पाश्चात्य काव्यशास्त्र/लोंजाइनस की उदात्त संबंधी अवधारणा
भूमिका
सम्पादनलोंजाइनस के विषय में प्रामाणिक जानकारी का अभाव है। लोंगिनुस जन्म से यूनानी थे। उनका समय ईसा की प्रथम या तृतीय शताब्दी माना जाता है। लोंगिनुस के प्रसिध्द ग्रंथ 'पेरी हुप्सुस' जिसका प्रकाशन 1554 में रोबेरतेल्लो ने किया। इसके कई अनुवाद मिलते हैं। यथा- 'हाइट ऑफ इलोक्वेंस' (वाणी की पराकाष्ठा),(1662), 'लाफ्टीनेस ऑर एलीगेंसी ऑफ स्पीच' (भाषा का लालित्य या उत्तुंगता) आदि। इसी के अनुरूप हिन्दी में 'काव्य में उदात्त तत्व' डॉ. नगेन्द्र एवं नैमिचंद जैन की पुस्तकों में भी मिलती है।'पेरि हुप्सुस' पत्र के रूप में पोस्तुमिउस तेरेन्तियानुस नामक एक रोमी युवक को संबोधित है, जो लोंगिनुस का मित्र या शिष्य रहा होगा। वस्तुत: पुनर्जागरण युग में 16वीं सदी में जब पहली बार 'पेरीइप्सुस' कृति सामने आई तब यह मत प्रचलित हुआ कि लोंजाइनस शास्त्रवाद से प्रभावित, तीसरी सदी में पालचीरा की महारानी जे़नोविया के अत्यंत विश्वासपात्र यूनानी मंत्री थे। जिन्हें बाद में महारानी के लिए मृत्यु का वरण करना पडा़। 1928 में स्काट-जेम्स ने इस मत को पुन:स्थापित करते हुए उन्हें 'पहला स्वच्छंदतावादी आलोचक' कहा है। पश्चिम में लोंजाइनस से पूर्व काव्यशास्त्रीय चिंतन की एक सुदृढ़ परम्परा का विकास प्लेटो तथा अरस्तू से ही माना जाता है। लोंजाइनस ने इन दोनों की अवधारणाओं को आत्मसात् करके एक नए काव्यशास्त्रीय विचार प्रस्तुत किए। जहाँ प्लेटो के लिए साहित्य 'उत्तेजक', अरस्तू के लिए 'विरेचक' वहीं लोंजाइनस के लिए 'उदात्त' था। उनकी यह अवधारणा इतनी युगांतकारी सिध्द हुई कि आगे चलकर उसे शास्त्रवाद, स्वच्छंदतावाद, आधुनिकतावाद और यथार्थवाद से जोड़कर देखा गया। लोंजाइनस से पूर्व काव्य की महत्ता दो रूपों में मूल्यांकित की जाती थी- १) शिक्षा प्रदान करना २) आनंद प्रदान करना। 'एरिस्टोफेनिस' सुधारवाद का पक्षधर था, और 'होमर' मनोरंजन का। अत: साहित्य (काव्य और गध) दोनों का आधार था- "To instruct, to delight, to persuade" अर्थात् शिक्षा देना, आह्लादित करना और प्रोत्साहित करना उस समय तक काव्य में आलंकारिक, चमत्कारिक और आडम्बरपूर्ण भाषा-शैली को महत्व दिया गया था, भाव तत्व को नहीं लोंजाइनस ने इस ओर ध्यान केंद्रित किया। हैं
लोंजाइनस का उदात्त-तत्व
सम्पादनलोंजाइनस ने उदात्त तत्व की स्वतंत्र एवं व्यापक व्याख्या नहीं की है, उसे एक स्वत: स्पष्ट तथ्य मानकर छोड़ दिया है। उनका मत है कि उदात्तता साहित्य के सब गुणों में महान है; यह वह गुण है जो अन्य छोटी-मोटी त्रुटियों के बावजूद साहित्य को सच्चे अर्थों में प्रभावपूर्ण बना देता है। उदात्त को परिभाषित करते हुए लोंगिनुस कहते हैं- "अभिव्यक्ति की विशिष्टता और उत्कर्ष ही औदात्य है। ( Sublimity is always an eminence and excellence in language.)" या "उदात्त अभिव्यंजना का अनिर्वचनीय प्रकर्ष और वैशिष्ट्य है।" यही वह साधन है जिसकी सहायता से महान कवियों या इतिहासकारों ने ख्याति और कीर्ति अर्जित की है। उनका कहना है कि उदात्त का प्रभाव श्रोताओं के अनुनयन (मनोरंजन)(persuasion)में नहीं, बल्कि सम्मोहन (entrancement) में दृष्टिगोचर होता है। जो केवल हमारा मनोरंजन करता है, उसकी अपेक्षा वह निश्चय ही अधिक श्रेष्ठ है, जो हमें विस्मित कर सर्वदा और सर्वथा सम्मोहित कर लेता है। अनुनयन (मनोरंजन) हमारे अधिकार की चीज है, अर्थात् अनुनीत (मनोरंजीत) होना या न होना हमारे हाथ में है, किंतु उदात्त तो प्रत्येक श्रोता को