नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन/नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि

नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन की पृष्ठभूमि


एक राष्ट्र के रूप में भारत का उदय आधुनिक युग की घटना है लेकिन भौगोलिक दृष्टि से भारत एक इकाई के रूप में बहुत पहले से मौजूद रहा है। इस भौगोलिक क्षेत्र में बाहर से विभिन्न जातियों का आवागमन निरंतर होता रहता है। इतिहास में बहुत पीछे ना भी जाए तो इतिहासकार यह मानते हैं कि ईशा के तीन हजार से डेढ़ हजार साल पहले के दौर में मध्य एशिया से जो लोग आए और जिन्हें आर्य कहकर जाना गया वे सबसे पुराने ज्ञात समुह थे जो इस धरती पर बसे। हालांकि यहां इससे पहले भी कई जातियां रह रही थी। इन्हीं में वे लोग भी थे जिनके अवशेष हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई में मिले थे। आर्यों के आगमन के बाद भी कई जातियां समूह इस धरती पर आते रहे। इनमें शक, हूण, यवन, मंगोल आदि प्रमुख है। इनमें से अधिकांश जातियां यही बस गई और यहां की संस्कृति में घुलमिल गई। आज उनकी अलग से पहचान करना बहुत मुश्किल है। लेकिन इस बात को स्वीकार करना होगा कि पहले से रह रही जातियों के साथ खुलने मिलने की प्रक्रिया में उन्होंने एक-दूसरे से काफी कुछ लिया दिया होगा। हीरो से आने वाली जातियों से पहले मध्य एशिया से आने वाले इस्लाम धर्मलंबी समूहों में से बहुत से यही बस गए और यहां की सभ्यता और संस्कृति के साथ घुलमिल गए। लेकिन यूरोप से आने वाली जातियों के साथ ऐसा नहीं हुआ। वे यहां व्यापार करने आए थे। यहां का परिणाम कपड़ा और दूसरी वस्तुएँ वे यूरोप में बेचते थे। बाद में यूरोप में हुई औद्योगिक क्रांति ने स्थितियों को बदल दिया और वे यहाँ से कच्चा गाल निर्यात करने लगे और वहाँ के कारखानों में बना माल यहाँ बेचने लगे। भारत में व्यापार के इरादे से आने वाले सिर्फ अंग्रेज नहीं थे वरन् फ्रांसीसी, पुर्तगाली और डच लोग भी थे । लेकिन अंग्रेजों की तुलना में वे भारत के बहुत छोटे से हिस्से पर ही अधिकार जमाने में कामयाब हो सके। अंग्रेजों ने लगभग पूरे भारत पर अधिकार कर लिया और भारत को अपना उपनिवेश बनाने में कामयाब रहे। 1857 से पहले तक भारत पर ब्रिटेन का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के मार्फत था जो एक व्यापारिक कंपनी थी इस कंपनी की अपनी सेना थी और इसने भारत की विभिन्न रियासतों के साथ संघर्ष और समझौते की नीति पर चलते हुए अपने पाँव जमाने शुरू किए। 1857 तक इस कंपनी का शासन लगभग पूरे भारत पर हो गया था। जो रियारातें सीधे अंग्रेजों के अधीन नहीं थीं, उनके साथ भी अंग्रेजों ने कई तरह के समझौते कर रखे थे जिसके तहत वे इन राज्यों का इस्तेमाल युद्ध के दौरान अपने पक्ष में करने में कामयाब होते थे। कहने को दिल्ली पर अब भी मुगल बादशाह का शासन लेकिन उनके पास वास्ताविक सत्ता नहीं थी। 1857 में अंग्रेजों से युद्ध करने वाले सिपाहियों ने तत्कालीन मुगल बादशाह बहादुरशाह जफ़र को भारत का सम्राट घोषित किया था।


1757 ई. में प्लासी के युद्ध में सिराजुदौला के परास्त होने के साथ ही भारत पर अंग्रेजी साम्राच्य की नींव पड़ गई। उन्होंने अपने को राजनीतिक रूप से ही मजबूत करना शुरू नहीं किया बल्कि प्रशासनिक रूप से भी मजबूत करना जरूरी समझा । इसके लिए उन्होंने प्रशासन का वही ढाँचा यहाँ स्थापित किया जो उनके देश में कायम था। इसके लिए पहले से चले आ रहे ढाँचे को तोड़ना जरूरी था, अंग्रेजों ने यह दोहरा काम किया। यदि एक ओर पहले से चले आ रहे रोजगार और सामाजिक संस्थाएँ समाप्त की जा रही थीं, तो दूसरी ओर, नई संस्थाएँ उन पर थोपी जा रही थीं। भारत के किसानों और शिल्पकारों को अपने परंपरागत रोजगार से अलग किया जा रहा था। विदेश में बने माल को बेचने के लिए जरूरी था कि भारत के परंपरागत उद्योग धंधों को नष्ट किया जाए। अंग्रेजों ने यही काम किया। इसी तरह उन्होंने किसानों को ऐसी पैदावार करने के लिए विवश किया जो उनके लिए फायदेमंद थीं लेकिन इससे भारतीय किसान तबाह हो रहे थे| नील की खेती इसी तरह की पैदावार थी। भारत में पैदा होने वाले कच्चे माल को बंदरगाहों तक पहुँचाने और यूरोप के बने मालों को बाजार तक ले जाने के लिए अंग्रेजों ने रेल की लाइने बिछाने का काम किया। तारघर खोले। इसी प्रकार शिक्षा, विधि , नागरिक सेवाएँ आदि क्षेत्रों में उन्होंने अपने यहाँ की प्रणाली को लागू किया ।


