पाश्चात्य काव्यशास्त्र/इलियट के साहित्य संबंधी सिद्धांत

भूमिका

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टी. एस. इलियट बीसवीं शताब्दी के अंग्रेजी के सर्वश्रेष्ठ कवि और आलोचक के रूप में विख्यात हैं। इनका जन्म सेंट लूई (अमेरिका) में 26 सितंबर, 1888 ई. को हुआ था। परम्परा को नई दृष्टि से समझने और साहित्य में उसकी प्रतिष्ठापना में उनके सिध्दान्त विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इलियट के आदर्श आलोचक अरस्तू , रेमडी गोर्मी, टी. यू. हूल्मे, एजरा पाउन्ड और फ्रांसीसी प्रतिकवादियों (बिम्बवादी) का प्रभाव था। तो परम्परा-सम्बन्धी विचार, मूर्ख अभिव्यक्ति-सम्बन्धी धारणा, वस्तुमूलक प्रतिरूपता (objective correlative) हूल्मे से प्रभावित थी। इलियट अपनी आलोचना को अपनी काव्य-कर्मशाला का उपजात तो कहते ही हैं, साथ ही यह भी मानते हैं कारयित्री और भावयित्री प्रतिभाएं परस्पर-पूरक है; अच्छा कवि अच्छा आलोचक भी हो अथवा अच्छा आलोचक अच्छा कवि भी हो, यह आवश्यक नहीं है। ध्यातव्य है कि इलियट की आलोचना मुख्यत: सर्जक की दृष्टि से लिखी गयी हैं, पाठक की दृष्टि से नहीं। जैसे रिचर्ड्स की आलोचना केवल पाठक के लिए है, वैसे इलियट की आलोचना केवल पाठक के लिए नहीं बल्कि सर्जक और पाठक दोनों के लिए है। इलियट ने आलोचना के न तो सिध्दांत बनाये हैं, न नियम। उन्हें आलोचना के किसी व्यक्ति, वाद या संप्रदाय से भी जोड़ना संभव नहीं है। वे स्वतंत्रचेता आलोचक हैं और उनके वैयक्तिक मानदंड हैं। उन्हें जहां जो भी गाह्म प्रतीत हुआ, उसे उन्होंने निस्संकोच ग्रहण किया है। इसलिए उनकी आलोचना पर प्रभाव तो बहुतों का है किंतु पूर्ण अनुमान उन्होंने किसी का नहीं किया है। वस्तुत: इलियट की आलोचना का मुख्य उद्देश्य-अपनी कविताओं के बोध, आस्वाद और परिशंसन की भूमि तैयार करना। रूचि-परिष्कार को वे आलोचना का अन्यतम प्रयोजन मानते हैं। 19 वीं शताब्दी के आरंभ में रोमांटिक कवियों (वर्ड्सवर्थ, कोलरिज, शेली आदि) ने जिस जिस आलोचना का सूत्रपात किया था, उसमें कवि की वैयक्तिकता, भावना और कल्पना का प्राधान्य था। मैथ्यू आर्नल्ड ने वैयक्तिकता के अतिरेक को अवैयक्तिकता से संतुलित करने का प्रयास किया, किंतु साहित्य से अधिक संस्कृतिक की ओर और काव्य से अधिक धर्म की ओर उन्मुख रहने के कारण उन्हें अभीप्सित सफलता नहीं मिली। वाल्टर पेटर और ऑस्कर वाइल्ड द्वारा प्रवर्तित कलावाद (कला कला के लिए) को लेकर साहित्यिक मंच अवतरित किया। सेंट्सबरी की आलोचना ऐतिहासिक और जीवनी-मूलक थी। तात्पर्य यह है कि आलोचना की इन प्रचलित पध्दतियों में कवि की प्रधानता और कृति की गौणता थी। इसलिए इलियट ने उदबाहु घोषणा किया कि "सच्ची आलोचना तथा सूक्ष्म परिशंसा का लक्ष्य कवि नहीं बल्कि काव्य है।"