अप्रतिरोध्य शक्ति (irresistible force) से प्रभावित कर अपने वश में कर लेता है। सर्जनात्मक कौशल और वस्तुविन्यास पूरी रचना में आधंत वर्तमान रहते हैं और क्रमश: शनै: शनै: पर उभरते हैं, किंतु बिजली की कौंध की तरह सही समय पर उदात्त की एक कौंध, पूरे विषय को उद्भासित कर देती है। वे कहते हैं कि कला में उदात्त किसी विशेष भाव या विचार के कारण नहीं, बल्कि अनेक विरूध्दों के सामंजस्य अथवा भावों के संघात से उत्पन्न होता है। लोंगिनुस उदात्त की उत्पति के लिए केवल प्रतिभा को ही पर्याप्त नहीं मानते, उसके साथ ज्ञान (व्युत्पति) को भी आवश्यक बताते हैं। तात्पर्य यह है कि उदात्त नैसर्गिक ही नहीं, उत्पाद्य भी है; प्रतिभा के अतिरिक्त ज्ञान और श्रम से भी उसकी सृष्टि संभव है।
उदात्त-तत्व के स्त्रोत
सम्पादनलोंजाइनस ने उदात्त तत्व के विवेचन में पाँच तत्वों को आवश्यक ठहराया है— (१) विचार की महत्ता (२) भाव की तीव्रता (३) अलंकार का समुचित प्रयोग (४) उत्कृष्ट भाषा (५) रचना की गरिमा। इनमें से प्रथम दो जन्मजात (अंतरंग पक्ष) तथा शेष तीन कलागत (बहिरंग पक्ष) के अन्तर्गत आते हैं। उन्होंने अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए उन तत्वों का भी उल्लेख किया है जो औदात्य के विरोधी हैं। इस प्रकार उनके उदात्त के स्वरूप-विवेचन के तीन पक्ष हो जाते हैं- १) अन्तरंग तत्व २ बहिरंग तत्व ३) विरोधी तत्व।
विचार की महत्ता
सम्पादनलोंजाइनस उदात्त के तत्वों में विचार की महत्ता का सबसे प्रमुख स्थान देते है। विचार की महत्ता तब तक संभव नहीं है, जब तक वक्ता या लेखक की आत्मा भी महान न हो, वे कहते है- "औदात्य महान आत्मा की प्रतिध्वनि" है। महान आत्मा का अर्थ, व्यक्ति के चरित्र, आचार, व्यवहार सभी महान हों। इसके लिए प्राचीन, श्रेष्ठ रचनाओं का ज्ञान आवश्यक है। उत्तम आदर्शों के अनुकरण से अनुकर्ता का पथ प्रशस्त तथा आलोकित होता है। अनुकरण बाहरी नकलमात्र नहीं है, बल्कि पूर्वजों की दिव्य भव्यता को अपने में समाहित करने का प्रयास है। वह उदात्त विचारों के लिए कल्पना और प्राचीन काव्यानुशीलन को आवश्यक मानते है। वह श्रेष्ठ रचना के लिए उसके विषय का विस्तारपूर्ण होना आवश्यक समझते हैं। उनका मत है कि विषय में ज्वालामुखी के समान असाधारण शक्ति और वेग होना चाहिए तथा ईश्वर का सा ऐश्वर्य और वैभव भी।
भाव की तीव्रता
सम्पादन'पेरिहुप्सुस' के विभिन्न प्रसंगों में लोंगिनुस के कथनों से ज्ञात होता है कि उदात्त के लिए वे भाव की तीव्रता या प्रबलता को आवश्यक मानते हैं। भाव की तीव्रता के कारण ही वे होमर के 'इलियट' को 'ओदिसी' से श्रेष्ठ बताते हैं। भाव की भव्यता में भाव की सत्यता भी अंतर्भूत है। इसलिए लोंगिनुस भाव के अतिरेक से बचने की राय देते हैं, जिससे भाव अविश्वसनीय (असत्य) न हो जाये। अविश्वसनीयता आह्लाद में बाधक बनाती है। ध्यान में रखने की दूसरी चीज, भाव का प्रयोग उचित स्थल पर होनी चाहिए। लोंगिनुस अपना अभिप्राय प्रस्तुत करते है- "मैं विश्वासपूर्वक कहना चाहता हूं कि उचित स्थल पर भव्य भाव के समावेश से बढ़कर उदात्त की सिध्दि का और कोई साधन नहीं है। वह (भाव) वक्ता के शब्दों में एक प्रकार का रमणीय उन्माद भर देता है और उसे दिव्य अंत:प्रेरणा से समुच्छ्वासित कर देता है।"
अलंकार का समुचित प्रयोग
