जनपदीय साहित्य सहायिका/जनपदीय साहित्य की अवधारणा


जनपदीय साहित्य की अवधारणा

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* जनपदीय साहित्य या लोक साहित्य का मतलब गांव के साहित्य से है। जनपद का आधुनिक अर्थ गांव और राष्ट्र के बीच की इकाई है।


*जनपदीय साहित्य ऐसा साहित्य है जो अशिक्षित तथा असभ्य माने जाने वाले लोगों की स्वच्छंद अभिव्यक्ति है यह साहित्य लोगों के मनोरंजन के लिए रचा जाता है तथा जनता को उसकी परंपरा, रीति-रिवाज से परिचित कराने का तरीका भी है।


*सामान्यतः साहित्य मौखिक ही रहा है और वह मौखिक ही चला आ रहा है परंतु अब शिक्षा और छपाई के प्रचार प्रसार के कारण लोक साहित्य संग्रह के रूप में उपलब्ध है।


*साहित्य शब्द के पूर्व 'लोक' लगाने के बाद इसका अर्थ होगा लोग का साहित्य ,लोक का अर्थ जनता जनार्दन से किया जाता है इसलिए लोक साहित्य का बोध ऐसे साहित्य से होता है जो जनता जनार्दन द्वारा रचा जाता है।


*जनपदीय  साहित्य एक जन समूह द्वारा रचा जाता है।जन समूह की जो भावनाएं, रीति रिवाज, धार्मिक परंपरा, व्यवहार, प्रेम, विश्वास वात्सल्य, भय आदि भावनाएं होती हैं उनकी सामूहिक अभिव्यक्ति गीत ,कथा आदि के रूप में होती है।


*किसी एक ने एक पंक्ति बनाई तो दूसरे ने एक और पंक्ति जोड़ दी और तीसरे ने तीसरी पंक्ति जोड़कर गीत को आगे बढ़ा दिया इसी प्रकार परवर्ती पीढ़ियों ने भी उस गीत में संशोधन, परिवर्द्धन किए और इस प्रकार से अनेक लोगों के सहयोग से जो साहित्य प्रकाश में आया उसे लोक साहित्य की संज्ञा प्रदान की गई।


*लोकसाहित्य का कार्य महज लोकगीत ,लोक कथाओं और लोग कहावतों के संकलन का कार्य नहीं है बल्कि यह जो अनादि काल से अनंत काल तक मानव की जीवन यात्रा चली आ रही है उसमें वह कहां गिरा, कहां उठा और कहां आगे बढ़ा इसकी सब की खोज ,शोध व अध्ययन का कार्य है।

जनपदीय साहित्य की विशेषताएं

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जनपद साहित्य की विशेषताओं में निम्नलिखित विशेषताओं का उल्लेख किया जा सकता है-
  • इसका रचनाकार अज्ञात होता है।
  • यह मौखिक परंपरा द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संक्रमित संचरित होता चला जाता है।
  • लोक साहित्य की रचना अनेक रचनाकारों के योगदान द्वारा अस्तित्व में आती है अर्थात लोक साहित्य लोकमानस द्वारा रचित है।
  • लोक साहित्य का कोई शास्त्र नहीं होता अर्थात उसकी रचना का मानदंड पूर्व निर्धारित नहीं होता बल्कि वह शास्त्रों के नियम-बंधनों को स्वीकार नहीं करता। तात्पर्य है कि लोक साहित्य पर किसी प्रकार के नियम या सिद्धांत लागू नहीं होते। लोकगाथा या गीतों की रचना में अलंकार-छंद आदि की कोई स्थाई योजना नहीं होती।
  • लोक साहित्य निश्चय ही किसी जनपदीय बोली में व्यक्त होता है।
निष्कर्षत:

