पाश्चात्य काव्यशास्त्र/अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत

भूमिका

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अरस्तु

अरस्तू (Aristotiles) का जन्म मकदूनिया के स्तगिरा नामक नगर में 384 ई. पू. में हुआ था। उनके पिता सिकंदर के पितामह (अमिंतास) के दरबार में चिकित्सक थे। अत: प्रतिष्ठित परिवार में जन्में दार्शनिक अरस्तू बाल्यकाल से ही अत्यंत मेधावी और कुशाग्र बुध्दि के थे। वे प्लेटो के परमप्रिय शिष्य, जिन्हें प्लेटो अपने वीधापीठ का मस्तिष्क कहा करते थे। उन्हें सिकंदर महान का गुरू होने का भी गौरव प्राप्त है। ज्ञान-विज्ञान के लगभग सभी क्षेत्रों पर उनका समान अधिकार था। यही कारण है कि अरस्तू को पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान की विधाओं का आदि आचार्य माना जाता है। उनकी कृतियों की संख्या 400 मानी गई है, किन्तु उनकी प्रतिष्ठा के लिए दो ही ग्रंथ उपलब्ध है- 'तेख़नेस रितेरिकेस' जो भाषण कला से सम्बन्धित है। इसका अनुवाद 'भाषण कला' (Rhetoric) किया गया, दूसरा 'पेरिपोइतिकेस' जो काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। जिसका अनुवाद 'काव्यशास्त्र' (poetics) किया गया हालांकि 'काव्यशास्त्र' का यह ग्रंथ वृहत् ग्रंथ न होकर एक छोटी-सी पुस्तिका मात्र है, जिसमें कोई व्यवस्थित विस्तृत काव्य शास्त्रीय सिध्दांत निरूपण नहीं है। माना जाता है कि इसमें उनके द्वारा अपने विधापीठ में पढा़ने के लिए तैयार की नई समाग्री को उनके विषयों ने एकत्र कर दिया जो एक अत्यंत महत्वपूर्ण संदर्भ ग्रंथ बन पडा़ है। 'काव्यशास्त्र' की रचना के मूल में अरस्तू के दो उद्देश्य रहे हैं- एक तो अपनी दृष्टि से यूनानी काव्य का वस्तुगत विवेचन-विश्लेषण; दूसरा अपने गुरू प्लेटो द्वारा काव्य पर किये गये आक्षेपों को समाधान। किंतु इस प्रसंग में अरस्तू ने न तो कहीं प्लेटो का नाम लिया है, न खंडनात्मक तेवर अपनाया है और न गुरू के विचारों की तुलना में अपने विचारों को श्रेष्ठ ठहराने की अशालीनता प्रदर्शित की है, बल्कि उन्होंने प्लेटो के काव्य विषयक विचारों की दृढ़तापूर्वक और प्रतिभायुक्त समीक्षा की है।

अरस्तू ने जिन काव्यशास्त्रीय सिध्दांतो का प्रतिपादन किया, उनमें से तीन सिध्दांत विशेष महत्व रखते हैं- १) अनुकरण सिध्दांत २) त्रासदी-विवेचन ३) विरेचन सिध्दांत।।

