नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन/नवजागरण के उदय की परिस्थितियां
नवजागरण के उदय की परिस्थितियां
जैसा कि कहा जा चुका है कि भारत में यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों का आगमन सोलहवीं सदी में हो गया था । लेकिन राजनीतिक रूप से उनका प्रभाव 18वीं सदी में तेजी से बढ़ा। मुगल साम्राज्य औरंगजेब के अंतिम काल से कमजोर पड़ने लगा था लेकिन 18 वीं सदी तक आते-आते वह लगभग मरणासन्न अवस्था में पहुँच गया था। प्लासी के युद्ध के साथ ही दो बातें हुई। एक, अन्य यूरोपीय जातियों की तुलना में अंग्रेजों के प्रभुत्व क्षेत्र का विस्तार तेजी से होने लगा। दो, अंग्रेजों को अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए मुगलों से नहीं बल्कि क्षेत्रीय शासकों से संघर्ष करना पड़ रहा था| ये क्षेत्रीय शासक एक ओर अंग्रेजों से लड़ रहे थे, तो दूसरी ओर वे आपस में भी लड़ रहे थे । इन आपसी लड़ाइयों का फायदा अंग्रेजों ने पूरी तरह से उठाया । उन्होंने इन शासकों की आपसी लड़ाई में मददगार बनकर इस या उस पक्ष की तरफ से लड़ाई में हिस्सेदारी की और इस तरह देशी शासकों को कमजोर करने और उनके राज्यों को हड़पने में कामयाबी हासिल की।
राजनीतिक कामयाबी से ही अंग्रेज भारत में अपने शासन को सुदृढ़ और स्थायित्व प्रदान नहीं कर सकते थे। अंग्रेज जानते थे कि भारत में वे शासन तभी कर सकते हैं जब भारतीयों का समर्थन भी उन्हें प्राप्त हो। ईसाई मिशनरियों ने यह काम कुछ हद तक किया लेकिन मिशनरियों के काम की नकारात्मक प्रतिक्रिया भी हुई । भारतीयों के एक बड़े हिस्से में अपने धर्म और अपनी परंपरा के प्रति आस्था और अधिक सुदृढ़ हुई । इसलिए यह जरूरी था कि भारतीयों को किसी ऐसी चीज से बाँधा जाए जो अधिक सूक्ष्म और प्रभावी हो। शिक्षा एक ऐसा ही हथियार था जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों को अपना अधीनस्थ बनाने के लिए इस्तेमाल किया। इस संबंध में चिंतक के. दामोदरन की टिप्पणी रेखांकित प्रभावी हो। शिक्षा एक ऐसा ही हथियार था जिसे अंग्रेजों ने भारतीयों को अपना अधीनस्थ बनाने के लिए इस्तेमाल किया। इस संबंध में चिंतक के. दामोदरन की टिप्पणी रेखांकित संबंध में पश्चिमी विचारों और पद्धतियों को प्रचारित करने की एक व्यवस्था थी । अंग्रेजों ने सोचा था कि अंग्रेजी शिक्षा की नई प्रणाली, जिसके अंतर्गत साहित्य, इतिहास तथा विज्ञान की शिक्षा देने की व्यवस्था थी, भारतवासियों में अपने ओछेपन की भावना को जाग्रत करेगी और स्वयं अपनी संस्कृति तथा परंपराओं के प्रति घृणा पैदा करेगी, जो ब्रिटिश शासन के गौरव से जनता के मस्तिष्क को प्रभावित करने के लिए जरूरी है ।" लार्ड मैकाले इस विचार को प्रचारित करने वालों में अग्रणी था । उसका विचार था कि भारत और अरब का संपूर्ण ज्ञान यूरोप की एक अच्छी लाइब्रेरी की एक अलमारी में समा सकता है। उनका मूल्य यूरोप के प्राइमरी स्कूलों में इस्तेमाल की जाने वाली पुस्तकों से ज्यादा नहीं है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी अंग्रेज मैकाले की तरह सोचते थे । इसके विपरीत विलियम जोन्स जैसे लोग भी थे जो भारत की प्राचीन परंपरा का मूल्यांकन काफी उच्च रूप में करते थे। लेकिन मैकाले का मकसद भारत में