जनपदीय साहित्य सहायिका/राजस्थानी लोककथा

    भील नृत्य-गवरी


       अरावली पर्वत श्रृंखला की दुर्गम घाटियों में आवासित भील जन जाति के लोग गवरी नृत्य नाटिका का आयोजन करते हैं । गवरी गौरी शब्द का लोक प्रचलित अपभ्रंश नाम है । यह नृत्य नाटिका उत्सव रूप में मनाई जाती है ।
               
               भील लोग राजस्थान में काफी मात्रा में पाये जाते हैं । भील शब्द मुख्यतः भिलावर शब्द से बना है । इसका अर्थ धनुष बाण चलाने वाले से लगाया जाता है । भील लोगों ने मेवाड़ के महाराणाओं की काफी मदद की है । ये लोग समर्पित , वादे के पक्के और निष्ठावान होते हैं । इनके अद्भुत कारनामों और वीरत्व के कारण ही मेवाड़ स्टेट के राजचिह्न में इनका अंकन कर इन्हें गौरव प्रदान किया गया हैं ।
               
               गवरी नृत्य नाटिका जनजातीय पवित्र धार्मिक उत्सव होता है । इसे वर्षा ऋतु में भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष अष्टमी ( जन्माष्टमी ) के दूसरे दिन से शुरू कर आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी तक ( यह उत्सव ) मनाया जाता है । खरीफ़ की फसल में मक्का के पौधे खेतों में उग आते हैं तब से अक्टूबर अन्त तक वे पक कर कटने योग्य हो जाते हैं । तब तक इस फसल पर विशेष परिश्रम की आवश्यकता नहीं रहती है और इस ओर ध्यान भी नहीं दिया जाता है । इस समयान्तर में राजस्थान के कुछ गांवों के भील गवरी नाटक खेलने के लिये दलों को संगठित करते हैं और इसका मंचन निश्चित केन्द्रों पर करते हैं । गवरी मूलतः भीलों के आदि देव शिव व उनकी अर्धांगिनी गौरी की स्मृति में प्रतिवर्ष गांव - गांव में आयोजित किया जाता है ।
               
               इसे मंचन करने के पूर्व देवताओं को मनाया जाता है और भोपा पुजारी द्वारा स्वीकृति प्राप्त करना अनिवार्य होता है । इस समय के दौरान ( अवधि में ) अभिनेताओं की आपसी एकता व सामंजस्य , उत्सव सम्बन्धी पूर्ण जानकारी व पूर्व निर्धारित स्थितियों का ज्ञान तथा दिये गए नियमों का पालन आवश्यक होता है । विविध गाँवों , ढाणियों तथा मौहल्लों के लोगों का सद्व्यवहार आदि सामाजिक स्थितियों का इस नृत्य नाटिका में विशेष महत्त्व होता है ।
                    
                    भीलों की एकता , अभिनय की दक्षता , सामाजिक जीवन की पारदर्शिता और ग्रामीण आदिम जातीय जीवन के यथार्थ सम्बन्धों की यह नृत्य नाटिका सूचक है । गवरी एक पवित्र संस्कारपूर्ण नाटिकोत्सव है । इसमें सिर्फ पुरुष वर्ग ही हुए उनका हिस्सा लेते हैं , स्त्री पात्र भी पुरुष ही अभिनीत करते हैं । 
                    इसका केन्द्र बिन्दु शंकर और पार्वती होते हैं । शंकर भगवान भील जाति के माने जाते हैं अतः पार्वती ( गौरी ) भीलणी हुई । अर्थात् भील अपने पूर्वजों को मनाते आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु इस नृत्य नाटिका का मंचन करते हैं इसी कारण इसे एक पवित्र संस्कारपूर्ण कार्य माना गया है । 
                    
