रोपनी-सोहनी के गीत : यह मुख्यत: खेत-मजदूर स्त्रियों का गीत है। इसे महिलाएं खेत में रोपनी-सोहनी करते समय सामूहिक रूप में गाती है। इन गानों में पारिवारिक नोंक-झोंक का बड़ा सुरूचिपूर्ण चित्रण होता है। इन गीतों में अपने प्रिय से बिछुडऩे की पीड़ा देखिए – ‘ननदी झगरवा कइली, पिया परदेश गइले। किया हो रामा, भउजी रोवेली छतिया फाटे हो राम।’ यानी, ननद झगड़ा कर रही है। पति परदेश चला गया है और ऐसी स्थिति में उसकी भौजी रो रही है। नायिका ऐसी प्रतिकूल स्थितियों में बेचैन है।

इन गीतों से गुजरते हुए हम देखते हैं कि इनमें श्रम के विभिन्न रूपों के चित्रण के साथ-साथ बहुजन जातियों के प्रकृति से सहचर्य को भी रेखांकित किया गया है। भोजपुरी क्षेत्र से बड़े पैमाने पर हुए श्रम-प्रवसन की पीड़ा भी इन गीतों, विशेषकर महिलाओं द्वारा गये जाने वाले गीतों में, बड़े मार्मिक ढ़ंग से अभिव्यक्त हुई है। दरअसल, इन गीतों का अगर सुनियोजित अध्ययन हो तो यह साफ होते देर न लगेगी कि द्विज संस्कृति की परजीविता के विपरीत श्रम और उत्पादन श्रमण संस्कृति के जीवन मूल्य रहे हैं। उदाहरण

आवौ आवी मानवारे जादी पंढरीरीदेव दैवी आदी सतगुरू घर , तम काडी तीकिट दिलेली तमभेंट यमपुरीरी फासौ चुकाऔ

सेवा भाया करे लाम मौर , सेवा भाया बेटी डागले.मा और धाव रे भाया तार देवकैम , सेवा सेवा कर लागभीर । गौर समाजेर ढोर चरव इमलेम खामु - बावु करे लाग गौर


कुण्या भावाला जाती ३ बाट दादा । पांदीपदी कुण्या गावाला जातीने वाट दादा । ' लिबमावाला आती २ बाट दादा