प्रेमचंद:विशेष अध्ययन/सवा सेर गेहूं
प्रेमचंद
अमन कुमार पाण्डेय ]किसी गाँव में शङ्कर नाम का एक कुरमी किसान रहता था । सीधासादा गरीब आदमी था, अपने काम-से काम, न किसी के लेने में, न देने में। छक्का पंजा न जानता था, छल-प्रपंच की उसे छूत भी न लगी थी, ठगे जाने की चिन्ता न थी, ठग-विद्या न जानता था । भोजन मिला खा लिया, न मिला चबेने पर काट दी, चबेना भी न मिला, तो पानी पी लिया और राम का नाम लेकर सो रहा । किन्तु जब कोई अतिथि द्वार पर आ जाता था, तो उसे इस निवृत्ति-मार्ग का त्याग करना पड़ता था। विशेषकर, जब साधु-महात्मा पदार्पण करते थे, तो उसे अनिवार्यतः सासारिकता की शरण लेनी पड़ती थी। खुद भूखा सो सकता था पर साधु को कैसे भूखा सुलाता, भगवान् के भक्त ठहरे।
एक दिन सन्ध्या समय एक महात्मा ने आकर उसके द्वार पर डेरा जमाया। तेजस्वी मूर्ति थी, पीताम्बर गले में, जटा सिर पर, पीतल का कमंडल हाथ में, खड़ाऊँ पैर में, ऐनक आँखो पर, सम्पूर्ण वेष उन महात्माओं का-सा था, जो रईसों के प्रासादों में तपस्या, हवागाड़ियों पर देवस्थानों की परिक्रमा और योग-सिद्धि प्राप्त करने के लिए रुचिकर भोजन करते हैं | घर में जौ का आटा था, वह उन्हें कैसे खिलाता। प्राचीन काल में जौ का चाहे जो कुछ महत्व रहा हो, पर वर्तमान युग में जौ का भोजन सिद्ध पुरुषो के लिए टुष्पाच्य होता है। बड़ी चिन्ता हुई, महात्माजी को क्या खिलाऊँ । आखिर निश्चय किया कि कहीं से गेहूँ का श्राटा उधार लाऊँ, पर गांव-भर में गेहूँ का आटा न मिला । गाँव में सब मनुष्य-ही-मनुष्य थे, देवता एक भी न था, अतएव देवताओं का पदार्थ कैसे मिलता ! सौभाग्य से गाँव के विप्र महाराज के यहाँ से थोड़े-से मिल [ १२४ ] गये । उनसे सवा सेर गेहूँ उधार लिया और स्त्री से कहा कि पीस दे । महात्मा ने भोजन किया, लम्बी तानकर सोये । प्रातःकाल आशीर्वाद देकर अपनी राह ली।
विप्र महाराज साल में दो बार खलिहानी किया करते थे । शङ्कर ने दिल में कहा, सवा सेर गेहूँ इन्हें क्या लौटाऊँ, पंसेरी के बदले कुछ ज्यादा खलिहानी दे दूंँगा, यह भी समझ जायँगे, मैं भी समझ जाऊँगा। चैत में जब विप्रजी पहुँचे तो उन्हें डेढ पसेरी के लगभग गेहूँ दे दिया और अपने को उऋण समझकर उसकी कोई चरचा न की । विप्रजी ने फिर कभी न माँगा। सरल शङ्कर को क्या मालूम था कि यह सवा सेर गेहूँ चुकाने के लिए मुझे दूसरा जन्म लेना पड़ेगा।