दूसरा महत्त्वपूर्ण काम अंग्रेजी शासन के दौरान यह हुआ कि यहाँ भी ईसाई धर्म का प्रचार करने के लिए ईसाई मिशनरियाँ आ गईं और उन्होंने इस बात का प्रचार करना शुरू किया कि न केवल ईसाई धर्म महान है बल्कि भारतीय धर्म जिनमें हिंदू और इस्लाम दोनों शामिल हैं, ईसाई धर्म की तुलना में पिछड़े हुए हैं। उन्होंने गरीबों, दलितों और आदिवासियों के बीच काम किया। उनको जरुरी भौतिक सुविधाएँ उपलब्ध कराई । ईसाई मिशनरियों ने सिर्फ अपने धर्म का प्रचार करने का काम ही नहीं किया बल्कि उन्होंने भारतीय समाज में व्याप्त बुराइयों की भी तीखी आलोचना की । जातिप्रथा, जिसके कारण छुआछूत जैसी अमानवीय प्रथा हिंदुओं में प्रचलित थी, का विरोध किया। इसी तरह उन्होंने मूर्ति पूजा, पर्दा प्रथा, बाल विवाह, सती प्रथा, वैधव्य आदि सामाजिक और धार्मिक रीति- रिवाजों को अमानवीय बताकर उनके विरुद्ध लोगों को जागृत करने का काम किया। अपने विचारों और अपने धर्म का प्रचार करने के लिए ईसाई मिशनरियों ने भारतीय भाषाओं में पुस्तकें लिखीं । इसके लिए उन्होंने भारतीय भाषाओं का अध्ययन भी किया। संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं का अध्ययन करके प्राचीन भारतीय पुस्तकों का विशेष रूप से दर्शन, साहित्य, धर्म आदि से संबंधित पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद किया। उनके इन कार्यों से ही शेष विश्व भारत के प्राचीन इतिहास, धर्म, दर्शन और संस्कृति के बारे में जान सका।


ईसाई मिशनरियों ने भारतीयों के बीच हीन भावना पैदा करने की कोशिश की। भारतीयों के बीच इसकी प्रतिक्रिया स्वाभाविक होना स्वाभाविक था । कुछ भारतीयों ने इस बात को स्वीकार किया कि हमारे जीवन में बहुत कुछ ऐसा है जो प्रतिगामी है और जिसे छोड़ने की जरूरत है, तो दूसरी ओर, कुछ लोगों ने उनकी आलोचना को स्वीकार नहीं किया और वे इस बात को प्रमाणित करने में जुट गए कि आज भले ही हम गुलाम हों लेकिन हमारा अतीत ऐसा नहीं था। हमारा भी एक स्वर्णिम युग था। धर्म और अध्यात्म का क्षेत्र ऐसा है जिसमें हम दूसरों की तुलना में सदैव श्रेष्ठतर रहे हैं। इन दो प्रवृत्तियों ने उस आंदोलन की शुरूआत की जिसे हम आज नवजागरण के रूप में जानते हैं। नवजागरण के आंदोलन में दो प्रवृत्तियाँ थीं . एक, जो यह मानते थे कि भारत सदैव से महान रहा है और भारत के अतीत में वह सब कुछ है जिसका दावा आज का यूरोप करता है। इस प्रवृत्ति को पुनरुत्थानवाद के नाम से जाना जाता है। दो, जो यह मानते थे कि भारत में बहुत सी गलत बातें हैं जिनको छोड़ने से ही हम प्रगति भी कर सकते हैं और गुलामी की जंजीरों से मुक्त भी हो सकते हैं, इसको पुनर्जागरण के नाम से जाना गया इस दूसरी प्रवृत्ति ने ही आधुनिकता को एक मूल्य के रूप में जरूरी समझा । इसी ने लोकतंत्र, समानता और बंधुत्व के दर्शन से भारतीयों को परिचित कराया। यही नहीं उन्होंने प्राचीनभारतीय साहित्य और इतिहास में से इस दर्शन के अनुकूल बातें भी खोज निकाली। यही वह पृष्ठभूमि है जिसने भारत में नवजागरण और स्वाधीनता के आंदोलन को संभव बनाया।