नवजागरण और स्वाधीनता आंदोलन/भारतीय नवजागरण
भारतीय नवजागरण
19वीं सदी के समाज सुधार आंदोलन को इतिहासकारों ने 'रैनेसा' नाम दिया है। रैनेसां अंग्रेजी का शब्द है जिसका अर्थ होता है 'पुनर्जागरण'। इसी रैनेसा के लिए डॉ रामविलास शर्मा ने नवजागरण शब्द का प्रयोग किया है। पुनर्जागरण में दुबारा जागृति का भाव निहित है जबकि नवजागरण में नई जागृति का भाव। नवजागरण आंदोलन मैं दोनों तरह के भाव मिलते हैं। भारतीय नवजागरण की शुरुआत बंगाल से हुई थी। बंगाल में जमीदार परिवार में जन्मे राजा राममोहन राय (1772-1833) इसके प्रवर्तक माने जाते हैं। राजा राममोहन राय ने 1828 में बंगाल में ब्रह्म समाज की स्थापना की थी। महाराष्ट्र में महादेव गोविंद रानाडे द्वारा प्रार्थना समाज की स्थापना की गई और स्वामी दयानंद सरस्वती ने 1875 में आर्य समाज की स्थापना की। ऐसे विभिन्न संस्थानों की स्थापना के पीछे मकसद किसी धार्मिक पंथ की स्थापना करना नहीं था। यह संस्थान धर्म और सामाजिक आचरण का एक नया आदर्श लोगों के सामने प्रस्तुत करना चाहते थे। इस संस्थानों में शिक्षा और सामाजिक सुधार के क्षेत्र में भी कई महत्वपूर्ण शुरुआत की ताकि समय के अनुसार समाज को पता चल सके। जिन धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियों की चर्चा पहले की है उनके विरुद्ध जागृति लाने का महत्वपूर्ण काम इन समाज सुधारको ने किया। राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध ना केवल लोगों को जागरूक बनाया बल्कि कानून द्वारा प्रतिबंध के लिए भी प्रयास किए और उनकी इन कोशिशों के कारण ही सती प्रथा पर प्रतिबंध लगा। इसी तरह ईश्वरचंद्र विद्यासागर के प्रयासों से विधवा विवाह को कानूनी स्वीकृति मिली। यह सामाजिक आंदोलन का असर था कि बाल विवाह पर रोक लगाने के प्रयास हुए और विवाह की उम्र तय की गई। नवजागरण के आंदोलन ने अनमेल विवाह को कुछ हद तक रोकने में सफलता पाई थी। बंगाल और दूसरे राज्यों में माता-पिता गरीबी के कारण अपनी बेटियों की ऐसे व्यक्ति के साथ शादी करने के लिए मजबूर हो जाते थे जिनकी उम्र उम्र की कन्याओं से बहुत ज्यादा थी।
नवजागरण आंदोलन के दौर में स्त्री की मुक्ति का सवाल तो केंद्र में रहा ही, इसके साथ ही जातिप्रथा का विरोध भी एक मुख्य मुद्दा बनकर उपस्थित हुआ। इस आंदोलन के नेताओं ने इस बात का विरोध किया कि हिंदू समाज में जाति के आधार पर जो विभाजन है वह प्रगति के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है। समाज के ही एक वर्ग को दलित समझ कर उसके साथ छुआछूत का व्यवहार करना, उन्हें हर तरह के मानव अधिकारों से वंचित रखना किसी भी समाज से उचित और न्याय पूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस सोच का प्रभाव स्वयं दलित जाति के लोगों पर भी दिखाई देने लगा। उन्होंने यदि एक और उसी जातियों के द्वारा किए जाने वाले भेदभाव का विरोध किया तो दूसरी ओर, अपने समाज की उन्नति के लिए भी प्रयास किया। इनमें महाराष्ट्र के ज्योतिबा फूले का नाम सबसे पहले आता है जिन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर जन जागरण का काम किया। इनमें दूसरा महत्वपूर्ण नाम केरल के नारायण गुरु का आता है जिन्होंने जाति प्रथा का विरोध किया और आधुनिक शिक्षा के विकास पर बल दिया। तमिलनाडु की द्रविड़ आंदोलन ने भी विभिन्न जातियों के बीच एकता और निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों के उत्थान के लिए जनजागृति का कार्य किया।
नवजागरण के अग्रदूतों ने दूसरा महत्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने शिक्षा, विशेष रुप से आधुनिक शिक्षा का प्रचार किया कि उन्होंने शिक्षा, विशेष रूप से आधुनिक शिक्षा का प्रचार किया। इसके लिए नए तरह के संस्थान स्थापित किए गए । कई कॉलेज और स्कूल खोले गए। उन्होंने इस बात को भी महसूस किया कि स्त्रियों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए उन्हें शिक्षित करना बहुत जरूरी है । इसी बात को ध्यान में रखते हुए स्त्री शिक्षा प्रदान करने के लिए लड़कियों के लिए स्कूल खोले गए। इस क्षेत्र में ईश्वरचंद्र विद्यासागर और महाराष्ट्र के ज्योतिबा फुले का योगदान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। महात्मा