सात साल गुजर गये । विप्रजी विप्र से महाजन हुए, शङ्कर किसान से मजूर हो गया । उसका छोटा भाई मंगल उससे अलग हो गया था। एक साथ रहकर दोनों किसान थे, अलग होकर मजूर हो गये थे । शङ्कर ने चाहा कि द्वेष की आग भड़कने न पाये, किन्तु परिस्थिति ने उसे विवश कर दिया । जिस दिन अलग-अलग चूल्हे जले, वह फूट फूटकर गया । आज से भाई-भाई शत्रु हो जायेंगे, एक रोयेगा तो दूसरा हँसेगा, एक के घर मातम होगा, तो दूसरे के घर गुलगुले पकेंगे । प्रेम का बन्धन, खून का बन्धन, दूध का बन्धन आज टूटा जाता है । उसने भगीरथ-परिश्रम से कुल-मर्यादा का वृक्ष लगाया था, उसे अपने रक्त से सींचा था, उसका जड़ से उखड़ना देखकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे । सात दिनों तक उमने दाने की सूरत तक न देखी । दिन-भर जेठ की धूप में काम करता और रात को मॅुह लपेट कर सो रहता । इस भीषण वेदना और दुस्सह कष्ट ने रक्त को जला दिया, मांस और मज्जा को घुला दिया । बीमार पड़ा तौ महीनों खाट से न उठा । अब गुजर-बसर कैसे हो? पाँच बीघे के श्राधे खेत रह गये, एक बैल रह गया, खेती क्या खाक[ १२५ ] होती ! अंत को यहाँ तक नौबत पहुँची कि खेती केवल मर्यादा रक्षा का साधन-मात्र रह गयी, जीविका का भार मबूरी पर आ पड़ा।
सात वर्ष बीत गये, एक दिन शंकर मजूरी करके लौटा, तो राह में विप्रजी ने टोककर कहा-शंकर, कल आके अपने बीज-बैंग का हिसाब कर ले । तेरे यहाँ साढ़े पाँच मन गेहूँ कबसे बाकी पड़े हुए हैं और तू देने का नाम नहीं लेता, हजम करने का मन है क्या ?
शंकर ने चकित होकर कहा-मैने तुमसे कब गेहूँ लिये थे जो साढ़े पाँच मन हो गये ? तुम भूलते हो, मेरे यहाँ किसी का न छटॉक-भर अनाज है, न एक पैसा उधार ।
विप्र-इस नीयत का तो यह फल भोग रहे हो कि खाने को नहीं जुड़ता।
यह कहकर विप्रजी ने उस सवा सेर गेहूँ का जिक्र किया, जो आज के ७ वर्ष पहले शंकर को दिये थे। शंकर सुनकर आवक् रह गया। ईश्वर ! मैने इन्हें कितनी बार खलिहानी दी, इन्होंने मेरा कौन-सा काम किया। जब पोथी-पत्रा देखने, साइत-सगुन विचारने द्वार पर आते थे, कुछ-न- कुछ 'दक्षिना' ले ही जाते थे । इतना स्वार्थ ! सवा सेर अनाज को अंडे की भाँति सेकर आज यह पिशाच खड़ा कर दिया, जो मुझे निगल जायगा । इतने दिनों में एक बार भी कह देते तो मै गेहूँ तौलकर दे देता, क्या इसी नीयत से चुप सीधे बैठे रहे ! बोला-महाराज, नाम लेकर तो मैने उतना अनाज नहीं दिया, पर कई बार खलिहानी में सेर-सेर दो-दो सेर दिया है । अब नाप आज साढ़े पाँच मन माँगते हैं, मै कहाँ से दूगा !
विप्र-लेखा जौ-जौ ! बखसीस सौ-सौ ! तुमने जो कुछ दिया होगा, उसका कोई हिसाब नहीं, चाहे एक की जगह चार पंसेरी दे दो। तुम्हारे[ १२६ ] नाम बही में साढ़े पाँच मन लिखा हुआ है, जिससे चाहे हिसाब लगवा लो। दे दो तो तुम्हारा नाम छेक दूंँ, नहीं तो और भी बढ़ता रहेगा।
शकर-पाँडे, क्यों एक गरीब को सताते हो, मेरे खाने का ठिकाना नही, इतना गेहूँ किमके घर से लाऊँगा ?
विप्र-जिस के घर से चाहो लाओ, मैं छटाँक-भर भी न छोड़ेगा, यहाँ न दोगे, भगवान् के घर तो दोगे ?
