पाश्चात्य काव्यशास्त्र/प्लेटो की काव्य संबंधी मान्यताएँ

भूमिका

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यूनान का महान दार्शनिक प्लेटो का जन्म एथेंस नामक नगर में 427 ई.पू.के एक कुलीन वंश में हुआ था। प्लेटो को उनके माता-पिता ने 'अरिस्तोक्लीस' नाम दिया था। अरबी-फ्रासी में यही नाम 'अफलातून' के रूप में प्रचलित है। किन्तु विश्व की अधिकांश भाषाओं में उन्हें 'प्लेटो' नाम से ही जाना जाता है। प्लेटो की परिवारिक पृष्ठभूमि राजनीतिक थी‌। किन्तु उन्होंने स्वयं कभी राजनीति में हिस्सा नहीं लिया। सुकरात प्लेटो के गुरू थे। अतः सुकरात की छत्रछाया में ही प्लेटो की शिक्षा-दीक्षा हुई। प्लेटो ने अनेक वर्षों तक कई देशों का भ्रमण और विभिन्न दार्शनिक मत-मतांतरों का गहन अध्ययन भी किया। प्लेटो का चिंतन उनके लिखे 'संवादों' में मुखरित हुआ है। उनके कुछ संवाद 'पोलितेइया', 'रिपब्लिक' तथा 'ईऑन' में संकलित हैं। सुकरात ने कोई ग्रंथ नहीं लिखा; उनकी दृष्टि में अध्यापन का सबसे अच्छा तरीका था- संवाद अर्थात प्रश्नोत्तर, जिसमें अध्यापक और अध्येता दोनों सहभागी हों। एथेंस पर स्पार्टा का आक्रमण प्लेटो के जन्म से चार वर्ष पहले हुआ था। इस कारण प्लेटो का शैशव, कैशोर एवं यौवन का भी आरंभिक भाग युध्द की काली छाया में बीता। उन्होंने युध्द की विभीषिका ही नहीं, बल्कि अपनी जन्मभूमि की ग्लानिजनक पराजय भी अपनी आंखों से देखी। जब वे रिपब्लिक में कहते हैं कि "गुलामी मृत्यु से भी भयावह है।" तो समझते देर नहीं लगती कि इस आक्रोश की तीव्रता स्वानुभूत है। इसके साथ ही उसने यह भी देखा कि एक ओर तो लोकतंत्र वैचारिक स्वतंत्रता का दम भरता है और दूसरी ओर एक बुद्धिवादी(सुक्रात) को तर्क के प्रचार के लिए मृत्युदंड देता है। प्लेटो दार्शनिक होते हुए भी कवि-हृदय-सम्पन्न था। उसने महान कवियों के काव्य का अध्ययन किया था। जब हम उसे काव्य और कवि की निन्दा करते हुए पाते हैं, तो किंचित् रूप से कवि और कलाप्रेमी प्लेटो की अपने आदर्श राज्य से कवियों के बहिष्कार की बात कुछ निराशा और अटपटी-सी लगती है पर यदि हम उसके युग की परिस्थितियों, उसकी रूचि, प्रवृति और उसकी जीवन-दृष्टि को ध्यान में रखें तो उसका काव्य के प्रति दृष्टिकोण सहज ही समझ में आ जाता है। वह सत्य का उपासक और तर्क का हिमायती था अतः सत्य की रक्षा के लिए उसने एक ओर दर्शन की वेदी पर अपने कवि-हृदय की बलि चढा दी और दूसरी ओर अपने श्रध्दा-पात्र होमर की यह कहकर निन्दा की- 'दुनियाभर के लोगों को झूठ बोलना होमर ने ही सिखाया हैं।' प्लेटो का मत था कि उसके समय कविता मनोरंजन के लिए लिखी जाती थी जो ग्रीक लोगों के अस्वस्थ मनोवेगों को उभारती थी। वे देव तथा महापुरूषों के आख्यानों का तो स्वागत किया है। किन्तु उनका आक्रोश तो उन साहित्य से है जो दु:खातक, रोने-धोने को बढ़ावा देकर समाज को कमजोर बनाते हैं। चूकिं कमजोर समाज अपनी स्वतंत्रता की रक्षा नहीं कर सकता, इसलिए वैसे साहित्य और लेखकों को राज्य में रहने का अधिकारी नहीं, जो बल और पौरूष को जगाने के बदले कमजोर बनाता है‌। बट्रेंड रसल का कहना ठीक ही लगता है कि "प्लेटो के अनुदार विचारों को भी ऐसी सज-धज के साथ प्रस्तुत करने की कला थी कि वे भावी युगों को प्रवंचित करते रहे।"