यह कहा जा सकता है की जनपद साहित्य वह रचना या जन अभिव्यक्ति है जिसका रचनाकार ज्ञात नहीं होता तथा यह अलिखित रूप में अपनी मौखिक परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक बढ़ती रहती है। जो किसी जनपद के लोक जीवन और लोक संस्कृति की अभिव्यक्ति जनपदीय बोली के माध्यम से करती है। जिसे किसी शास्त्रीय सिद्धांतों का बंधन स्वीकार्य नहीं और जो सहज, स्वत: स्फूर्त जनमानस की अनुभूतियों को व्यक्त करती है। इसी अर्थ में किसी भाषा के शिष्ट साहित्य से वह भिन्न होता है क्योंकि शिष्ट  साहित्य की रचना लिखित रूप में होती है और उसका रचनाकार ज्ञात होता है।

जनपद साहित्य के विविध रूप

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लोक साहित्य के कई रूप हैं - लोकगीत,लोकगाथाएं,लोकनाटक,लोककथाएं, लोकोक्तियां एवं पहेलियां। इनकी विशेषताएं,कथ्य एवं कला,लगभग समान रूप से प्रत्येक क्षेत्र में दिखाई पड़ती है। भिन्नताएं कम है इसलिए इनका विश्लेषण करते समय ज्यादातर एक रेखीयता एवं दोहराव दिखलाई पड़ता है।

लोकगीत

"लोकगीत किसी संस्कृति के मुंह बोलते चित्र हैं"। दूसरे शब्दों में कहें तो लोकगीत संस्कृति की सीधी अभिव्यक्ति है। इन के माध्यम से बिना किसी बनावट के लोगों की भावनाएं व्यक्त होती है। यह लयबद्ध और मधुर होते हैं। लोकगीत के भी कई रूप हैं-

  1. ऋतु संबंधी गीत
  2. व्रत संबंधी गीत
  3. संस्कार संबंधी गीत
  4. श्रम संबंधी गीत
  • ऋतु संबंधित गीत-जैसे प्रत्येक अनुष्ठान से संबंधित गीत होते हैं उसी प्रकार प्रत्येक ऋतु से भी संबंधित लोकगीत होते हैं। उदाहरण- सावन के गीत (कजरी), चौत के गीत (चैता), फागुन के गीत (फगुआ)।
  • व्रत संबंधी गीत-किसी खास व्रत या उत्सव पर गाए जाने वाले गीत। उदाहरण- तीज का गीत,रक्षाबंधन का गीत।
  • संस्कार गीत-संस्कार का अर्थ है वह अक्सर जो किसी व्यक्ति के जीवन-काल में एक ही बार आता हो। उदाहरण- जन्म के समय गाए जाने वाले गीत, छठी का गीत, विवाह गीत आदि।
  • श्रम गीत-लोकगीतों का संबंध मनुष्य के कामों और उसकी गतियों से भी रहता है। चक्की पीसते समय, खेतों के काम करते समय आदि अवसरों पर कोई न कोई गीत गाए जाते हैं।
लोकगाथा

लोक गाथा एक बड़ी रचना होती है। इसमें अनेक भाव होते हैं। यह एक लंबी कहानी होती है जिसमें सारे रस, भाव आ जाते हैं। जैसे- वीर रस, कौतुक, श्रिंगार आदि। मनोरंजन और शिक्षा इनका प्रमुख उद्देश्य होता है। इनमें यादों और अनुभवों का संक्षिप्त कोश होता है। इनमें वर्णन विस्तृत रूप में होता है। यह कई घंटों से लेकर कई रातो तक की होती है। विस्तार ही इनको बड़ा बनाती है । दिन वाली और व्रत वाली लोक गाथाएं छोटी अथवा गद्य में होती हैं वहीं दूसरी ओर मूल गाथाओं में घटनाएं ज्यादा होती है इसलिए वह विस्तृत रूप में होती है। लोक गाथा शुरू करने से पहले ईश्वर की आराधना की जाती है। एक प्रकार की भूमिका बनाते है फिर कथा शुरू होती है। उदाहरण- सोरठी बृजभार। इन्हें तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।