सम्पादनलोंजाइनस ने अलंकार का सम्बन्ध मनोविज्ञान से जोडा़ और मनोवैज्ञानिक प्रभावों को व्यक्त करने के निमित्त ही अलंकारों को उपयोगी ठहराया। केवल चमत्कार-प्रदर्शन के लिए अलंकारों का प्रयोग उन्हें मान्य न था। वह अलंकार को तभी उपयोगी मानते थे जब वह जहाँ प्रयुक्त हुआ है, वहाँ अर्थ को उत्कर्ष प्रदान करे, लेखक के भावावेग से उत्पन्न हुआ हो, पाठक को आनन्द प्रदान करे, उसे केवल चमत्कृत न करे। भाव यदि अलंकार के अनुरूप नहीं है, तो कविता-कामिनी का श्रृंगार न कर उसका बोझ बन जाएगा। वे कहते है- 'प्रत्येक वाक्य में अलंकार की झंकार व्यर्थ का आडम्बर होगा।' इसलिए अलंकारों का प्रयोग वहीं होना चाहिए जहाँ आवश्यक हो और उचित हो। आगे वे कहते हैं कि भव्यता के आलोक में अलंकारों को उसी तरह छिप जाना चाहिए जैसे सूर्य के आगे आसपास के मध्दिम प्रकाश छिप जाते हैं।
उत्कृष्ट भाषा
सम्पादनउत्कृष्ट भाषा के अन्तर्गत लोंजाइनस ने शब्द-चयन और भाषा-सज्जा को लिया है। उन्होंने विचार और पद-विन्यास को एक-दूसरे के आश्रित माना है, अत: उदात्त विचार क्षुद्र या साधारण शब्दावली द्वारा अभिव्यक्त न होकर गरिमामयी भाषा में ही अभिव्यक्त हो सकते हैं। तुच्छ वस्तुओं की अभिव्यक्ति के लिए विशिष्ट शब्दावली वैसे ही अनुप्रयुक्त होती है जैसे किसी छोटे बच्चे के मुंह पर रखा विशाल मुखौटा। लोंजाइनस का मानना है कि सुंदर शब्द ही वास्तव में विचार को विशेष प्रकार का आलोक प्रदान करते हैं। यह तभी सम्भव है जब उचित स्थान, उचित प्रसंग में उचित शब्दों का प्रयोग हो।
रचना की गरिमा
सम्पादनउदात्त का पंचम स्त्रोत है- रचना की गरिमा। जिसका लक्षण है- उचित क्रम में शब्दों का विन्यास। वे कहते है जिस तरह अंग अलग-अलग रहकर शोभाजनक नहीं होते, अपने-अपने स्थान पर आनुपातिक रूप से जुड़कर ही वे सौंदर्य की सृष्टि करते हैं। यही स्थिति उदात्त के निष्पादक तत्वों की भी है। कैसे विचार के साथ कैसे भाव का मिश्रण उचित होगा; उसमें कौन-से अलंकार उपयुक्त होगे; किस तरह के पद, किस क्रम से विन्यस्त होकर अभिष्ट प्रभाव उत्पन्न करेंगे; इन बातों का ठीक-ठाक आकलन किये बिना रचना में गरिमा नहीं आ सकती। उनकी दृष्टि में रचना का प्राण-तत्व हैं सामजस्य, जो उदात्त शैली के लिए अनिवार्य है।
उदात्त के विरोधी तत्व
सम्पादनलोंजाइनस ने उदात्त शैली के विरोधी तत्वों की चर्चा भी उदात्त के तत्वों के साथ ही की है। वे कहते हैं कि रूचिहीन, वाक् स्फीति, भावाडम्बर, शब्दाडम्बर, आदि उदात्त-विरोधी हैं। लेखक अशक्तता और शुष्कता से बचने के प्रयास में शब्दाडंबर के शिकार हो जाते हैं। शब्दाडंबर उदात्त के अतिक्रमण की इच्छा से उत्पन्न होता है, किन्तु उदात्त का अतिक्रमण करने के बदले वह उसके प्रभाव को ही नष्ट कर देता है। बालिशता (बचकानापन) भव्यता का विलोम है। यह दोष तब आता है, जब लेखक रचना को असाधारण या आकर्षक या भड़कदार बनाना चाहता है, पर हाथ लगती है केवल कृत्रिमता और प्रदर्शनप्रियता। भावांडबर या मिथ्याभाव तीसरा दोष है। जहाँ भाव के बदले संयम की आवश्यकता है, वहां जब लेखक भाव की अमर्यादित अभिव्यक्ति में प्रवृत होता है तो भावाडंबर आ जाता है। अत: यह मानना पडे़गा कि उदात्त का विश्लेषण और समग्र विवेचन भारतीय काव्यशास्त्र में उतना नहीं जितना लोंजाइनस के 'पेरि इप्सुस' में। उसकी सबसे बडी़ देन यह है कि उसने दोषपूर्ण महान कृति को निर्दोंष साधारण कृति से ऊँचा माना है, क्योंकि महान कृति में ही दोषों की सम्भावना हो सकती हैं।
संदर्भ
सम्पादन१. पाश्चात्य काव्यशास्त्र---देवेन्द्रनाथ शर्मा। प्रकाशक--मयूर पेपरबैक्स, पंद्रहवां संस्करण: २०१६, पृष्ठ--८६-१२२
२. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--२१५-२१८
३. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--११८-१२२