प्लेटो का अनुकरण सिध्दांत

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प्लेटो काव्य को जीवन का अनुकरण मानते हैं उन्होंने इस क्रिया को 'भीमेसिस' कहा है। जिसका अंग्रेजी अनुवाद इमीटेशन अर्थात् अनुकरण होता है। प्लेटो की स्पष्ट धारणा है कि काव्य सत्य से दूर होता है, क्योंकि वह कविता को अज्ञान से उत्पन्न मानता है। इसलिए काव्य में सत्य का अनुकरण नहीं किया जा सकता। उन्होंने 'अनुकरण' का प्रयोग दो संदर्भों में किया हैं- १) विचार जगत् और गोचर जगत् के बीच संबंध की व्याख्या के लिए, २) वास्तविक जगत् और कला के बीच संबंध निरूपण के लिए। प्लेटो मूलतः प्रत्यावादी (idealistic) दार्शनिक थे। उनका प्रत्ययवाद काव्य और कला को गहनता से समझने का तार्किक आधार प्रदान करता है। इसके अनुसार प्रत्यय अर्थात् विचार ही परम सत्य है। वह एक अखण्ड, नित्य है और परमेश्वर ही उसका रचयिता हैं। यह दृश्यमान जगत् उस परम सत्य या विचार का ही अनुकरण है। क्योंकि कलाकार किसी वस्तु को ही अपनी कल्पना शक्ति द्वारा निर्मित कर पाता हैं। इसलिए वह अनुकरण का अनुकरण कर पाता है। इस दृष्टि से कला तीसरे स्थान पर है- पहला स्थान प्रत्यय(विचार) या ईश्वर का, दूसरा आभास (प्रतिबिम्ब) या वस्तु जगत् का, तीसरा वस्तु जगत् का अनुकरण या काव्य की कला कृति का है। प्लेटो का मत है कि कवि जिस वस्तु का अनुकरण करता है, उसकी प्रकृति से परिचित नहीं होता है। संसार में प्रत्येक वस्तु का एक नित्य रूप होता है, जो प्रत्यय या विचार धारणा में ही रहता है। यह रूप ईश्वर निर्मित हुआ करता है। प्रत्यय अर्थात् विचार में वर्तमान उसी रूप के आधार पर किसी वस्तु का निर्माण हुआ करता है। प्लेटो ने अपने इस सिध्दांत को समझाने के लिए पलंग का उदाहरण दिया है। उनका कहना हैं कि यथार्थ पलंग वह है जिसका रूप हमारे प्रत्यय या विचार में है। और इसी रूप का निर्माण ईश्वर ने किया है। उस विचार में मौजूद रूप के आधार पर बढ़ई लकडी़ से पलंग का निर्माण करता है‌ और बढ़ई द्वारा बनाए गए पलंग का चित्र कवि या कलाकार बनाता है। इस प्रकार तीन पलंग हुए- १) प्रथम जिसका निर्माण ईश्वर या विचार में है। २) दूसरा जिसका निर्माण बढ़ई लकडी़ से करता है। ३) तीसरा वह जिसका निर्माण कलाकार या चित्रकार करता है। यही कारण है कि प्लेटो के अनुसार कविता या कलाकृति अनुकरण का अनुकरण या नकल की नकल है। इसलिए वह मानते हैं कि हर काव्य या कला मिथ्या और सत्य से दूर है।