  • वीर गाथाएं-जिन गाथाओं में किसी शूरवीर के पराक्रम अथवा शौर्य की चर्चा होती है। उदाहरण- आल्हा। वीरता प्रधान लोकगाथाएं अतिशयोक्ति से परिपूर्ण भी होती है।
  • प्रेम गाथाएं-इसमें प्रेम रस का मधुर सामंजस्य देखने को मिलता है। इसका प्रधान रस श्रृंगार होता है।
  • अन्य कथाएं-इस प्रकार की गाथाओं में चमत्कार, जादू टोने एवं अद्भुत घटनाओं का चित्रण किया जाता है। उदाहरण- लोरिकी।
लोकनाट्य

लोकनाट्य में लोकगीत और लोकगाथाओं के साथ-साथ अभिनय कला भी शामिल हो जाती है। इसके द्वारा सामूहिक भावना का विकास होता है। एक साथ एकाधिक अभिनेता काम करते हैं। हर इलाके का अलग लोकनाट्य होता है। उदाहरण- गबरी(राजस्थान),स्वाँग(हरियाणा) आदि।

लोक नाट्य को दो वर्गों में बाँटा जा सकता है- (क) नृत्यप्रधान और (ख) कथा प्रधान।


लोकोक्तियाँ औ्र मुहावरे

लोकोक्ति दो शब्दों से मिलकर बना है, लोक(साधारण लोग)+उक्ति(बात)। संवाद में लोकोक्तियाँ औ्र मुहावरे का बहुतायत से प्रयोग मिलता है। बहुत सारा अनुभव समाया होता है सिर्फ एक या दो पंक्ति में। ये लोक अनुभव के ज्ञानकोश हैं। मुहावरे छोटे वाक्यांश होते हैं औ्र लोकोक्तियाँ पूर्ण वाक्य। लोकोक्तियां और मुहावरे समास शैली में बने होते हैं। ये थोड़े में अधिक कहते हैं। किंतु इनकी भाषा सरल सहज बोधगम्य होती है।

कुछ लोकोक्तियों के उदाहरण निम्नलिखित हैं:

  1. ना नीमन गीतिया गाइब, ना मड़वा में जाइब।
  2. जो पुरुषा पुरवाई पावै, सूखी नदिया नाव चलावै।
  3. चउबे गइलन छब्बे बने दूबे बन के अइलन।
  4. हाथी चले बाजार, कुकुर भोंके हजार
  5. खेत खाय गदहा, मारल जाय जोलहा
  6. नन्ही चुकी गाजी मियाँ, नव हाथ के पोंछ
  7. क, ख, ग, घ के लूर ना, दे माई पोथी
  8. माड़-भात-चोखा, कबो ना करे धोखा– सादगी का रहन-सहन
  9. तेली के जरे मसाल, मसालची के फटे कपार– इर्ष्या करना
  10. ससुर के परान जाए पतोह करे काजर– निष्ठुर होना
  11. हड़बड़ी के बिआह, कनपटीये सेनुर– हड़बड़ी का काम गड़बड़ी में
  12. कानी बिना रहलो न जाये, कानी के देख के अंखियो पेराए– प्यार में तकरार
  13. ना नौ मन तेल होई ना राधा नचिहें– न साधन उपलब्ध होगा, न कार्य होगा
  14. एक मुट्ठी लाई, बरखा ओनिये बिलाई– थोड़ी मात्रा में
  15. हथिया-हथिया कइलन गदहो ना ले अइलन– नाम बड़े दर्शन छोटे
  16. जहां जाये दूला रानी, उहाँ पड़े पाथर पानी।
  17. पैइसा ना कौड़ी , बाजार जाएँ दौड़ी।
  18. जेकरे पाँव ना फटी बेवाई , ऊ का जाने पीर पराई।