भारतीय काव्यशास्त्र
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रस के अंग(अवयव)

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रसनिष्पति के सम्बन्ध में भरत का प्रख्यात सिध्दांत विभावानुभाव व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पति:। अर्थात् विभाव, अनुभाव, और व्यभिचारिभाव के संयोग से रस की निष्पति होती है। इस कथन का तात्पर्य यह है कि सहदयों का स्थायिभाव जब विभाव, अनुभाव और संचारिभाव का संयोग प्राप्त कर लेता है तो रस रूप में निष्पन्न हो जाता है। इन चारों को रस के अंग कहते हैं। इनका स्वरूप इस प्रकार हैं-

स्थायीभाव

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सहृदय के अन्त:करण में जो मनोविकार वासना रूप से सदा विद्यमान रहते हैं तथा जिन्हें अन्य कोई भी अविरूध्द अथवा विरूध्द भाव दबा नहीं सकता, उन्हें स्थायीभाव कहते हैं। यही स्थायीभाव ही (रस-रूप) आस्वाद को अंकुरकन्द अर्थात् मूलभूत है। स्थायिभावों की संख्या सामान्यतः नौ मानी जाती है- रति, हास, शोक, उत्साह, क्रोध, भय, जुगुप्सा, विस्मय और निर्वेद। ये क्रमश: रसों के रूप में निष्पन्न होते हैं- श्रृंगार, हास्य, करूण, वीर, रौद्र, भयानक, वीभत्स, अद्भुत और शान्त। इनके अतिरिक्त एक अन्य रस वत्सल भी माना जाता है जिसका स्थायीभाव 'वात्सल्य' है। रस का स्थायिभाव के साथ सम्बन्ध सहदयों के अन्त:करण में रति आदि स्थायिभाव वासना रूप से सदा उस प्रकार विद्यमान रहते हैं जिस प्रकार मिट्टि में गन्ध। जिस प्रकार मिट्टि में पूर्व विधमान गन्ध जल का संयोग पाकर प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार स्थायीभाव भी विभाव, अनुभाव और व्यभिचारिभाव के संयोग से व्यक्त होने पर 'रस' नाम से पुकारे जाते हैं।

रस के कारण को विभाव कहते हैं अर्थात् विभाव का अर्थ है कारण। लोक में जो पदार्थ सामाजिक के हृदय में वासनारूप में स्थित रति, उत्साह, शोक इत्यादि भावों को उद्बोधित करने के कारण हैं, वे काव्य-नाटकादि में वर्णित होने पर विभाव कहलाते हैं। विभाव के दो भेद हैं- आलम्बनविभाव और उद्दीपनविभाव।

आलम्बनविभाव आलम्बन या विषय तो वह है जिसके प्रति हदय में भाव जागरित होते हैं और आश्रय वह है जिसके हृदय में किसी के प्रति भाव जागरित होते हैं। उदाहरण के लिए कृष्ण और गोपियों के किसी प्रसंग को लें, यदि कृष्ण के लिए गोपियों में बेचैनी है, या कोई अन्य भाव है, तो यहां कृष्ण आलम्बन हैं, गोपियां आश्रय हैं। यही दोनों मिलकर आलम्बन-विभाव हैं क्योंकि दोनों सामाजिक (सहदय) के स्थायीभावों को रसास्वाद तक पहुंचाने वाले कारण हैं।

