पर्यावरण अध्ययन/1.पर्यावरण अध्ययन

पर्यावरण अध्ययन जीव विज्ञान, भू-विज्ञान, राजनीति विज्ञान, रसायन विज्ञान आदि विषयों का एक अंतरानुशासनिक संयोग है, जो प्रकृति पर मानवीय क्रियाकलापों के प्रभावों का अध्ययन करता है। यह विषय अध्येताओं को पर्यावरण संबंधी मुद्दों की जटिलताओं को समझने में मदद करता है।

जैसे यदि हम वायु प्रदूषण की बात करें तो वायु प्रदूषणों के अभिक्रिया एवं उनकी प्रकृति रसायन विज्ञान तथा रसायनिक अभियांत्रिकी (केमिकल इंजीनियरिंग) के विषय हैं। मानवों तथा अन्य जीवों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन जीव-विज्ञान की विभिन्न शाखाओं के अंतर्गत किया जाता है। पदार्थों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन रसायन विज्ञान तथा भौतिकी के अंतर्गत • किया जाता है। मौसम पर वायु प्रदूषण के प्रभाव का अध्ययन मौसम विज्ञान, भूगोल तथा उष्मा गतिकी विषय के अंतर्गत किया जाता है वायु प्रदूषण से निपटने वाले यंत्रों का अध्ययन भौतिक, अभियांत्रिकी तथा रसायन विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है वायु प्रदूषण के इतिहास का अध्ययन इतिहास में किया जाता है। वायु प्रदूषण के आर्थिक तथा सामाजिक दुष्प्रभावों का अध्ययन क्रमशः अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र में किया जाता है। वायु प्रदूषण से निपटने की नीतियों का अध्ययन राजनीति विज्ञान के अंतर्गत किया जाता है।

नीचे दिए गए एक ग्राफ के माध्यम से पर्यावरण अध्ययन की बहुशास्त्रीय प्रकृति को समझा जा सकता है :


          पर्यावरण अध्ययन

1.गणित, सांख्यिकी कंप्यूटर विज्ञान।

          (प्रतिरूपण)

2.जीव विज्ञान, वनस्पति शास्त्र, बायोकेमेस्ट्री. बायोटेक्नोलॉजी आदि।

   (मूलभूत एवं अध्ययन प्रायोगिक)

3.भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, भू-विज्ञान, मौसम विज्ञान आदि।

            (तकनीक)

4.सिविल इंजीनियरिंग, नैनो टेक्नोलॉजी, इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग आदि।

       (प्रबंधन एवं जागरूकता)

5.अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, कानून, प्रबंधन, जनसंचार माध्यम आदि।


अर्थशास्त्र एवं पर्यावरण:-आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संतुलन एक साथ संभव नहीं है। दोनों एक-दूसरे के विरोधाभासी हैं। उच्च आर्थिक विकास हासिल करने के लिए अधिक से अधिक संसाधनों का दोहन किया जाता है। पर्यावरण संतुलन तभी संभव है, जब संसाधनों का कम से कम दोहन हो तथा कम से कम प्रदूषण हो। यही कारण है कि समय के साथ अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में ग्रीन इकोनॉमी, कार्बन कॉस्ट, कार्बन फुटप्रिंट आदि जैसे विचार तेजी से फैले हैं। पूरी दुनिया में आर्थिक विकास एवं पर्यावरण संतुलन के बीच सामंजस्य बिठाने का प्रयास बदस्तूर जारी है। संसाधनों का इष्टतम उपयोग तथा न्यूनतम प्रदूषण स्तर को हासिल करने का प्रयास किया जा रहा है।

पर्यावरण तथा प्रदूषण नियंत्रण:-आर्थिक गतिविधियाँ प्रदूषण को बढ़ावा देती हैं। प्रदूषण के दुष्प्रभाव पर्यावरण के साथ-साथ जीवधारियों पर भी स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होते हैं। पर्यावरणीय प्रदूषण के कारण कई गंभीर बीमारियाँ होती हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हालिया रिपोर्ट के अनुसार केवल वायु प्रदूषण के कारण पूरी दुनिया में 7 मिलियन लोगों की प्रतिवर्ष मृत्यु हो जाती है, जिसमें से 1.2 मिलियन (12 लाख) मौतें केवल भारत में होती हैं।