परम्परा और इतिहास बोध का सिद्धांत

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इलियट की प्रथम आलोचनात्मक कृति -"दि सेक्रेड वुड" प्रकाशित हुई, जिसमें 'ट्रेडिशन एंड दि इंडिविजुअल टैलेंट' नामक प्रसिध्द लेख संगृहीत है। यह लेख इलियट की आलोचना का मूलाधार है और 'प्रस्थानबिंदु भी हैं। 1922 में 'द वेस्टलैंड' कविता क्राइटेरियन में प्रकाशित न केवल इलियट के लिए बल्कि अंग्रेजी साहित्य के लिए भी महत्वपूर्ण घटना थी। इसके प्रकाशन से शुरू में बेहद हो-हल्ला मचा इसे साहित्यिक धोखाधडी़ तक कहा गया, किन्तु धीरे-धीरे यह आक्रोश परिशंसन में परिणत हो गया और साहित्य जगत में इस कृति के साथ इलियट की प्रतिष्ठा अविचल हो गयी। उनके 'ट्रेडिशन एंड इंडिविजुअल टैलेंट' नामक लेख का उद्देश्य ही है रोमांटिक संप्रदाय की व्यक्तिवादिता के बदले पंरपरा का महत्व स्थापित करना और परंपरा के अंतर्गत ही वैयक्तिक प्रज्ञा (individual talent) की सार्थकता प्रदशित करना। इलियट के काव्य सिध्दांतों को समझने के लिए उनके कविताओं की अपेक्षा उनके निबंध कहीं अधिक मददगार हैं। इस संदर्भ में उनका सर्वाधिक चर्चित निबंध 'Traditional and Individual Talent' है।

क्लासिकवाद

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इलियट ने स्वंय अपने बारे में कहा था, "मैं राजनिति में राजतंत्रवादी, धर्म में एंग्लोकैथोलिक और साहित्य में क्लासिकवादी हूँ।" इलियट ने अपने को क्लासिकवादी कहा है, अत: यह जानना आवश्यक है कि क्लासिकवाद से उनका क्या तात्पर्य है? उनके अनुसार 'क्लासिक' का अर्थ है परिपक्वता या प्रौढ़ता (Maturity) और क्लासिक साहित्य की सृष्टि तभी हो सकती है, जब सभ्यता, भाषा और साहित्य प्रौढ़ हो और स्वयं कृतिकार का मस्तिष्क भी प्रौढ़ हो। मस्तिष्क की प्रौढ़ता के लिए वह इतिहास और ऐतिहासिक चेतना को आवश्यक मानते हैं। इसके लिए कवि को अपने देश और जाति के अध्ययन के अतिरिक्त दूसरी सभ्य जातियों का इतिहास पढ़ना चाहिए; उस सभ्यता का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए जिसने हमारी सभ्यता को प्रभावित किया है। सारांश यह है कि कवि को अतीत की पूरी जानकारी होनी चाहिए। शील की प्रोढ़ता से उनका अभिप्राय आदर्श चरित्र का निर्माण। महान् कवि क्लासिक हो ही इलियट के अनुसार यह आवश्यक नहीं। उनके अनुसार दोनों में अन्तर है। अंग्रेजी में महान् कवि अनेक हो चुके हैं, किन्तु इलियट उन्हें क्लासिक नहीं मानता। महान् कवि केवल एक विधा में पराकाष्ठा तक पहुँचकर सदा के लिए उसकी सम्भावना को समाप्त कर देता है, जबकि क्लासिक कवि एक विधा को ही नहीं, अपने समय की भाषा को भी पराकाष्ठा पर पहुँचाकर उसके विकास को सम्भावना को समाप्त कर देता है।

