भारतीय काव्यशास्त्र/काव्य दोष
काव्य दोष
सम्पादनयदि उत्तम काव्य के लिए गुणों का आवश्यक है तो वहां दोषाभाव का होना भी आवश्यक है। इसलिए संस्कृत के काव्य शास्त्रियों ने दोषों के अभाव को गुण माना है। दण्डी के अनुसार- महान् निदोषिता गुणा। आचार्य भरतमुनि गुण को दोष का उल्टा मानते है- विपर्यस्तो गुणा: काव्येषु कीर्तिता:। भरतमुनि की यह मान्यता चीरकाल तक मान्य रही, परिणामस्वरूप दण्डी तक में दोष का कोई स्पष्ट लक्षण देखने को नहीं मिलता है। प्राय: सभी आचार्य दोषों के अभाव को उत्तम काव्य के लिए आवश्यक मानते हैं। इसलिए भामह को काव्य में एक भी सदोष पद स्वीकार नहीं हैं-
विलक्षमणा हि काव्येन दु:सतनेव निन्धते।।
आचार्य मम्मट ने मुख्यार्थ के अपकर्ष को दोष कहा है। उदेश्य की प्रतीति का विघात होना ही मुख्यार्थ का अपकर्ष है। मुख्यार्थ का आशय है रस अतः रस का अपकर्ष ही काव्य दोष है। यह काव्य प्रकाशनि में कहा गया है- मुख्यार्थहतिदोषोरसश्य मुख्यस्तदाश्रयाद्वाच्य:। हिन्दी साहित्य के आचार्य मम्मट आदि के आधार पर ही काव्य दोषों का विवेचन किया है। केशवदास कविप्रिया में कहते है- दूषण सहित कवित्त से बचना चाहिए। चीन्तामणि कविकुलकलपतरू में शब्द और रस के विधातक तत्त्वों को दोष कहते हैं-
दीन कहत है ताकि कौ सुनै घटटु है हर्ष।।
कुलपति मिश्र के अनुसार रस निष्पति का बाधक तत्व ही दोष है-
सो दूषण तन मन विथा जो को हरि लेय।।
उपयुक्त विवेचन के तर्ज पर हम कह सकते हैं कि हिन्दी के आचार्यों की दोष विषयक मन्यता संस्कृति काव्यशास्त्रों उपजीवि हैं। इन हिन्दी के आचार्यों ने मुख्यात् के बाधक तत्त्वों के रूप में काव्य दोषों को स्वीकार किया हैं।
दोष- भेदों की संख्या भरत के समय में केवल दस थी, और मम्मट तक पहुंचते-पहुंचते यह संख्या सत्तर तक पहुंच गयी। इन दोनों आचार्यों के बीच भामह, दण्डी, वामन, आनन्दवर्धन, महिमभट्ट और भोजराज ने विभिन्न दोषों का निरूपण किया। इन्हें तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता हैं, शब्द दोष, अर्थ दोष और रस दोष।
शब्द दोष
सम्पादनशब्द दोष के अन्तर्गत पद, शब्द वाक्य, दोष आते हैं। इसके अन्तर्गत श्रुतिकटुत्व, च्युतसंस्कृति, असलिलितत्व, क्लिष्टता आदि आते हैं।
- श्रुतिकटुत्व काव्य में कानों को अप्रिय लगने वाले तथा कठोर शब्द की रचना श्रुतिकटुत्व कहलाती है। जैसे- सिद्ध्यर्थ गए सिध्दार्थकुमार। इसमें सिध्दान्त में श्रुतिकटुत्व हैं जिसमें मुख्यार्थ बाधित होता है।
- च्युतसंस्कृति च्युतसंस्कृति अर्थात् संस्कृति से चुक जाना अर्थात् जहां किसी पद का प्रयोग व्याकरण के प्रतिकुल होना। जैसे- इस निरशता को छोड़ो, आशा से काम लो। यहां निराशा के स्थान पर निरशता का प्रयोग, व्याकरण की दृष्टि से अशुध्द है।
- क्लिष्टता जहां पर ऐसे शब्दों का प्रयोग हो जिसका अर्थ बड़ी कठिनाई से प्रतित हो वहां क्लिष्टतत्व दोष होता है। जैसे- अहि-रीपु- पति-तीय-सदन है। मूख्य तैरो रमनिय।। यहां अहि- रीपु, पति, तीय, सदन का अर्थ है कमल जो बड़ी कठिनाई से जाना जाता है। अतः क्लिष्टतत्व दोष है।
अर्थ दोष
सम्पादनअर्थ दोष के अन्तर्गत ग्रामयत्व, दुष्क्रम, पुनरूक्ति आदि दोष आते हैं।
- ग्रामतत्व साहित्यिक रचना में ग्रामिण बोलचाल की शब्दों का प्रयोग होने पर ग्रामतत्व दोष हो जाता है। जैसे- मुड़ पर मुकुट धरे शोहत गोपाल है। यहां पर मुड़ शब्द में ग्रामतत्व दोष है क्योंकि मुड़ शब्द ग्राम में सिर के लिए प्रयोग होता है।
- दुष्क्रम जहां पर शास्त्र अथवा लोक के विरूध्द क्रम होता है। वहां पर दुष्क्रमतत्व दोष होता है। जैसे- नृप! मोकों हय दीजिए अथवा मत्त गजेन्द्र। किन्तु लोक में क्रम यों होता है कि पहले हाथी मांगना, न मिलने पर, फिर घोड़ा मांगना चाहिए।
- पुनरूक्ति जहां एक शब्द यह वाक्य द्वारा किसी अर्थ विशेष की प्रतिति हो जाने के बाद भी उसी अर्थ वाले शब्द या वाक्य का दोबारा प्रयोग किया जाये वहां पुनरूक्ति दोष होता है। जैसे- सब कोउ जानत तुम्हें सारे जगत जहान। यहां पर जहान शब्द संसार के अर्थ में दोबारा प्रयोग किया गया है। अत: पुनुरूक्ति दोष है।
शब्द और अर्थ दोष अनित होता है। जबकि रस दोष नित होता है। जैसे- प्रेमास्या में ज्ञानशंकर के बर्बर चरित्र के सामने प्रेम शंकर की उपेक्षा करना रस दोष के अन्तर्गत आता है।
संदर्भ
सम्पादन१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१२८-१३०