शकर काँप उठा । हम पढ़े-लिखे आदमी होते, तो कह देते, अच्छी बात है, ईश्वर के घर ही देगे, वहाँ की तौल यहाँ से कुछ बड़ी तो न होगी । कम-से-कम इसका कोई प्रमाण हमारे पास नहीं, फिर उसकी क्या चिन्ता । किन्तु शंकर इतना तार्किक, इतना व्यवहार चतुर न था । एक तो ऋण-वह भी ब्राह्मण का-बही में नाम रह गया तो सीधे नरक में जाऊँगा, इस खयाल ही से उसे रोमांच हो पाया । बोला-महाराज, तुम्हारा "जितना होगा यहीं दूंगा, ईश्वर के यहां क्यों दूं, इस जनम में तो ठोकर 'खा ही रहा है, उस जनम के लिए क्यों काँटे बोऊँ। मगर यह कोई नियाव नहीं है । तुमने राई का पर्वत बना दिया, ब्राह्मण होके तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था । उसी घड़ी तगादा करके ले लिया होता, तो आज मेरे 'सिर पर इतना बड़ा बोझ क्यों पड़ता! मै तो दे दूंगा, लेकिन तुम्हें भगवान् के यहाँ जवाब देना पड़ेगा।
विप्र-वहाँ का डर तुम्हें होगा, मुझे क्यो होने लगा । वहाँ तो सब 'अपने ही भाई-बंधु हैं। ऋषि-मुनि, सब तो ब्राह्मण ही हैं, देवता भी ब्राह्मण हैं, जो कुछ बने-बिगड़ेगी, सँभाल लेंगे। तो कब देते हो !
शंकर-मेरे पास रखा तो है नहीं, किसी से माँग-जाँचकर लाऊँगा तभी न दूंगा!
विप्र-मैं यह न माँनूगा । सात साल हो गये, अब एक दिन का भी मुलाहिजा न करूँगा । गैहूँ नहीं दे सकते, तो दस्तावेज लिख दो । [ १२७ ]शंकर -- मुझे तो देना है, चाहे गेहूँ लो, चाहे दास्तावेज लिखाओ, किस हिसाब से दाम रखोगे।
विप्र -- बाजार -भाव पाच सेर का है, तुम्हे सवा सेर का काट दूंगा।
शंकर -- जब दे ही रहा हूं तो बाजार -भाव काटूँगा , पावभर छुङा कर क्यों दोषी बनूँ।
हिसाब लगाया गया तो गेहूँ के दाम ६०) हुए। ६०) का दास्तावेज लिखा गया , ३०) सैकङे सूद । साल-भर में न देने पर सूद का दर २।।) सैकङे। ।।) का स्टाम्प , १) दास्तावेज की तहरीर शंकर को ऊपर से देनी पङी।
गाँव-भर ने विप्रजी की निन्दा की, लेकिन मुँह पर नहीं । महाजन से सभी का काम पङता है, उसके मुँह कौन आये।
( २ )
शंकर ने साल भर तक कठिन तपस्या की । मीयाद के पहले रूपया अदा करने का उसने ब्रत-सा कर लिया । दोपहर को पहले भी चूल्हा न जलता था , चबेने पर बसर होती थीं , अब वह भी बन्द हुआ , केवल लङके के लिए रात को रोटियाँ रख दी जाती । पैसे रोज का तंबाकू पी जाता था , यही एक ब्यसन था जिसका वह कभी त्याग न कर सका था । अब वह व्यसन भी इस कठिन ब्रत के भेंट हो गया । उसने चिलम पटक दी, हुक्का तोङ दिया और तम्बाकू की हाँङी चूर -चूर कर डाली । कपडे पहले भी त्याग की चरम सीमा तक पहुँच चुके थे, अब वह प्रकृति की न्यूनतम रेखाओं में आबध्द हो गये । शिशिर की अस्थि-बेघक शीत को उसने आग तापकर काट दिया । इस ध्रुव-संकल्प का फल आशा से बढकर निकला । साल के अन्त में उसके पास ६०) जमा हो गये। उसने समझा , पंडितजो को इतने रुपये दे दूँगा और कहूँगा , महाराज , बाकी रूपये भी जल्द ही आपके सामने हाजिर करूगा । १५) की तो और बात है, क्या [ १२८ ] पंडित जी इतना भी न मानेगे ? उसने रुपये लिये और ले जाकर पंडित जी के चरण-कमलो पर अर्पण कर दिये ।पंडितजी ने विसि्मत होकर पूछा -- किसी से उधार लिये क्या ?