                    उत्सव मनाने से पूर्व देवी देवता से , भोपा स्वीकृति ले लेता है । यह गवरी मंचन का अनिवार्य पहलू होता है । दैवी अनुमति बगैर मंचन असम्भव होता है । भक्तों द्वारा देवी को जागृत किया जाता है और वह स्वयं कहती है कि उन्हें तीन या पांच वर्ष बाद में कब पुनः याद किया जाए तो वे प्रसन्न होंगी । इस उत्सव को मनाने के लिए हर कोई गाँव के लोग इस कार्य को अपने हाथ में नहीं ले सकते हैं । जैसी दैवी अनुमति मिलती है वही इसका आयोजन करता है । अभिनेताओं को आपसी सामंजस्य , वैचारिक अपनत्व , चरित्र की उज्जवलता , उत्सव की पूर्ण जानकारी , दिए गए निषेध और निर्देशनों का पालन करना होता है । इस पालनार्थ कलाकारों में विशिष्ट योग्यता , दूसरे गाँवों , ढाणियों के लोगों का सद्व्यवहार आदि बातों पर विशेष ध्यान व महत्त्व दिया जाता है। 
                    
                    20 से 30 गाँवों के एक क्षेत्र में साधारणतः 3 से 7 गवरी इकाइयाँ इस खेल को खेलने हेतु एक गाँव से दूसरे गाँव जाती रहती हैं । इस सांस्कृतिक कार्य में स्त्रियाँ कभी भाग नहीं लेती हैं । यह विश्वास रहता है कि ऐसा करने से कृषि फसल अच्छी होती है और उनकी आर्थिक , सामाजिक व धार्मिक स्थिति पर खराब प्रभाव नहीं पड़ता है । पुरुष , स्त्री पात्र का अभिनय भी निर्धारित निषेधों के निर्देशन के आधार पर ही करता है । भाद्रपद मास में उत्सव आरम्भ होने से तीन दिन पूर्व से ही पुरुषों को स्त्री गमन , माँस खाना और शराब पीना तथा हरी सब्जी खाना मना होता है ।
                 
                 प्रथम दिन गाँव के देवी मंदिर में गवरी के मुख्य पात्र राई - बुढ़िया को गाँव में प्रतिष्ठित पंचों के समक्ष भोपे के हाथों से ही पौशाक पहिना कर उत्सव का श्रीगणेश करते हैं । भोजन करने के उपरान्त 9 से 11 बजे के बीच प्रातः यह कार्यक्रम आरम्भ किया जाता है जो सूर्यास्त तक चलता रहता है । खेल का अन्त संस्कारमय होता है । गवरी के विभिन्न पात्र , एक गोलाकार के मध्य देवी की त्रिशूल स्थापना के पश्चात नियमित नृत्य प्रदर्शन कर नाटिका प्रारम्भ करते हैं । प्रथम दिन गाँव के देवालय के समक्ष , दूसरे दिन गाँव से उत्तर दिशा में और तीसरे दिन अन्य आमंत्रित करने वाले गाँव में गवरी नर्तक दल अपना नाटक प्रदर्शन ( मंचन ) करने निकल जाते हैं । 
                  शंकर - पार्वती साधारणतः राई - बुढ़िया के नाम से जाते हैं भील भोपा द्वारा मन्त्र धूप दीप के साथ देवता को खेल के केन्द्र में स्थापित ( बैठाया ) किया जाता है । केन्द्र में बल्लम और त्रिशूल लगाकर उत्सव का आरम्भ करते हैं । फिर बीच - बीच में अभिनेताओं की आवाज आती है - ' जय शंकर महादेव की ' , ' जय गौरी माई की । उनके साथ धर्म देव और अम्बा माता भी होते हैं और उनके भी जयकारे लगाये जाते हैं । ये देवता एक दिन के लिये विशेष स्थान पर ( चौराहे पर ) नियत कर दिये जाते हैं और दिन भर वहीं आठ - दस कथानकों का मंचन होता रहता है । भक्तगण देवी के चारों ओर ( त्रिशूल , राई - बुढ़िया आदि ) नृत्य करना प्रारम्भ कर देते हैं । भोपे में भाव आते हैं , भोपा लोग दल के लोगों को ढोलकी , झालर थाली के संगीत की लय में नेतृत्व प्रदान करते हैं । यह प्रारम्भिक संस्कार अभिनेताओं द्वारा देवी के सम्मुख झुककर आशीर्वाद प्राप्त करने के साथ समाप्त होता है । प्रत्येक कथानक के पश्चात् निर्णायक स्थिति आती है । नायक व खलनायक के झगड़े का निर्णय करने हेतु भोपे में भाव जागृत होते हैं इस स्थिति में भोपा लोहे की जंजीर को अपने कंधों व पीठ पर जोर से मारता है । उसका शरीर कंपायमान रहता है । तब भोपा के शब्द देवताओं के शब्द माने जाते हैं । यह स्थिति क्षणों से मिनटों में तब्दील होती है तो कई दर्शकों के शरीर भी कंपायमान होने लगते हैं । जहाँ - जहाँ नायक संकेत कर देता है एक विचित्र सी सिहरन अन्य दर्शकों में पैठ जाती है । निर्णय के पश्चात् सब कुछ तुरन्त सामान्य हो जाता है और दूसरा कथानक ( अंक ) आरम्भ कर दिया जाता है । इस प्रकार प्रत्येक कथानक एक से डेढ़ घण्टा लेता है । 
                  