संसाधनों का संरक्षण:-पर्यावरण हमारी सभी मूलभूत जरूरत के संसाधनों की पूर्ति करता है। जैसे- वायु, जल, खनिज, आवास, भोजन आदि। प्राकृतिक संसाधनों को दो भागों में बाँटा जा सकता है- नवीकरणीय तथा अनवीकरणीय नवीरकणीय संसाधनों की भरपाई तो प्रकृति द्वारा हो जाती है। लेकिन अनवीकरणीय संसाधनों की भरपाई नहीं हो पाती। आजकल अनवीकरणीय संसाधनों का अंधाधुंध दोहन तथा उससे होने वाला प्रदूषण पूरी दुनिया के लिए चिंता का सबब बन चुका है। अगर वर्तमान गति से इन अनवीकरणीय संसाधनों का दोहन जारी रहा तो निकट भविष्य में ये संसाधन पूर्णतः समाप्त हो जाएँगे। अतः इनका उपयोग अनिवार्य रूप से सुनिश्चित किया जाना चाहिए।

पर्यावरण तथा रसायन विज्ञान:-पर्यावरण तथा रसायन विज्ञान के बीच के संबंध को पर्यावरणीय रसायन विज्ञान कहते हैं। इसके अंतर्गत पदार्थों, पर्यावरण, रसायनों, रासायनिक प्रदूषणों आदि के बीच अभिक्रिया का अध्ययन किया जाता है। पर्यावरणीय रसायन शास्त्र की एक प्रमुख चुनौती है प्राकृतिक वातावरण में चुनिंदा प्रदूषकों की धारणीय सीमा का निर्धारण है।

पर्यावरण,पारिस्थितिकी एवं पारिस्थितिकी तंत्र:-ये तीनों विषय पर्यावरण अध्ययन के घटक हैं। पर्यावरण अध्ययन का मुख्य उद्देश्य इन्हीं तीन घटकों के विषय में जागरूकता फैलाना तथा अध्ययन करना है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि पर्यावरण अध्ययन अंततः एक बहुशास्त्रीय समन्वय है, जिसने हमारे पर्यावरण और उसकी सुरक्षा के लिए विशेषज्ञता को बढ़ावा दिया है। दुनिया जिस गति से विकास कर रही है उससे दोगुणी गति से दुनिया के खत्म होने का खतरा भी मँडराता जा रहा है। इसलिए समय रहते आवश्यक कदम उठाए जाने जरूरी है। इसके लिए पूरी दुनिया में पर्यावरण विशेषज्ञों की माँग बढ़ी है। पर्यावरण अध्ययन के अन्य घटक विषयों की विशेषज्ञता से पर्यावरण अध्ययन की समझ का विस्तार होता है।

पर्यावरण के घटक (Components of Environment)

पर्यावरण की मुलभूत संरचना के आधार पर पर्यावरण को निम्न प्रकार से विभाजित किया जा सकता है:-

(A)भौतिक पर्यावरण:- (1)स्थलमंडलीय पर्यावरण (2)वायुमंडलीय पर्यावरण (3)जलमंडल पर्यावरण

(B)जैविक पर्यावरण:- (1)वनस्पति पर्यावरण (2) जन्तु पर्यावरण

सामान्यतः पर्यावरण के चार घटक माने जाते हैं- (1) वायुमंडल (2) जलमंडल (3) स्थलमंडल (4) जैवमंडल

(1) वायुमंडल की संरचना:-

पृथ्वी के चारों ओर एक गैसीय आवरण है, इसे ही वायुमंडल कहते हैं। वायुमंडलीय द्रव्यमा लगभग 5 × 100 किलोग्राम है और इसका लगभग 75 भाग पृथ्वी की 10 कि.मी. ऊँचाई तक ही सीमित है। इसे क्षोभमंडल कहते हैं। पृथ्वी पर अन्य मंडलों की भाँति वायुमंडल भी जैव तथा अजैव कारकों के लिए महत्त्वपूर्ण है। वायुमंडल पृथ्वी पर जीवन के लिए एक अनिवार्य तत्त्व है। वायुमंडल विभिन्न प्रकार के गैसों, जलवाष्प एवं धूलकणों का मिश्रण है। वायुमंडल में उपस्थित गैसें पौधों के प्रकाश-संश्लेषण, हरित गृह प्रभाव तथा जीव एवं वनस्पतियों के जीवित रहने के लिए एक अनिवार्य स्रोत हैं।

