कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/सूरदास की माधुर्य भक्ति


सूरदास ने अपने उपास्य राधा-कृष्ण के स्वरुप को निम्न पद के द्वारा स्पष्ट किया है ;

ब्रजहिं बसे आपुहि बिसरायो।
प्रकृति पुरुष एकै करि जानों बातन भेद करायो।।
जल थल जहाँ रहो तुम बिन नहिं भेद उपनिषद गायो।
द्वै तनु जीव एक हम तुम दोऊ सुख कारन उपजायो।।
ब्रह्म रूप द्वितीया नहिं कोई तव मन त्रिया जनायो।
सूर स्याम मुख देखि अलप हँसि आनन्द पुंज बढ़ायो।।
(सूरसागर:स ० नन्ददुलारे बाजपेयी;पृष्ठ ८४१)

स्पष्ट है कि राधा प्रकृति है और कृष्ण पुरुष हैं। अपने इस रूप में अभिन्न हैं। किन्तु लीला-विस्तार के लिए तथा भक्ति के प्रसार के लिए उन्होंने दो शरीर धारण किये हैं :

प्रान इक द्वै देह कीन्हें,भक्ति-प्रीति-प्रकास।
सूर-स्वाम स्वामिनी मिलि,करत रंग-विलास।।
(सूरसागर:स ० नन्ददुलारे बाजपेयी;पृष्ठ ६३५ )

राधा और कृष्ण का प्रेम सहज है ~ क्योंकि उसका विकास धीरे-धीरे बाल्य-काल से ही हुआ है। दोनों का प्रथम परिचय रवि-तनया के तट पर सहज रूप से होता है। एक दूसरे के सौन्दर्य,वाक्चातुरी तथा क्रीड़ा-कला पर मुग्ध वे परस्पर स्नेह-बंधन में बंध जाते हैं। यही उनके प्रेम का प्रारम्भ है :

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहति काकी है बेटी, देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी।।
काहे कौं हम ब्रज-तन आवति, खेलति रहति आपनी पोरी।
सुनत रहति स्रवननि नंद-ढोटा,करत फिरत माखन दधि चोरी।।
तुम्हरौ कहा चोरि हम लैहैं, खेलन चलौ संग मिलि जोरी।
सूरदास प्रभु रसिक-सिरोमनि बातनि भुरइ राधिका भोरी।।
(सूरसागर: पृष्ठ ४९७ )

राधा और कृष्ण का सौन्दर्य भी अपूर्व है। निम्न पद में वर्णित राधा और कृष्ण दोनों का सौन्दर्य दर्शनीय है ~~

खेलन हरि निकसे ब्रजखोरी।
कटि कछनी पीताम्बर बाँधे, हाथ लए भौंरा, चकडोरी।।
मोर-मुकुट,कुंडल स्रवननि बर,दसन-दमक दामिमि-छवि छोरी।
गए स्याम रवि-तनया कैं तट अंग लसत चंदन की खोरी।।
औचक ही देखी तहँ राधा, नैन विसाल भाल दिये रोरी।
नील बसन फरिया कटि पहरे,बैनी पीठि रुलति झकझोरी।।
संग लरिकनीं चलि इत आवति,दिन-थोरी,अति छवि तन गोरी।
सूर स्याम देखत ही रीझे, नैन नैन मिलि परी ठगोरी।।
(सूरसागर :पृष्ठ ४९६ )

राधा और कृष्ण की सुन्दरता के साथ-साथ सूर ने उनके चातुर्य का भी वर्णन कई पदों में किया है। सुन्दरता और चतुरता में समानता के साथ-साथ राधा और कृष्ण का प्रेम भी समान है। जहाँ राधा,कृष्ण-प्रेम में आत्म-सुधि भूल कर खाली मटकी बिलोने लगती हैं ~वहाँ कृष्ण भी राधा-प्रेम के वश वृषभ दोहन प्रारम्भ कर है ;

आयसु लै ठाढ़ी भई ,कर नेति सुहाई।
रीतौ माट बिलोवई, चित्त जहाँ कन्हाई।।
उनके मन की कह कहौं,ज्यौं दृष्टि लगाई।
लैया नोई वृ षभ सों, गैया बिसराई।।
नैननि में जसुमति लखी,दुहुँ की चतुराई।
सूरदास दंपति-दसा, कापै कहि जाई।।
(सूरसागर: पृष्ठ ५१० )