प्लेटो की काव्य संबंधी मान्यताएँ

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१. प्लेटो का कहना हैं कि काव्य में देवों का चरित्र आदर्श नहीं हैं और ना ही वीरों का। उनसे मनुष्यों को कोई सत्प्रेरणा नहीं मिल सकती। उदाहरण होमर के ग्रंथों में देखा जा सकता हैं जहाँ देवताओं को क्रूर और लोभी तथा सत पात्रों को दुःखित दिखाया गया।

२. होमर और हेसिओद के काव्यों में ऐसे स्थल आये है जो पाठकों और श्रोताओं के मन में वीरता के जगह भय का संचार करती है। जबकि काव्य ऐसा हो कि नवयुवकों में शौर्य जगायें और मृत्यु की लालसा जगाये।

३. काव्यों में भोग-विलास की कामना उत्तेजित करने वाले उत्सवों का निषेध हो।

४. काव्य में अगर सदाचार के लिए दंड और कदाचार के लिए पुरस्कार होगा तो नैतिकता कैसे टिकेगी? कोमल बुद्धि बालकों और नवयुवकों पर इसका अनिष्ट प्रभाव पड़ता है।


५.नाटकों में बुरे पात्रों के लगातार अनुकरण से अभिनेता में भी उनकी बुराइयां आ जाती हैं। जिससे समाज में भी बुराइयों का विस्तार होता हैं।(प्लेटो यहाँ यह कहना भूल गये कि बुरे पात्र के अनुकरण से बुराइयां आती हैं तो अच्छे पात्रों के अनुकरण से अच्छाई आती हैं।)

६. दुःखांतकों में कलाह, हत्या, विलाप आदि और सुखांतकों में विद्रुपता, अभद्रता, मसखरापन आदि देखने-सुनने में द्रषटा-श्रोता के मन में निष्कृष्ट भाव उदित होते हैं। सत् और महान पात्रों को नाटक में आँसू बहाते देख जनता भी वहीं सीखती हैं।

७. कोई व्यक्ति दुःखांतक में भी अभिनय करे और सुखांतक में भी और दोनों में सफलता प्राप्त करे, यह संभव नहीं; क्योंकि दोनों में सर्वथा भिन्न प्रकार के अभिनय अपेक्षित हैं। किसी व्यक्ति की प्राकृतिक विशेषता किसी एक ही प्रकार के अभिनय के अनुकूल हो सकती है।

८. प्राज्ञ और प्रशान्त व्यक्ति प्रायः सदा एकरस रहते हैं। अतः न तो अभिनेता के लिए उनका अनुकरण सरल है और न भावक के लिए आस्वाद। जो नाटककार लोकप्रियता अर्जित करना चाहते हैं वे हलके और ओछे भावों का ही चित्रण पसंद करते हैं। इससे समाज में हलकापन और ओछेपन का प्रसार होता है।

९. काव्य और नाटक अंतः प्रेरणा अर्थात भाव के उच्छलन से उत्पन्न होते हैं, तर्क से नहीं। प्लेटो तर्क हीन किसी भी वस्तु को स्वीकृत नहीं करते।

१०. काव्य दैवीय शक्ति की प्रेरणा से उत्पन्न होती है। रचनाकार काव्य करते वक्त अपने वश में नहीं रहता।

११. भाव की इस उद्दीप्ति के दो दुष्परिणाम होते हैं:- प्रथम सत्य को देखने की दृष्टि अस्पष्ट होती है और दूसरी भाव का अतिरेक संयम तथा संतुलन को बाधित करता है। इससे समाज में वीरता के बदले विलास बढ़ता है।

१२.कुछ लोग काव्यगत असत्य का समाधान यह कहकर करते हैं कि वह अन्योक्ति है किन्तु बालक या नवयुवक में इतनी बुद्धि नहीं होती कि वह अन्योक्ति तथा यथार्थ में भेद कर सके।

संदर्भ

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१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--४,९,१०,११,१४

२. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१८१

३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--१०४-१०७