जमीन से ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ वायुमंडल की सघनता कम होती जाती है। जमीन से लगभग 100 कि.मी. की ऊँचाई पर करमन रेखा मानी जाती है। यह रेखा वायुमंडल को बाह्य अंतरिक्ष से अलग करती है।

जमीन से शुरू होने वाले क्षोभमंडल की मोटाई 8 से 12 कि.मी. की ऊँचाई तक है।

क्षोभमंडल ध्रुवों पर पतला (लगभग 8 कि.मी. की मोटाई) तथा भूमध्य रेखा सबसे अधिक मोटा (लगभग 18 कि.मी. की ऊँचाई तक) होता है। सामान्यतः इसमें नाइट्रोजन 78%, ऑक्सीजन 20.95%, आर्गमन 0.93%, कार्बन डाइऑक्साइट 0.031% पाया जाता है। इनके अलाका जलवाष्प तथा अन्य गैसों का भी सांद्रण क्षोभमंडल में होता है। क्षोभमंडल में ऊँचाई बढ़ने के साथ में

कमी आती है। तापमान में कमी प्रति कि.मी. की ऊँचाई बढ़ने पर 6.5°c की दर से होता है। ऊँचाई बढ़ने पर तापमान के घटने की इस प्रक्रिया का पर्यावरणीय हास दर (Environment Lapse Rate) कहते हैं। धुयों पर क्षोभमंडल का तापमान -55°C तक नीचे चला जाता है। 

वायुमंडल की दूसरी परत को समतापमंडल कहते हैं। यह क्षोभमंडल के समाप्ति बिंदु से लगभग 50 कि.मी. की ऊँचाई तक पाया जाता है। वायुमंडल का यह स्तर लगातार तेज हवाओं के साथ बिल्कुल साफ रहता है। जेट जहाज तथा वायुयान समतापमंडल में ही उड़ान भरते हैं। समतापमंडल में पहले 25 कि.मी. की ऊँचाई तक तापमान स्थिर रहता है, लेकिन उसके बाद ऊँचाई बढ़ने के साथ तापमान में वृद्धि होती है। इसी समतापमंडल में 25 से 30 कि.मी. की ऊँचाई पर ओजोन परत पाया जाता है, जो सूर्य की पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा करता है। समतापमंडल में ओजोन परत की उपस्थिति के कारण इसे ओजोन मंडल भी कहते हैं।

वायुमंडल के तीसरे स्तर को मीज़ोस्फीयर या मध्यमंडल कहते हैं। यह जमीन के 50 कि.मी. से 80 कि.मी. की ऊँचाई तक पाया जाता है। यह वायुमंडलीय द्रव्यमान का लगभग 0.1% है। मध्यमंडल वायुमंडल का अत्यंत अशांत क्षेत्र है। यहाँ तरंगें पायी जाती हैं। मध्यमंडल में अणुओं के द्वारा बड़ी मात्रा में सूर्याताप अवशोषित होता है। इसके बावजूद मध्यमंडल में तापमान 100 .-90°c तक नीचे चला जाता है। यहाँ जलवाष्प बर्फ के बादल के रूप में जम जाते हैं, जिन्हें सूर्यास्त के समय देखा जा सकता है। इन बादलों को निशादीप्त मेघ (Noctilucent Clouds) कहते हैं। यही वह मंडल है, जहाँ अधिकांश उल्का पिंड वायुमंडल में प्रवेश करते हुए भस्म हो जाते हैं। मीज़ोस्फीयर के शीर्ष स्तर को बहिर्मंडल या थर्मोस्फीयर कहते हैं। ऊँचाई बढ़ने के साथ बहिर्मंडल का तापमान 1500°c तक बढ़ जाता है। थर्मोस्फीयर का एक भाग, जो 80 कि.मी. से 500 कि.मी. तक की ऊँचाई तक पाया जाता है, उसे आयनमंडल कहते हैं। यहाँ अणु आयन के रूप में विद्यमान होते हैं अतः इसका नाम आयनमंडल पड़ा। अंतरिक्ष यान, सेटेलाइट आदि इसी मंडल में स्थापित किए जाते हैं।