औपनिवेशिक शासन को सुदृढ़ करना था। इसके लिए वह भारतीयों का एक ऐसा वर्ग तैयार करना चाहता था 'जो हमारे और उन लाखों लोगों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं दुभाषिये का काम कर सके, ऐसे लोगों का एक वर्ग जिनका रक्त और रंग भारतीय हो, किंतु जो रुचि, विचारों, नैतिकता और बुद्धि की दृष्टि से अंग्रेज हों।' मैकाले और उनके साथी अंग्रेजी शिक्षा के द्वारा भारतीयों में जिस रूपांतरण की आशा कर रहे थे, वैसा कुछ घटित नहीं हुआ। इस पर टिप्पणी करते हुए के. दामोदरन ने सही लिखा कि 'ब्रिटिश नीति में अनिवार्यतः कुछ ऐसे अंतर्विरोध थे जिन्हें सुलझाया नहीं जा सकता था। उसका उद्देश्य था। विनाश, किंतु परिणाम हुआ पुनरुज्जीवन। शिक्षा की नई प्रणाली ने प्रयत्न तो किया भारत की आत्मा को कुचल देने का, किंतु वास्तव में वह एक ऐसे आंदोलन के बीज बो रही थी, जिसने अंततः स्वयं ब्रिटिश शासन को ही उखाड़ फेंका।
जैसे-जैसे अंग्रेजी राज्य का विस्तार हुआ और उनका प्रशासन सुदृढ़ होता गया, वैसे-वैसे उनका भारत की जनता से टकराव भी बढ़ता गया। जमीनों के बंदोबस्त की नयी व्यवस्था, परंपरागत भारतीय उद्योगों को संरक्षण देने की बजाए इंग्लैंड और यूरोप के बने मालों को बेचने के लिए यहाँ के उद्योगों को निर्मूल करने की कोशिश और भारत के विभिन्न धार्मिक समुदायों, विशेष रूप से हिंदुओं और मुसलमानों के विश्वासों और मान्यताओं को अपमानित करने की प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कोशिशों ने जनता में असंतोष पैदा किया। इस असंतोष के बढ़ते जाने ने ही 1857 के विद्रोह के लिए जमीन तैयार की। लेकिन इसी बीच अंग्रेजों के संपर्क में आने के कारण शिक्षित वर्ग में इस बात का एहसास भी बढ़ा कि भारतीय अंग्रेजों की तुलना में कई दृष्टियों से पिछड़े हुए हैं । इस वर्ग ने पश्चिमी शिक्षा प्राप्त की थी और उनमें से बहुत से भारत के प्राचीन दर्शन, धर्म और परंपरा का भी अच्छा- खासा ज्ञान रखते थे। उन्होंने आधुनिक विवेकवादी और मानवतावादी दृष्टि से सामंती प्रथाओं और रीतिरिवाजों की आलोचना की और इस बात के लिए लोगों को प्रेरित किया कि यदि वे भारत को भी आधुनिक और प्रगतिशील बनाना चाहते हैं तो उन्हें उन रीति- रिवाजों और रूढ़ियों से नाता तोड़ना होगा जो हमारी प्रगति में बाधक हैं।
इस बात को समझने के लिए हमें यह देखना होगा कि 1757 के बाद जैसे-जैसे अंग्रेजों का शासन सुदृढ़ होता गया वैसे वैसे उन्होंने विभिन्न रियासतों में बटे भारत को एक राजनीतिक इकाई में समेटना शुरू किया। यह सामंती भारत में आधुनिक भारत बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत थी। ऐसा भारत जिसे एक राष्ट्र के रूप में देखा और समझा जा सकता था। हालांकि राष्ट्र बनाने की यह प्रक्रिया औपनिवेशिक शासन के आधीन घटित हो रही थी लेकिन इस ने भारतीयों में इस बात का एहसास कराना आरंभ कर दिया कि वे एक राष्ट्र के नागरिक हैं जिसके हित आपस में एक दूसरे से जुड़े हैं। यह एहसास उस मध्यवर्ग में सबसे पहले प्रकट होना शुरू हुआ जिसमें से अधिकांश जमीदार परिवारों से आते थे और जिन्हें नई अंग्रेजी शिक्षा हासिल करने का अवसर मिला। इन्होंने भारत की तुलना यूरोप से,खास तौर पर भारत पर शासन करने वाले अंग्रेजों के मूल देश ब्रिटेन