फुले का संबंध जिस जाति से था, उसे हिंदू समाज में पिछड़ी जाति माना जाता था। उन्होंने सबसे पहले अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले को शिक्षा प्रदान की और फिर अपनी पत्नी की मदद से दलित वर्ग की लड़कियों को शिक्षित करने का कार्य किया। महात्मा फुले ने जातिप्रथा, बाल विवाह और अनमेल विवाह जैसी कई बुराइयों को खत्म करने के लिए प्रयास किए। फुले ने सत्यशोधक मंडल नामक सामाजिक संस्था भी स्थापित की शिक्षा का प्रचार-प्रसार करने में स्वामी दयानंद सरस्वती और उनके आर्य समाज ने भी योगदान दिया। पंजाब और उसके आसपास के प्रांतों में आर्यसमाज द्वारा स्थापित दयानंद वर्नाक्युलर शिक्षा संस्थानों ने स्कूली और महाविद्यालयी स्तर की आधुनिक शिक्षा उपलब्ध कराने का काम किया।
नवजागरण के दौरान कई पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित की गईं। उन्होंने लोगों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे अपने और समाज के बारे में तर्क और बुद्धि के अनुसार विचार करें। किसी बात को सिर्फ इसलिए न मान लें कि ऐसा धार्मिक पुस्तकों में लिखा है या परंपरा से होता आया है। नवजागरण ने एक हद तक धर्म को मानव जीवन के केंद्र से हटाकर मानव और उसके लौकिक हितों को केंद्र में रखा। यह एक महत्त्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु था। नवजागरण के दौर के आंदोलनों में धर्म की भूमिका पर विचार करते हुए 'भारत का स्वतंत्रता संघर्ष' नामक पुस्तक में प्रख्यात इतिहासकार विपिन चंद्र और अन्य इतिहासकारों ने लिखा था, 'हालाँकि इन आंदोलनों का ज्यादा जोर धार्मिक सुधारों की तरफ ही था, फिर भी इनमें से किसी भी आंदोलन का चरित्र पूरी तरह धार्मिक नहीं था । इनकी अंतः प्रेरणा थी मानववाद। परलोक और मोक्ष जैसी बातें इनका मुद्दा नहीं थीं बल्कि इनका सारा जोर इहलौकिक अस्तित्व पर था।
नवजागरण आंदोलन के कारण जो नवीन चेतना जागृत हो रही थी उसने साहित्य पर भी गहरा असर डाला। इस दौर के लेखकों ने भारत की आधुनिक भाषाओं में नवजागरण के दौर के सामाजिक और राष्ट्रीय मुद्दों को अपने साहित्य का विषय बनाया । पश्चिमी साहित्य के संपर्क में आने के कारण और प्रेस की स्थापना ने साहित्य में गद्य की नयी विधाओं जैसे उपन्यास, कहानी, निबंध आदि में रचना करने की प्रेरणा दी तो नाटक जैसी पुरानी विधा जो मध्ययुग में शिथिल पड़ गई थी उसका पुनरुद्धार हुआ।
नवजागरण का यह आंदोलन सिर्फ हिंदुओं तक सीमित नहीं था। मुसलमानों में नवजागृति पैदा करने का प्रयत्न भी हुआ। इस्लाम धर्म में आरंभ से ही कट्टरपंथी और उदारपंथी दोनों तरह की धाराओं का अस्तित्व रहा है। सूफी परंपरा इस्लाम के उदारपंथ का प्रतिनिधित्व करती है जिसका प्रभाव भारत के मुसलमानों और हिंदुओं दोनों पर दिखाई देता है। सूफी संतों और कवियों ने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच धार्मिक और सांस्कृतिक एकता को विकसित करने में अहम भूमिका निभाई है। हिंदुओं और मुसलमानों की एकता का ही परिणाम है कि औपनिवेशिक शासन के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में दोनों एकजुट होकर लड़े। 1857 का महासंग्राम इसका प्रमाण है । नवजागरण के दूसरे नेताओं की तरह सर सैयद अहमद खां (1817-1898) भी अंग्रेजों के समर्थक थे लेकिन उन्होंने मुसलमानों में आधुनिक चेतना जगाने का अत्यंत महत्वपूर्ण काम किया। वे चाहते थे कि मुसलमान आधुनिक शिक्षा ग्रहण कर प्रगति करे और रूढ़िवाद और अंधविश्वासों से अपने को दूर रखे। उन पर यूरोपीय सभ्यता और संस्कृति का गहरा असर था। मुसलमानों को आधुनिक शिक्षा प्रदान करने के लिए उन्होंने 1873 मोहम्मडन एंग्लो- ओरियंटल कालेज की स्थापना की। यह कालेज ही आगे चलकर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के नाम से विख्यात हुआ। सर सैयद अहमद खां द्वारा शुरू किए गए जनजागरण को अलीगढ़ आंदोलन के नाम से जाना जाता है। के. दामोदरन ने इस आंदोलन पर टिप्पणी करते हुए लिखा था , "अपने धार्मिक और सांप्रदायिक स्वरूप के बावजूद अलीगढ़ आंदोलन ने मुल्लाओं और उलमा की शक्ति को कमजोर करने में मदद की और, अंतिम विश्लेषण में, भारत में सामंतवाद के प्रभुत्व को कमजोर करने में सहायता पहुंचायी।"