ऊंचाई कि.मी.में

0-10 (क्षोभमंडल) = जीवन तथा संबंधित क्रियाएं।

10-50 (समतापमंडल) = ओजोन मंडल तथा वायु यान उड़ान भरते हैं।

50-80 (मीजोस्फीयर या मध्यमंडल) = उल्का पिंड जलकर खत्म हो जाते है।

80-400 (थर्मोस्फीयर या तापमंडल) = रहस्यमयी प्रकाशिक क्रियाएं।

400-....(बहिर्मंडल) = सैटेलाइट,अंतरिक्षयान आदि।

इस प्रकार हम देखते हैं। वायुमंडल गैसों का एक सुरक्षात्मक आवरण है। यह आवरण पृथ्वी पर जीवन चक्र को संचालित रखने के लिए अनिवार्य है। वायुमंडल बाह्य अंतरिक्ष के प्रतिकूल मौसमीय दशाओं से पृथ्वी की रक्षा करता है। यह ब्रह्मांडीय विकिरणों तथा पराबैंगनी किरणों की पृथ्वी पर आने से रोकता है। ये किरणें जीवन के लिए अत्यंत घातक होती हैं।

2. जलमंडल:-

स्थलमंडल, जलमंडल तथा वायुमंडल सभी जगह जल पाया जाता है। यहाँ तक कि हमारे शरीर की संरचना में भी 70% से अधिक जल ही पाया गया है। यह हाइड्रोजन का ऑक्साइड है। और उपापययी क्रियाओं में हाइड्रोजन तथा ऑक्सीजन के स्रोत के रूप में कार्य करता है। इसका भौतिक तथा रासायिक गुण इसे विशिष्ट बनाता है। वायुमंडल में यह जलवाष्प के रूप में मौजूद रहता है तथा बादल निर्माण के आधार के रूप में कार्य करता है, जिससे पृथ्वी पर वर्षा होती है। जो जमीन में मौजूद पानी पृथ्वी पर जनजीवन को आसान बनाता है तथा फसलों, पेड-पौधों के लिए जरूरी होता है। मृदा में पानी को तीन भागों में बाँटा जाता है। सबसे नीचे गुरुत्वीय जल, उसके ऊपर जलस्तर तथा सबसे ऊपर केशिका जल। केशिका जल के कारण ही फसलों को मुदा से जल प्राप्त होता है।

पृथ्वी पर पाये जाने वाले समस्त जल में लगभग 97% भाग समुद्री जल है। यह समुद्री जल खारा होने के कारण मानवीय उपभोग के योग्य नहीं है। ध्रुवीय बर्फ तथा ग्लेशियरों में कुल जल का लगभग 2% पाया जाता है। भूजल कूल जल का केवल 0.63% है। वायुमंडल में उपस्थित जल पृथ्वी पर उपस्थित कल जल का 0.0001% है।

पृथ्वी के 71% क्षेत्रफल पर जल है। पृथ्वी पर जल की प्रचुरता के कारण ही पृथ्वी को नीला ग्रह कहा गया है। जलमंडल के अंतर्गत पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जलीय पारितंत्र आते हैं। महासागर जलमंडल के मुख्य भाग हैं। ये आपस में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बड़े से छोटे के क्रम में पृथ्वी पर के पाँच महासागर इस प्रकार हैं- प्रशांत महासागर अटलांटिक महासागर हिंद महासागर, दक्षिणी महासागर तथा आर्कटिक महासागर प्रशांत महासागर पृथ्वी के एक-तिहाई भाग पर फैला हुआ है।

पृथ्वी का जलमंडल जल-चक्र से संचालित होता है।

1.वाष्पीकरण 2.संघनन 3.वर्षण (बारिश का होना) 4.वाह (पानी का अपने स्तर पर वापस आना)

स्थलमंडल:-

पृथ्वी की सबसे ऊपरी परत को स्थलमंडल (Lithosphere) कहा जाता है। इस परत की मोटाई 30 से 40 कि.मी. है। पृथ्वी के इसी परत पर महाद्वीप तथा महासागर स्थित हैं। पृथ्वी का व्यास 12700 कि.मी. है। हम जैसे-जैसे पृथ्वी की गहराई में उतरते हैं तापमान तथा दबाव बढ़ता जाता है। पृथ्वी के सबसे भीतरी परत क्रोड का तापमान 5000 6000°K (केल्विन) तक होता है।

