नई समीक्षा (New Criticism)

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बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में परम्परागत कला-मूल्यों, साहित्य अभिरूचि, कविता, काव्य-भाषा सम्बन्धी धारणा में मौलिक परिवर्तन हुआ। स्वच्छन्दतावादी युग से भिन्न अब कविता को व्यक्तिगत राग-द्वेष और विचार, कवि की अनुभूति और उसके भावावेगों की सहज अभिव्यक्ति मात्र न मानकर प्रमुख रूप से कलात्मक रचना माना गया। इलियट ने कहा, "poetry is not a turning loose of emotion but an escape from emotion; it is not the expression of personality but an escape from personality." अब कविता की सार्थकता अर्थ में न मानकर उसके रूप में मानी गई और कहा गया, "A poem should not mean but be." कविता को विचार या भाव न कहकर पदार्थ कहा गया एक विशिष्ट अनुभव बताया गया जो अपने रूप से सर्वथा अभिन्न हैं। एलेन टेंट ने कहा कि कविता का उद्देश्य पाठक में रागात्मक मन:स्थिति उत्पन्न करना या उसके भाव-संस्कार जगाना नहीं, अर्थ-सौन्दर्य का सम्प्रेषण करना है। काव्य और काव्य-भाषा विषयक इस दृष्टि-परिवर्तन के फलस्वरूप आलोचना के सम्बन्ध में मत-परिवर्तन स्वाभाविक था। जब ब्लैकमर आदि आलोचकों ने कथ्य तथा भाषा के तालमेल को कविता की सफलता का आधार बताया," The success of a poem lies in the degree to which its language represents its substance."तो आलोचना का कार्य भी शब्द-प्रयोग का गहन अध्ययन और अर्थ-मीमांसा हो गया। ऐतिहासिक, नैतिकतावादी, स्वच्छन्दतावादी, मनोविश्लेषणात्मक, माक्र्सवादी समीक्षा-पध्दतियों के विरोध में बौध्दिक विश्लेषण से परिपुष्ट वस्तुनिष्ठ विश्लेषण को महत्त्व दिया गया। नई समीक्षा (The new criticism) शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम जोएल स्पिगार्न ने सन् 1911ई. में किया, पर उसकी परिभाषा जान क्रो रेन्सम ने अपनी पुस्तक "The New Criticism" में दि। कविता, उसके उद्देश्य में दृष्टि परिवर्तन के कारण काव्य-भाषा के स्वरूप और उसके कार्य के सम्बन्ध में विचार बदले। यह कहा जाने लगा कि कविता में शब्द-अर्थ का सामान्य या साधारणीकृत प्रयोग न होकर उसका विशेष और मूर्त प्रयोग होता है। कवि शब्द-विधान , बिम्ब-योजना , प्रतीक-रचना, रूपक, आदि अलंकारों के प्रयोग, वर्ण-विन्यास, शब्द-गुम्फन, शब्दों की आवृति, विशिष्ट सन्दर्भ में आलोकित अर्थ, अनेकार्थता, नाद-सौन्दर्य आदि के द्वारा सामान्य अर्थ को सुरक्षित रखते हुए भी उसमें अतिशय अर्थ भर देता है। अतः कविता में चमत्कार उद्घाटित करना ही नई समीक्षा का प्रधान कार्य है। इस प्रकार नई समीक्षा की प्रविधि-प्रक्रिया के तीन सोपान हैं- १) रचना का वाक्यार्थ प्रस्तुत करना २) शब्द-विधान की बारीकियों को दिखलाकर कवि-कौशल पर प्रकाश डालना ३) शब्द-विधान का अर्थ-विधान के साथ समन्वय करते हुए रचना के मूल अर्थ को प्राप्त करना। ' राम की शक्तिपूजा' से एक उध्दारण देकर हम बात को और स्पष्ट करना चाहेंगे-

उस ओर शक्ति शिव की जो दशस्कन्ध पूजित।
इस ओर रूद्र-वन्दन जो रघुनन्दन-कूजित।।
करने को ग्रस्त समस्त ब्योम कपि बढा़ अटल।
लख महानाश शिव अंचल हुए क्षण भर चंचल।। '

नई समीक्षा में पहले आलोचक इन पंक्तियों का वाक्यार्थ प्रस्तुत करते हुए यह बतलाएगा कि किस प्रकार रावण की तामसिक शक्ति और हनुमान की सात्त्विक शक्ति के बीच संघर्ष हुआ। हनुमान के पक्षधर थे राम और रावण की पीठ पर शिव थे। वस्तुत: वह संघर्ष हनुमान-रावण के बीच न होकर तामसी और सात्विक शक्तियों के बीच था। हनुमान का पक्ष प्रबल था क्योंकि वह भक्ति एवं सत् का पक्ष था। वाक्यार्थ प्रस्तुत करने के बाद आलोचक शब्द-विधान-सम्बन्धी कौशल पर प्रकाश डालेगा। पंक्तियों में मध्यवर्ती तुक-महिमा-श्यामा, रूद -वन्दन-रघुनन्दन, ग्रस्त समस्त आदि, वर्ण-गुम्फन, मानवीकरण, अनुप्रास, पंक्तियों में भाव के अनुरूप त्वरित गति न होकर मंद-मंथर गति, विरोधी अर्थ वाले शब्दों का एक साथ प्रयोग' 'अचल हुए क्षण भर चंचल' आदि ने किस प्रकार काव्य-कौशल को अभिवृध्द किया है, इसका विवेचन- विश्लेषण करेगा। शब्द-विधान पर विचार करने के उपरान्त अर्थ-विधान पर विचार करेगा और बताएगा कि उपयुक्त पंक्तियों का अर्थ केवल एक स्तर पर न होकर अनेक स्तरों पर है। इन पंक्तियों में रावण और हनुमान, शिव और राम, तामसिक और सात्त्विक वृतियों, कवियों के मन की विरोधी भावनाओं, निराशा और आशा के बीच संघर्ष तो दिखाया ही गया है। यह भी बताया गया है कि इस संघर्ष में अंतत: सद् की असद् पर, ज्योति की तमस् पर विजय होती है। और जब सद् का पक्षधर अटल संकल्प और दृढ़ता के साथ असद् का विरोध करने को तत्पर होता है तो असद् चाहे वह कितना ही (शिव के समान) शक्तिशाली क्यों न हो, विचलित हो उठता है, कांप उठता है। और यही सम्पूर्ण रचना का मूल अर्थ है।

संदर्भ

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१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--४५४-४५७

२. पाश्चात्य काव्यशास्त्र के सिद्धान्त - डॉ० शांतिस्वरूप गुप्त । अशोक प्रकाशन, संस्करण:२००९, पृष्ठ- ३४०-३४४