अनुकरण-सिद्धांत

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'इमिटेशन' जो यूनानी के 'मिमेसिस' (Mimesis) का अंग्रेजी अनुवाद है, और हिन्दी में अनुकरण। अरस्तू ने प्लेटो द्वारा प्रयुक्त 'mimesis' शब्द तो स्वीकार करते है लेकिन उसे एक नवीन अर्थ में। प्लेटो ने 'अनुकरण' शब्द का प्रयोग हू-ब-हू नकल मानते है जबकि अरस्तू ने उसको एक सीमित तथा निश्चित अर्थ दिया। अरस्तू ने कला को 'प्रकृति की अनुकृति' माना है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि अनुकरण उनके यहाँ 'बाह्यरूप की अनुकृति' नहीं है, जैसी कि प्लेटो की धारणा थी। बल्कि वे कहते हैं कि अनुकरण प्रकृति के बाह्यरूपों का नहीं, उसकी सर्जन-प्रक्रिया का है। कलाकार बाह्यजगत् से सामग्री चुनता है और उसे अपने तरीके से छाँटकर और तराशकर इस प्रकार पुन: संयोजित करता है कि वह कलाकृति कलात्मक अनुभूति को जन्म देती है। प्रकृति में जो कुछ अपूर्णता रह जाती है, उसे कलाकार पूर्ण करने की चेष्टा करता है। इस सम्बन्ध में एबरक्रोम्बे का मत उल्लेखनिय है। उन्होंने लिखा है कि अरस्तू का तर्क था कि यदि कविता प्रकृति का केवल दर्पण होती, तो वह हमें उससे कुछ अधिक नहीं दे सकती थी जो प्रकृति देती है; पर तथ्य यह है कि हम कविता का आस्वादन इसलिए करते हैं कि वह हमें वह प्रदान करती है जो प्रकृति नहीं दे सकती। कवि की कल्पना में जो वस्तु-रूप प्रस्तुत होता है, उसी को वह भाषा में प्रस्तुत करता है। यह पुन:प्रस्तुतीकरण ही अनुकरण है। अरस्तू के अनुसार कलाकार तीन प्रकार की वस्तुओं में से किसी एक का अनुकरण कर सकता है- १) प्रतीयमान रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी है, वैसी ही दिखाई दे। २) सम्भाव्य रूप में, अर्थात् जो वस्तु जैसी नहीं है, किंतु वैसी हो सकती है। ३) आदर्श रूप में, अर्थात् किसी वस्तु को ऐसा होना चाहिए। इनमें पहली स्थिति यथातथ्यात्मक अनुकरण मानी जा सकती हैं। जबकि दूसरी एवं तीसरी स्थितियों में वास्तविक जगत् के अनुकरण से भिन्नता होती है। इन स्थितियों में कविता के संदर्भ में कहे तो, कवि बाह्य जगत् को आधार बनाता है किन्तु वह कल्पना तथा आदर्श भावना का आधार लेकर उस वस्तु का चित्रण कुछ इस प्रकार करता है कि वह बाह्य, इन्द्रियगोचर या भौतिक जगत् की सीमा से बहुत ऊपर उठ जाती है। अरस्तू का एक और विचार महत्वपूर्ण है। वह है इतिहास को लेकर। इतिहास और काव्य की तुलना करते हुए अरस्तू ने काव्य के सत्य को इतिहास के तथ्य से ऊँचा माना है। अरस्तू का मत है -'कवि और इतिहासकार में वास्तविक भेद यह है कि - १) इतिहास केवल घटित हो चुकी घटनाओं का उल्लेख करता है, जबकि काव्य में सम्भाव्य या घटित होनी वाली आदर्श स्थितियों का चित्रण होता है। २) इतिहास केवल बाह्य जगत् की विशिष्ट घटनाओं का उल्लेख एवं विवेचन प्रस्तुत करता है, जबकि काव्य का सत्य घटना विशेष तक ही सीमित नहीं होता, बल्कि 'सामान्य' होता है। ३) इतिहास वस्तुपरक होता है। इसके विपरीत काव्य में अनुभूति एवं विचार का सहारा लिया जाता है। श्रेष्ठ काव्य में तो दर्शन तत्व की भी प्रधानता होती है। समग्रत: अरस्तू अपनी 'अनुकरण' विषयक अवधारणा में इस तथ्य पर बल देते हैं कि काव्य में केवल बाह्य जगत् में प्रत्यक्ष जीवन का ही अनुकरण नहीं किया जाता, बल्कि सूक्ष्म, आंतरिक और अमूर्त जीवन का भी अनुकरण किया जाता है। इसके लिए कवि या कलाकार अनुभूति एवं कल्पना का आश्रय ग्रहण करता है। वे अनुकरण के तीन बिषय मानते हैं- १) प्रकृति २) इतिहास ३) कार्यरत मनुष्य।