पृथ्वी के सबसे भीतरी परत क्रोड का व्यास लगभग 7000 कि.मी. है। इसे भीतरी क्रोड तथा बाह्य क्रोड में विभाजित किया गया है। ऐसा माना जाता है कि क्रोड लोहा तथा निकेल के मिश्र धातु से बना हुआ है। क्रोड का बाह्य परत द्रव अवस्था में है तथा भीतरी परत ठोसावस्था में है। क्रोड का लगभग 10% सतह सल्फर तथा ऑक्सीजन से निर्मित माना जाता है, क्योंकि ब्रह्मांड में ये तत्त्व प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं तथा पिघले हुए लोहे में आसानी से घुल जाते हैं।

पृथ्वी के मध्य भाग में प्राचार (मेटल) कहा जाता है। यह लगभग 2900 कि.मी. मोटा है। मेंटल की निचली परत लगभग 660 से 670 कि.मी. मोटा है। यह अधिकांशतः ओलिविन तथा पाइरोक्सिन खनिज संसाधनों से बना है। मेंटल के ऊपरी परत को एस्थेनोस्फीयर कहा जाता है। यह स्तर भूपर्पटी से 100 से 200 कि.मी. की गहराई पर पाया जाता है। यह एक कमजोर एवं विकृत भाग है जो टेक्टोनिक प्लेटों के लिए स्नेहक (Lubricant) का कार्य करता है। ऐसा माना जाता है कि मेंटल सिलीकॉन मैग्नीशियम, ऑक्सीजन, लोहा तथा अल्युमिनियम का बना हुआ है।

पृथ्वी के सबसे बाह्य भाग को भूपर्पटी (crust) कहा जाता है। बाहा भूपर्पटी की मोटाई लगभग 30 से 40 कि.मी. है, जो मुख्य रूप से ग्रेनाइट चट्टानों से बना हुआ है। यहाँ मुख्य रूप से सिलीकॉन तथा अल्युमिनियम जैसे खनिज पाए जाते हैं, जिसके कारण इन्हें सियाल लेयर (SIAL Layer) भी कहा जाता है। आंतरिक भाग या सागरीय भाग की मोटाई 5 से 10 कि.मी. ही है। यह भाग मुख्यतः बेसाल्ट चट्टानों से बना हुआ है। इस भाग में मुख्य रूप से पाए जाने वाले खनिज हैं- सिलीकॉन तथा मैग्नीशियम । इसीलिए इस भाग को SIMA Layer भी कहा जाता है। टेक्टोनिक प्लेट के अंतर्गत छः मुख्य प्लेटें (यूरेशियन, अमेरिकन, अफ्रीकन, इंडो ऑस्ट्रेलियन तथा प्रशांत प्लेट) तथा बीस गौण प्लेटें होती हैं।

स्थलमंडल जीवन का केंद्र है। स्थलमंडल पर ही वायुमंडल तथा जलमंडल के संयोग से जीवन संभव होता है। सभी प्रमुख भू-दृश्य जैसे- सागर, पर्वत, झील, नदी आदि स्थलमंडल में ही पाएं जाते हैं।

जैवमंडल (Biosphere):-

स्थलमंडल, वायुमंडल तथा जलमंडल का वह क्षेत्र जहाँ जीवन पाया जाता है, उसे जैवमंडल कहते हैं। जैवमंडल जीवधारियों के जीवन का आधार है। पृथ्वी पर जीवन इन तीन मंडलों के अत्यल्प भाग के सहयोग से ही संभव हो पाता है। अधिकांश जीव जमीन पर, जमीन से कुछ कि.मी. ऊपर तथा जमीन से कुछ मीटर नीचे पाए जाते हैं। आर्कटिक से लेकिर अंटार्कटिक तक जीवन पाया जाता है। भूमध्य रेखा और उसके आस-पास सर्वाधिक जैव-विविधता पाई जाती है। महासागरों की अतल गहराइयों में भी जीवन पाया जाता है। सागरों में अधिकांश जीव 200 मी. की गहराई तक पाए जाते हैं। यह सीमा ऑक्सीजन, प्रकाश तथा उचित तापमान के अनुसार अलग-अलग जगहों पर बदलती रहती है।

पृथ्वी का वह भाग जो जीवित प्राणियों एवं पेड़-पौधों के रहने योग्य होता है, उसे इकोस्फीयर (Ecosphere) कहा जाता है।