परंपरा और वैयक्तिक प्रज्ञा

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परम्परा का शाब्दिक अर्थ है- पहले से चली आई हुई धारणाएँ या मान्यताएँ। इलियट का मानना है कि, "परम्परा अत्यन्त महत्वपूर्ण वस्तु है। परम्परा को छोड़ देने से हम वर्तमान को भी छोड़ बैठेंगे।" इस प्रकार वे अपनी पुस्तक 'After Strange Gods' में परम्परा के महत्व को रेखांकित करते हैं, "परम्परा से मेरा तात्पर्य उन सभी स्वाभाविक कार्यों, रीति-रिवाजों (धार्मिक कृत्यों से लेकर नावागंतुक को अभिवादन करने में स्वीकृत तरीके), तर्क, जो एक स्थान में रहनेवाले एक समुदाय के व्यक्तियों के रक्त संबंध समाहित हैं।" उनकी दृष्टि में परम्परा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व इतिहास बोध है। वे इस बात के पक्षधर हैं कि परम्परा से प्राप्त ज्ञान का अर्जन और विकास आजीवन करना चाहिए। 19 वीं शताब्दी, इलियट से पहले स्वच्छन्दतावाद का बोलबाला था। स्वच्छंदतावाद कविता को आत्मनिष्ठ मानता है। इलियट ने इसका प्रबल विरोध किया। उन्होंने यह अनुभव किया, साहित्य अपने मूल उद्देश्य से भटक रहा है।तथा समसामयिक कविता परम्परा से पूरी तरह से कटी हुई है। ऐसे में इलियट को यही श्रेयस्कर प्रतीत हुआ कि कविता के केन्द्र परम्परा को रखा जाए और वैयक्तिकता के कारण फैली हुई भावक्षेत्र की अव्यवस्था को व्यवस्थित किया जाए। इस विचार से उन्होंने अनेकता को एकता में बाँधने के लिए उन्होंने परम्परा का सिध्दान्त सामने रखा। इलियट के कहने का तात्पर्य यह है कि वैयक्तिक प्रज्ञा (individual talent) परंपरा से विच्छिन वस्तु नहीं है। परंपरा से जुडा़ रहकर ही कवि अपनी वैयक्तिक क्षमता को अधिक सफल बना सकता है। तुलसीदास और प्रसाद इसके अच्छे उदाहरण हैं। तुलसीदास के सामने रामकाव्य की एक लंबी श्रृंखला थी जिससे उन्होंने बहुत कुछ लिया, किन्तु इससे उनके काव्योत्कर्ष पर कोई आंच नहीं आयी। प्रसाद की कामायानी में प्रागैतिहासिक युग से लेकर आधुनिक युग तक की भारतीय मनीषा का उत्तमांश प्रतिफलित है; फिर भी इस युग का सर्वश्रेष्ठ काव्य है। निष्कर्ष यह कि वैयक्तिक प्रज्ञा के प्रस्फुटन में परंपरा बाधक नहीं, बल्कि साधक और सहायक है। पंरपरा के प्रति आसक्ति का अर्थ अंधानुकरण नहीं है। अंधानुकरण या निष्प्राण आवृत्ति से नवीनता कहीं अच्छी है। उन्होंने समझाया कि परम्परा सामान्य वस्तु नहीं है जो आसानी से प्राप्त किया जा सकता बल्कि 'परम्परा'व्यापक अर्थ है। उसे दान या विरासत के रूप में नहीं प्राप्त किया जा सकता; उसकी प्राप्ति के लिए कठोर परिश्रम आवश्यक है। इसके लिए सर्वप्रथम ऐतिहासिक बोध की आवश्यकता है। "ऐतिहासिक बोध का अर्थ न केवल अतीत को उसके अस्तित्व में देखना, अपितु उसके वर्तमान में भी देखना हैं। वे परम्परा का सम्बन्ध ऐतिहासिक बोध ही नहीं, संस्कृतिक के साथ भी जोड़ते हैं। संस्कृति में किसी जाति या समुदाय के जीवन, कला, साहित्य, दर्शन आदि के उत्कृष्ट अंश सन्निविष्ट रहते हैं। इलियट का कहना है कि परंपरा कोई मृत या अनुपयोगी वस्तु नहीं हैं। वस्तुत: जो मृत या अनुपयोगी है, उसे परंपरा की संज्ञा देना अनुचित है। परंपरा तो अविच्छिन प्रवाह है, जो अतित के साहित्यिक उत्तमांश से वर्तमान को समृध्द एवं सार्थक बनाती है।

निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत

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इलियट के समीक्षा सिद्धांतों में निर्वैयक्तिकता का सिध्दांत भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना उनका परम्परा विषयक विचार। निर्वैयक्तिकता को Impersonal Theory of poetry कहा जाता है। एजरा पाउण्ड, जिसके विचारों से इलियट प्रभावित हुए थे, मानता था कि कवि वैज्ञानिक के समान ही निर्वैयक्तिक और वस्तुनिष्ठ होता है। कवि कार्य आत्मनिरपेक्ष होता है। इलियट अनेकता में एकता बाँधने के लिए परम्परा को आवश्यक मानते हैं। इस तरह साहित्य में आत्मनिष्ठता पर नियंत्रण होकर वस्तुनिष्ठता की प्रतिष्ठा हो जाती है। वे काव्य के स्वरूप पर विचार करते हुए व्यक्तित्व एवं कवि-मन को केवल एक 'माध्यम' मानते हैं। काव्य की प्रक्रिया, उनके अनुसार, पुन: स्मरण नहीं है, बल्कि एकाग्रता का प्रतिफलन मानते हैं।इसीलिए वे कहते हैं कि "कवि व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं करता है, अपितु वह विशिष्ट माध्यम मात्र है। "एक वैज्ञानिक प्रक्रिया का उदाहरण देते हुए इलियट ने काव्य की रचना-प्रक्रिया को समझाया है। ऑक्सजीन और सल्फर आयोक्साइड के कक्ष में यदि प्लेटिनम का तार डाल दिया जाए तो ऑक्सजीन और सल्फर डायोक्साइड मिलाकर सल्फर एसिड बन जाते हैं, लेकिन प्लेटिनम पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता और न एसिड में प्लेटिनम का कोई चिन्ह दिखाई देता है। कवि का मन भी प्लेटिनम का तार हैं। व्यक्तिगत भावों की कला अभिव्यक्ति नहीं है, वरन् उससे पलायन का नाम कला है। कलाकार की दो भूमिकाएँ होती हैं- वह परम्परा से कुछ लेता है और परम्परा को कुछ देता है। इस प्रक्रिया से परम्परा में लेने के लिए कलाकार को आत्म-त्याग करना पड़ता है। इलियट ने निर्वैयक्तिकता के दो रूप माने हैं- १) प्राकृतिक, जो कुशल शिल्पी मात्र के लिए होती है,२) विशिष्ट जो प्रौढ़ कलाकारों द्वारा उपलब्ध की जाती हैं। उनकी मान्यता है कि "प्रौढ़ कवि का वैयक्तिक अनुभव-क्षेत्र भी निर्वैयक्तिकता होता है।" इस सिध्दान्त के अनुसार कविता का जीवन स्वतंत्र होता है। वह उपयुक्त माध्यम है। अर्थात् कवि कविता को लिखता नहीं, कवित्ता स्वयं कवि के माध्यम से कागज पर शब्द-विधान के रूप में उतर आती है। निर्वैयक्तिकता से इलियट का अभिप्राय मात्र कुशल शिल्पी की निर्वैयक्तिकता से नहीं है। वह कला की निर्वैयक्तिकता को प्रौढ़ कवि के निजी अनुभवों की सामान्य अभिव्यक्ति मानते हैं। भारतीय आचार्यों की तरह वह भी मानते हैं कि कवि अपने निजी भावों की अभिव्यक्ति कविता में करता है, पर उन्हें इस प्रकार प्रस्तुत करता है कि वे भाव उसके अपने ही नहीं, सर्व-सामान्य के भाव बन जाते हैं। अतएव इलियट की निर्वैयक्तिकता का अर्थ- कवि के व्यक्तिगत भावों की विशिष्टता का सामान्यीकरण (साधारणीकरण) हैं। इलियट वैयक्तिकता के विरोधी नहीं है क्योंकि वैयक्तिकता के मार्ग पर चल कर ही निर्वैयक्तिकता तक जाया जाता है। इलियट घोर वैयक्तिकता के विरोधी है।

वस्तुनिष्ठ समीकरण

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मूर्त-विधान(Objective Correlative) का प्रयोग इलियट ने शेक्सपियर के प्रसिध्द नाटक हैमलेट की आलोचना के प्रसंग में किया है। इलियट की दृष्टि में हैमलेट असफल रचना है, क्योंकि इसमें भाव का समुचित संप्रेषण नहीं हो पाया है इसका कारण मूर्त-विधान अपेक्षित होना। इसी प्रसंग में 'वस्तुमूलक प्रतिरूपता' का सिध्दान्त प्रतिपादित किया है। इलियट का कथन है, कला में भाव-प्रदर्शन का एक ही मार्ग है, और वह है वस्तुनिष्ठ समीकरण। दूसरे शब्दों में, ऐसी वस्तु-संघटना, स्थिति, घटना-श्रृंखला प्रस्तुत किया जाए जो उस नाटकीय भाव का सूत्र हो ताकि ज्यहों ये बाह्य वस्तुएँ जिनका पर्यवसान मूर्त मानस-अनुभव में हो, प्रस्तुत की जाएँ त्योंही भावोद्रेक हो जाए। नाटककार या कवि जो कुछ कहना चाहता है, उसे वह वस्तुओं की किसी संघटना, किसी स्थिति, किसी घटना-श्रृंखला के द्वारा ही कहता है। वह अपनी संवेदनाओं और अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए वस्तुमूलक चिन्हों से काम लेता है। फलत: अमूर्त भावनाएँ मूर्त रूप में प्रकट हो जाती है। इन मूर्त चिन्हों अथवा प्रतीकों से ठीक वही भावनाएँ जाग्रत होती है जो कवि के मन में जाग्रत हुई थी।काव्य की सफलता इसी में है कि भावनाओं और उनके मूर्त-विधान में पूर्ण सामंजस्य और एकरूपता हो। अत: इलियट इस वस्तुनिष्ट समीकरण को 'विभाव-विधान' भी कहते हैं।

संदर्भ

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१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--२०२-२२२

२. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--२५९-२६२

३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--१४४-१४९