शंकर-- नहीं महाराज , आपके असीस से अबकी मजूरी अच्छी मिली।
व्रिप्र -- लेकिन वह तो ६०) ही है।
शंकर -- हाँ , महाराज , इतने अभी ले लीजिए, बाकी मैं दो-तीन महिने में दे दूँगा, मुझे उरिन कर दीजिए।
विप्र -- उरिन तो जभी होगे जब मेरी कौडी़-कौडी़ चुका दोगे।जाकर मेरे १५) और लाओ।
शंकर -- महाराज , इतनी दया करो, अब साँझ की रोटियों का भी ठिकाना नहीं है, गाँव में हूँ तो कभी दे ही दूँगा।
विप्र -- मैं यह रोग नहीं पालता , न बहुत बातें करनी जानता हूँ। अगर मेरे पूरे रूपये न मिलेगे तो आज से ३।।) सैकडे का ब्याज लगेगा। अपने रूपये चाहे अपने घर में रखो, चाहे मेरे यहाँ छोड जाओ।
शंकर -- अच्छा, जितना लाया हूँ उतना रख लिजिए। मैं जाता हूँ, कही से १५) और लाने की फ़िक्र करता हूँ।
शंकर ने सारा गाँव छान मारा ,मगर किसी ने रूपये न थे, बलि्क इसलिए कि पंडितजी के शिकार को छोड़ने की किसी की हिम्मत न थी।
( ३ )
क्रिया के पश्चात प्रतिक्रिया नैसर्गिक नियम है। शंकर साल भर तक तपस्या करने पर भी जब ऋण से मुक्त होने में सफल न हो सका तो उसका संयम निराशा के रूप में परिणत हो गया। उसने समझ लिया कि जब इतना कष्ट सहने पर भी साल में ६०) से अधिक न जमा [ १२९ ] कर सका, तो अब और कौन-सा उपाय है जिसके द्वारा इसके दूने रुपये जमा हों। जब सिर पर ऋण का बोझ ही लदना है तो क्या मन-भर का और क्या सवा मन का । उसका उत्साह क्षीण हो गया, मिहनत से घृणा हो गयी। आशा उत्साह की जननी है, आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है। शंकर आशाहीन होकर उदासीन हो गया। वह जरूरतें, जिनको उसने साल भर तक टाल रखा था, अब द्वार पर खड़ी होनेवालो भिखारिणी न थीं, बल्कि छाती पर सवार होनेवाली पिशाचिनियाँ थीं, जो अपनी भेंट लिये बिना जान नहीं छोड़तीं। कपड़ों में चकत्तियों के लगने की भी एक सीमा होती है। अब शंकर को चिट्ठा मिलता तो वह रुपये जमा न करता, कभी कपड़े लाता, कभी खाने की कोई वस्तु । जहाँ पहले तमाखू ही पिया करता था, वहाँ अब गाँजे और चरस का चस्का भी लगा। उसे अब रुपये अदा करने की कोई चिन्ता न थी मानों उसके उपर किसी का एक पैसा भी नहीं आता । पहले जूड़ी चढ़ी होती थी, पर वह काम करने अवश्य जाता था, अब काम पर न जाने के लिए बहाना खोजा करता।
इस भाँति तीन वर्ष निकल गये । विप्रजी महाराज ने एक बार भी तकाजा न किया। वह चतुर शिकारी की भाँति अचूक निशाना लगाना चाहते थे। पहले से शिकार को चौंकाना उनकी नीति के विरुद्ध था।
एक दिन पंडितजी ने शंकर को बुलाकर हिसाब दिखाया। ६०) जो जमा थे वह मिनहा करने पर अब भी शंकर के जिम्मे १२०) निकले।
शंकर-इतने रुपये तो उसी जन्म में दूँगा, इस जन्म में नहीं हो सकते ।
विप्र-मैं इसी जन्म में लूँगा । मूल न सही, सूद तो देना ही पड़ेगा।
शंकर-एक बैल है, वह ले लीजिए; एक झोपड़ी है, वह ले लीजिए और मेरे पास रखा क्या है ?