से करना शुरू किया। उन्होंने वहां के शैक्षिक संस्थानों, उद्योगों, प्रशासनिक संस्थानों आदि के कामकाज को देखा। उनके राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन को देखा और उनकी भारत के वर्तमान से तुलना की। उन्होंने पाया कि भारत आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ, सामाजिक रुप से रूढ़िवादी और राजनीतिक रूप से बिखरा हुआ है। आर्थिक रूप से पिछड़े होने के पीछे उन्होंने आधुनिक किस्म के उद्योगों की अनुपस्थिति को कारण माना। सामाजिक रुप से रूढ़ीवादी होने के जो कारण उन्होंने महसूस किए उनमें शिक्षा का अभाव खासतौर पर स्त्री शिक्षा का पूरी तरह अभाव, स्त्रियों का पर्दे में रहना, बाल विवाह की प्रथा की मौजूदगी, पति के मरने पर स्त्री का द्वारा विवाह करने की अनुमति नहीं होना, पति के मर जाने पर स्त्री को पति के शव के साथ जिंदा जला देना जिसे सती प्रथा के रूप में जाना जाता है और पुरुषों द्वारा बहुविवाह करना, अनमेल विवाह, जाति के आधार पर समाज के ही कुछ तबकों को नारकीय जीवन जीने के लिए मजबूर करना, उनके साथ छुआछूत का बर्ताव करना, उन्हें समाज की मुख्यधारा से अलग-थलग रखना, उन्हें शिक्षा, जमीन और संपत्ति के अधिकार से वंचित रखना, विभिन्न जातियों और धर्मों के बीच खानपान और विवाहादि को पूरा समझना, तरह तरह के धार्मिक अंधविश्वासों में यकीन रखना आदि ऐसी बहुत सी बुराइयां समाज में प्रचलित थी जिनके कारण समाज में एकजुटता का अभाव नजर आता था और प्रगति की संभावनाएं बहुत सीमित हो गई थी।
अधिकांश सामाजिक बुराइयों का संबंध हिंदू समाज से था जो भारत की कुल आबादी का तीन चौथाई था। कोई समाज कितना प्रतिशत है और कितना पिछड़ा हुआ इसका पता उस समाज में स्त्रियों की दशा से लगाया जा सकता है। भारत के दो प्रमुख धर्मों हिंदू और इस्लाम दोनों में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत दयनीय थी। उनका ना घर में और न समाज में किसी तरह की स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त थे। उन्हें ऐसे धार्मिक और सामाजिक रिवाजों से बांधा गया था कि वे अपनी इच्छा से कुछ भी कल सकने की स्थिति में नहीं थी। स्त्री संबंधी बहुत से प्रतिगामी का में रिवाज सवर्ण हिंदू परिवारों में प्रचलित थे। आरंभिक में शिक्षित हिंदू और मुसलमान वर्ग ने अपने अपने समाजों की बुराइयों की आलोचना प्रस्तुत की और उनमें सुधार लाने का प्रयत्न किया। इस उभरते मध्यवर्ग ने भारतीय समाज में व्याप्त प्रतिगामिता को तीखे रूप से महसूस किया था और उसमें आवश्यक सुधार लाने का बीड़ा उठाया था। समाज में परिवर्तन का काम एक-दो व्यक्तियों द्वारा नहीं बल्कि एक आंदोलन के रूप में हुआ और इसकी व्यापकता पूरे देश में दिखाई दे रही थी इसलिए इसे नवजागरण के आंदोलन के रूप में याद किया जाता है। नवजागरण शब्द इस आंदोलन के लिए किस हद तक सही है यह विवाद का विषय हो सकता है। लेकिन सामाजिक परिवर्तन का जो काम इस दौर में हुआ उसके मुख्य क्षेत्र दो ही थे। एक, धर्म संबंधी सुधार और दूसरा सामाजिक रीति रिवाज संबंधी सुधार। इस सुधार के लिए उन्होंने सिर्फ विचारों का प्रचार ही नहीं किया बल्कि नई तरह की संस्थाओं का गठन किया, नए ढंग के स्कूल और कॉलेज खोले और पत्र पत्रिकाएं प्रकाशित की।