उद्दीपन उद्दीपन विभाव वे कहलाते हैं जो रस को उद्दीप्त करते हैं। अर्थात् जो स्थायीभावों को उद्दीप्त करके उनकी आस्वादन क्षमता बढ़ाते हैं और उन स्थायीभावों को रसावस्था तक पहुंचाने में सहायक होते हैं। उद्दीपन विभाव दो प्रकार के माने गये हैं- १) आलम्बनगत बाह्य चेष्टाएं २) बाह्य वातावरण। उदाहरणार्थ- १) श्रृंगार रस में दुष्यन्त (आश्रय) के रतिभाव को अधिक तीव्र करने वाली शकुन्तला (आलम्बन) कटाक्ष, भुजा-विक्षेप आदि चेष्टाएं, रौद्र रस में परशुराम के क्रोध को उद्दीप्त करने वाली लक्ष्मण की व्यंग्योक्तियां आदि आलम्बन-गत बाह्य चेष्टाएं उद्दीपन-विभाव कहलाती है। २) श्रृंगार रस में नदी-तट, पुष्पवाटिका, चांदनी रात आदि, भयानक रस में घना वन हिंसक पशुओं की आवाजें, आधे मार्ग में ही रात्रि पड़ जाना, आदि बाह्य वातावरण जो कि आश्रय के स्थायीभावों का उद्दीप्त करता है, उद्दीपन विभाव कहलाता है।

अनुभाव

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स्थायीभावों को प्रकाशित करने वाली आश्रय की बाह्य चेष्टाएं 'अनुभाव' कहलाती हैं। अनु का अर्थ है, पिछे, अर्थात् जो स्थायीभावों के पीछे (बाद में) उत्पन्न होते हैं वे अनुभाव हैं। अथवा अनुभावयन्ति इति अनुभाव अर्थात् जो उत्पन्न स्थायीभावों का अनुभव कराते हैं, वे अनुभाव हैं। स्पष्ट है कि उक्त चेष्टाएं दुष्यन्त अथवा परशुराम में क्रमश: रति तथा क्रोध स्थायिभावों के उद्बुध्द होने के बाद उत्पन्न हुई हैं, अथवा इन्हीं चेष्टाओं से हम अनुभव कर पाते हैं कि उक्त दोनों आश्रयों में क्रमश: रति तथा क्रोध जाग्रत हो गए हैं, अतः ये अनुभाव कहाती हैं। अनुभाव चार माने गये हैं - १) आंगिक - आर्थात् शरीर सम्बन्धी चेष्टाएं। २) वाचिक - अर्थात् वाग्व्यापार। ३) आहार्य - अर्थात् वेश-भूषा, अलंकरण, साजसज्जा आदि। ४) सात्त्विक - अर्थात् सत्व के योग से उत्पन्न कायिक चेष्टाएं।इनका निर्वहण स्वत: ही, बिना यत्न के आश्रय द्वारा हो जाता है। अतः इस वर्ग में आने वाली आश्रय की सभी चेष्टाएं 'अयत्नज' कहलाती हैं। सात्त्विक अनुभाव आठ माने गये हैं- स्तम्भ, स्वेद, रोमांच, स्वरभंग, वेपथु, वैवणर्य, अश्रु और प्रलय।

संचारिभाव (व्यभिचारीभाव)

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संचारी का अर्थ है साथ-साथ चलना और संचरणशील होना। संचारी-भाव स्थायीभावों के सहकारी कारण हैं, यही उन्हें रसावस्था तक ले जाते हैं और स्वयं बीच में ही लुप्त हो जाते हैं। संचारीभाव अस्थिर मनोविकार या चित्तवृत्तियां हैं। ये आश्रय और आलम्बन के मन में उठते और मिटते हैं। अतः अस्थिर मनोविकार या चित्रवृतियां 'संचारीभाव' कहलाती हैं। यों संचारीभाव अनगिनत हैं, फिर भी सुविधा की दृष्टि से इनकी संख्या ३३ मानी गई है- निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूया, मद, श्रम, आलस्य, दीनता, चिंता, मोह, स्मृति, धृति, व्रीड़ा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जड़ता, गर्व,अवमर्ष ,अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, त्रास, वितर्क।

निष्कर्ष- लौकिक कारणादि काव्य-नाटक में विभावादि नामों से अभिहित होते हैं। विभावादि सहदय के स्थायिभाव का संयोग पाकर जब इसे चवर्यमाण स्थिति तक पहुंचा देते हैं, तो यही स्थायिभाव 'रस' नाम से पुकारा जाता है।

संदर्भ

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१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--५०-५३

२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--३०-३३