त्रासदी-विवेचन

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पश्चिम में त्रासदी का सर्वप्रथम विवेचन यूनान में हुआ। यधपि अरस्तू से पूर्व प्लेटो ने भी त्रासदी पर अपने विचार प्रकट किये थे, तथापि अरस्तू ने ही सबसे पहले त्रासदी का गम्भीर एवं विशद विवेचन किया। त्रासदी ग्रीक साहित्य की महत्वपूर्ण विधा रही है। यह मूलत: नृत्य-गीत परम्परा से विकसित नाट्यरूप था। जिसे एस्खिलुस और सोफो़क्लीज जैसे नाट्यकारों ने समृध्द किया। यों तो उस युग में कामदी, महाकाव्य और गीतिकाव्य जैसी साहित्यिक विधाएँ भी यूनान में खूब प्रचलित थीं, किन्तु अरस्तू ने अपनी पुस्तक'पेरिपोइतिकेस' (पोयटिक्स) में सर्वाधिक महत्व त्रासदी को ही दिया। त्रासदी, त्रास अर्थात् कष्ट देने वाली विधा को कह सकते हैं, किन्तु अरस्तू ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है कि - "त्रासदी किसी गम्भीर स्वत:पूर्ण निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति है।" ' अर्थात् त्रासदी में जीवन के किसी पक्ष का गंभीर चित्रण संवाद तथा अभिनय द्वारा होता है और वह दुखान्त होती है। उपर्युक्त परिभाषा के आधार पर हम त्रासदी की विशेषताओं को निम्न रूप में रेखांकित कर सकते हैं- १) त्रासदी 'कार्य की अनुकृति' है। व्यक्ति की अनुकृति नहीं। २) त्रासदी में वर्णित 'कार्य' गम्भीर तथा स्वत: पूर्ण होता है। इसका क्षेत्र तथा विस्तार निश्चित होता है। ३) इसमें जीवन व्यापार वर्णनात्मक रूप नहीं होता, बल्कि यह प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। ४) त्रासदी की शैली अलंकारपूर्ण होती है। ५) इसमें करूणा और त्रास का उद्रेक होता है। अरस्तू ने त्रासदी के छह तत्व माने हैं- १) कथानक (plot) २) चरित्र (character) ३) विचार (Thought) ४) पदविन्यास (Diction) ५) दृश्यविधान (Spectacle) ६) गीत (Song)। अरस्तू ने त्रासदी में सर्वाधिक महत्व कथानक को दिया। चरित्र को इतना महत्व नहीं दिया। यहाँ तक कि वे चरित्र के अभाव में भी त्रासदी की सत्ता स्वीकार करते है।

विरेचन सिद्धांत

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यूनानी के शब्द 'Catharsis' का हिन्दी रूपांतर 'विरेचन' होता है। जिस प्रकार 'Catharsis' शब्द यूनानी चिकित्सा-पध्दति से सम्बध्द है, उसी प्रकार 'विरेचन' शब्द भारतीय आयुर्वेद-शास्त्र से सम्बन्धित है। आयुर्वेद के अनुसार शरीर में वात, पित्त, कफ - ये तीन दोष (विकार) होते हैं। उपयुक्त औषधि के प्रयोग से शरीर के विकारों को निकाल बाहर कर राहत प्रदान करता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण- पेट के कब्ज को साफ करना। वैध के पुत्र होने के कारण अरस्तू ने यह शब्द वैधक-शास्त्र से ग्रहण किया और काव्यशास्त्र में उसका लाक्षणिक प्रयोग किया। अरस्तू त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानते थे। और त्रासदी को सर्वश्रेष्ठ मानने के कारणों में उनका विरेचन ('Catharsis') सिध्दान्त था। अर्थात् अरस्तू के अनुसार त्रासदी दर्शकों के मन में करूणा एवं त्रास (दु:ख) की भावनाओं को उकसाकर उनका विरेचन कर देती है। संगीत के क्षेत्र में यह और भी अधिक सटीक बैठती है। यह एक प्रकार से मनोविकारों को उभारकर शांत करने और करूण एवं त्रास से आवेशित व्यक्तियों को 'शुध्दि का अनुभव' प्रदान करने की प्रक्रिया है, जो अन्तत: आनंद प्रदान करती है। कलांतर में अरस्तू के 'विरेचन सिध्दांत' की चार दृष्टियों से व्याख्या की गई- १) धर्मपरक २) नीतिपरक ३) कलापरक ४) संरचनापरक। विरेचन की यह प्रक्रिया भारतीय काव्य शास्त्र के अन्तर्गत साधारणीकरण की अवधारणा से मेल खाती है।

संदर्भ

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१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--२१,२६,५६

२. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१९०,१९१,१९५

३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--११२-११७