प्रार्थना करते व्यतीत होता है :

गोविंद कबहुँ मिले पिया मोरा।
चरण कंवल कूं हंसि-हंसि देखू राखूं नेणा नेरा।।
निरखण कूं मोहि चाव घणेरो,कब देखूं मुख तेरा।
व्याकुल प्राण धरत नहिं धीरज,मिलि तूं मीत सवेरा।
मीरा के प्रभु हरि गिरधर नागर,ताप तपन बहुतेरा।।

मीरा के प्रियतम गिरधर नागर मोर मुकुट धारी हैं उनके गले में वैजयन्ती माला फहरा रही है। पीताम्बर धारण किये वे वन-वन में गायें चराते हैं। कालिन्दी तट पर पहुँच कर शीतल कदम्ब की छाया में सुखासीन हो मधुर मुरली बजाते हैं। इस प्रकार अपनी सहज माधुरी से गोपियों को मोहित कर उनसे रास आदि क्रीड़ाएँ करते हैं.इसी मोहन लाल की माधुरी-छवि मीरा के मन में बस गई हैऔर वे उस पर अपना तन मन वर्ण को प्रस्तुत हैं। `उस मोहन के मोहित करने वाले रूप को देखकर मीरा के नेत्रों को सतत उन्हीं को देखने की आदत बन गई है। वह अपनी इस स्थिति को अपनी सखी के सम्मुख इस प्रकार प्रस्तुत करती है:

आली री मेरे नेणाँ बाण परी।
चित्त चढ़ी मेरे माधुरी मूरत,उर बिच आन अड़ी।
कब की ठाढ़ी पंथ निहारूँ , अपने भवन खड़ी।।
कैसे प्राण पिया बिन राखूं, जीवन मूर जड़ी।
मीरा गिरधर हाथ विकानी लोग कहैं बिगड़ी।।

और अपनी इस स्थिति के आधार वे दृढ़ता पूर्वक कहती हैं:

मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई।
जाके सिर मोर मुकुट,मेरे पति सोई--

मीरा प्रियतम से मिलने के लिए नाना प्रकार के उपवास ,व्रत आदि करती हैं जिनके फलस्वरूप सूखे पत्ते की भाँति पीली पड़ जाती है ,सूखकर काँटा जाती है किन्तु उनकी व्यथा को शान्ति किसी प्रकार नहीं मिलती। अन्ततः जब उनका ह्रदय इस पीड़ा से अत्यधिक व्यथित हो उठता है तब वह अपनी पीड़ा को कम करने के लिए उसे इस प्रकार प्रकट कर देती हैं ~~

सखी मेरी नींद नसानी हो।
पिय को पंथ निहारत,सिगरी रैण बिहानी हो।।
सब सखियन मिली सीख दई,मन एक न मानी हो।
बिनि देख्याँ कल नाहिं पड़त,जिय ऐसी ठानी हो।।
अंगि अंगि ब्याकुल भई,मुख पिय पिय बानी हो।
अन्तर वेदन बिरह की, वह पीड़ा न जानी हो।।
ज्यूँ चातक घन को रटे, मछरी जिमि पानी हो।
मीरा ब्याकुल बिरहणी, सुध बुध बिसरानी हो।।

कवियत्री ने एकाध पद में वृन्दावन का वर्णन भी किया है ~~

आली म्हाने लागे वृन्दावन नीको।
घर-घर तुलसी ठाकुर पूजा,दरसण गोविंद जी को।
निरमल नीर बहुत जमुना में,भोजन दूध दही को।
रतन सिंघासण आप बिराजे,मुकुट धरयो तुलसी को।.
कुंजन-कुंजन फिरत राधिका,सबद सुणत मुरली को।
मीरा के प्रभु गिरधर नागर, भजन बिना नर फीको