९ [ १३० ]विप्र-मुझे बैल-बधिया लेकर क्या करना है । मुझे देने को तुम्हारे पास बहुत कुछ है।
शंकर-और क्या है महाराज ?
विप्र-कुछ नहीं है तो तुम तो हो । आखिर तुम भी कहीं मजूरी करने जाते ही हो, मुझे भी खेती के लिए मजूर रखना ही पड़ता है। सूद में तुम हमारे यहाँ काम किया करो, जब सुभीता हो मूल भी दे देना । सच तो यों है कि अब तुम किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकते जब तक मेरे रुपये नहीं चुका दो। तुम्हारे पास कोई जायदाद नहीं है, इतनी बड़ी गठरी मैं किस एतबार पर छोड़ दूं। कोन इसका जिम्मा लेगा कि तुम मुझे महीने-महीने सूद देते जाओगे और कहीं कमाकर जब तुम मुझे सूद भी नहीं दे सकते, तो मूल की कोन कहे ?
शंकर-महाराज, सूद में तो काम करूंगा और खाऊँगा क्या?
विप्र-तुम्हारी घरवाली है, लड़के हैं, क्या वे हाथ-पाँव कटाके बैठेंगे । रहा मैं, तुम्हें अाध सेर जौ रोज कलेवा के लिए दे दिया करूँगा। ओढ़ने को साल में एक कंबल पा जाओगे, एक मिरजई भी बनवा दिया कारूँगा, और क्या चाहिए। यह सच है कि और लोग तुम्हें ८) रोज देते हैं लेकिन मुझे ऐसी गरज नहीं है, मैं तो तुम्हें अपने रुपये भराने के लिए रखता हूँ।
शंकर ने कुछ देर तक गहरी चिन्ता में पड़े रहने के बाद कहा- महाराज, यह तो जन्म-भर की गुलामी हुई!
विप्र-गुलामी समझो, चाहे मजदूरी समझो । मैं अपने रूपये भराये बिना तुमको कभी न छोङूँगा। तुम भागोगे तो तुम्हारा लड़का भरेगा। हाँ, जब कोई न रहेगा तब की बात दूसरी है।
इस निर्णय की कहीं अपील न थी । मजूर की जमानत कौन करता ! कहीं शरण न थी, भागकर कहाँ जाता; दूसरे दिन से उसने विप्रजी के[ १३१ ] यहाँ काम करना शुरू कर दिया । सवा सेर गेहूँ की बदौलत उम्र-भर के लिए गुलामी की बेड़ी पैरों में डालनी पड़ी। उस अभागे को अब अगर किसी विचार से संतोष होता था तो यह था कि यह मेरे पूर्व जन्म का संस्कार है । स्त्री को वे काम करने पड़ते थे, जो उसने कभी न किये थे, बच्चे दानों को तरसते थे, लेकिन शंकर चुपचाप देखने के सिवा और कुछ न कर सकता था। गेहूँ के दाने किसी देवता के शाप की भाँति यावजीवन उसके सिर से न उतरे।
( ४ )
शंकर ने विप्रजी के यहाँ २० वर्ष तक गुलामी करने के बाद इस दुस्सार संसार से प्रस्थान किया । १२०) अभी तक उसके सिर पर सवार थे। पंडितजी ने उस गरीब को ईश्वर के दरबार में कष्ट देना उचित न समझा, इतने अन्यायी, इतने निर्दय न थे। उसके जवान बेटे की गरदन पकड़ी। आज तक वह विप्रजी के यहाँ काम करता है। उसका उद्धार कब होगा, होगा भी या नहीं, ईश्वर ही जाने ।
पाठक ! इस वृत्तांत को कपोल-कल्पित न समझिए । यह सत्य घटना हैं। ऐसे शंकरों और ऐसे विप्रों से दुनिया खाली नहीं है।
- स्रोत:- सवा सेर गेहूँ विकिस्रोत पर