                  गवरी नृत्य नाटिका में प्रमुख अंक ( कथानक ) गणपति वन्दना , भंवर्या - भंवरी , गोमा मीणा , कालू कीर , कान गूजरी , भियांवल - देवी अम्बा , बादशाह की फौज , बणजारा दाणी , खेतुडी , खडल्या भूत , कालबेलिया , नट शंकरिया , सोन मुर्गा , जोगिया की जमात आदि होते है अन्तिम कथानक नार कालका माता व शिव गौरी रहता है ये सभी दृश्य गौण पात्रों द्वारा मंचित होते हैं । मुख्य पात्र राई - बुढ़िया , भोपा व पुजारी मध्य में रहते हैं , इनके द्वारा पूरे दिन के मंचन में समय - समय पर योगदान होता है इन समस्त छोटे - छोटे अंकों में भरपूर मनोरंजकता भी होती है साथ ही सामाजिक जीवन से उठाये गये पहलू भी इसमें होते है । जिससे दर्शक भावाविभूत हो जाते हैं । प्रत्येक कथानक के पश्चात् जय शंकर महादेव की , जय गौरी माई की , जय धर्मराज की , जय केसरिया नाथ की आवाजें आती रहती हैं । 


                  कथानकों के आधार पर पात्रों की भी संरचना की जाती है । गवरी के समस्त पात्रों को चार वर्गों में विभक्त कर सकते है।
1. देव पात्र : कालिका , शिव , पार्वती , देवी अम्बा व कान्हा। 
2. मानव पात्र : राई - बुढ़िया , कोतुकडिया , कंजर , मीणा , नट , खेतुडी , शंकरिया , कालबेलिया , वाणिया , कालू कीर , जोगी , गूजरी , बणजारा , सिक्लीगर , भोपा , बनवारी , गोमा , बांजड़ी , फत्ता फत्ती , बगली , देवर भौजाई आदि ।
3. दानव पात्र : भंवरा , खड़ल्या भूत , हठिया दाणी , भियांवडा 
4. पशु पात्र : बन्दर , सूअर , रीछ , शेर आदि । स्थान विशेष की गवरी में नाटिकाओं व पात्रों में अन्तर आ जाता है । 

           इस नृत्य नाटिका में कई बार रस निष्पत्ति ऐसी होती है कि अभिनीत पात्रों के साथ दर्शक भाव विभोर हो जाते हैं और जिनके शरीर में अन्य आत्मा ( ऊपरी हवा ) का वास होता है वह भी उस समय रसास्वादन करते हुए झूम उठता है । और उनका शरीर भी कथानक के अन्य पात्र की भाँति कंपायमान हो जाता है । यह रसास्वादन की अलौकिक अनुभूति है । जिसे ललित कला के किसी भी अंग में इस दिव्य स्वरूप में नहीं देख सकते । यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि दुनिया के किसी अन्य नाटक में भी यह सम्भव नहीं है क्योंकि इस नृत्य नाटिका का मंचन दैवीय आशीर्वाद लेकर ही आरम्भ किया जाता है ।