भारतीय काव्यशास्त्र/वक्रोक्ति सिद्धांत

भारतीय काव्यशास्त्र
 ← ध्वनि के भेद वक्रोक्ति सिद्धांत वक्रोक्ति की अवधारणा → 

वक्रोक्ति सिध्दांत सम्पादन

वक्रोक्ति शब्द 'वक्र' और 'उक्ति'- दो शब्दों से मिलकर बना है। वक्र का अर्थ है- टेढ़ा, बांका। उक्ति= कथन। अर्थात् सीधे सादे सरल ढंग से पृथक असहज, विचित्र और टेढ़ेपन की उक्ति(बात) को वक्रोक्ति कहते हैं। वक्रोक्ति सिध्दांत के प्रवर्त्तक का श्रेय कुन्तक को है, यधपि अतिरिक्त अलंकार, रीति, रस और ध्वनि ये प्रमुख काव्य-तत्व भी सम्यक् रूप से प्रतिपादित हो चुका था, किन्तु ने अपने वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए 'वक्रोक्तिजीवितम्' में काव्य का प्राण (आत्मा) तत्व की घोषणा की। कुन्तक के उपरान्त इस सिध्दान्त का अनुकरण और न ही खण्डन ही हुआ। विश्वनाथ ने खण्डन अवश्य किया, वह अशास्त्रीय एवं असंगत है।

  • भामह वक्रोक्ति को व्यापक अर्थ में ग्रहण करते हुए इसे अतिशयोक्ति का पर्याय मानते हैं और सब अलंकारों का अनिवार्य तत्व घोषित करते हैं। इसी से ही अर्थ चमत्कृत हो उठता है। उनके अनुसार इसके बिना रचना यथार्थ काव्य न होकर कथन- समुदाय- मात्र अथवा वार्ता- मात्र रह जाती है।
  • दण्डी ने समस्त वाड्मय को प्रमुख दो भागों - स्वभावोक्ति और वक्रोक्ति में विभाजित किया, तथा स्वभावोक्ति को छोड़कर उपमा आदि शेष सभी अलंकारों को वक्रोक्ति का पर्याय माना है।
  • वामन ने वक्रोक्ति को एक अर्थालंकार मात्र माना, जिसका लक्षण है- सादृश्याल्लक्षणा वक्रोक्ति अर्थात् सादृश्य पर आधारित ( गौणी) लक्षणा वक्रोक्ति अलंकार कहलाता है। वामन की यह धारणा किसी भी रूप में स्वीकृत नहीं हुई।
  • रूद्रट ने वक्रोक्ति को एक शब्दालंकार मात्र स्वीकार करते हुए इसके प्रचलित दो भेदों का उल्लेख किया : काकु वक्रोक्ति और सभंग वक्रोक्ति और आनन्दवर्धन ने इसे वाच्यालंकार ( अर्थालंकार) मात्र स्वीकार किया।
  • भोजराज ने वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ ग्रहण करते हुए 'व्रक वचन' को काव्य कहा, और समस्त वाड्मय को तीन प्रकारों में विभाजित किया : वक्रोक्ति, रसोक्ति और स्वभावोक्ति।

इनके उपरान्त मम्मट और विश्वनाथ ने वक्रोक्ति को एक शब्दालंकार और रूपयक , विधानाथ, अप्पय्यदीक्षित ने एक अर्थालंकार मात्र माना।

  • कुन्तकने भामह और दण्डी के समान वक्रोक्ति का व्यापक अर्थ लिया।उन्होंने 'वक्रोक्ति काव्यजीवितम् में लिखा है-
"उभावेतावलंकार्यौ त्यों: पुनरलंकृति:।
वक्रोक्तिरेव वैदग्ध्यभंगी- भणितिरूच्यते।।"'

उनके अनुसार वक्रोक्ति कहते हैं-वैदग्ध- भंगी भणिति को, अर्थात् कविकर्मकौशल से उत्पन्न वैचित्र्यपूर्ण कथन को। दूसरे शब्दों में, जो काव्य-तत्व किसी कथन में लोकोत्तर चमत्कार उत्पन्न कर दे, उसका नाम वक्रोक्ति है। इसका तात्पर्य यह है कि लोकवार्ता, से, यों कहिए लौकिक सामान्य वचन से, विशिष्ट कथन 'वक्रोक्ति के अन्तर्गत आता है। उन्होंने वक्रोक्ति को एक ओर तो 'काव्य का अपूर्व अलंकार कहा और दूसरी ओर इसे 'विचित्रा अभिधा'('ध्वनि') की संज्ञा प्रदान की। इससे प्रतीत होता है कि वह अलंकार और ध्वनि से प्रभावित होते हुए भी वक्रोक्ति को इन दोनों तत्त्वों की भांति व्यापक रूप में प्रतिपादित करना चाहते थे। वस्तुत: ध्वनि के बहुसंख्यक भेदोपभेदों को वक्रोक्ति के कलेकर में समाविष्ट करने के उद्देश्य से ही इन्होंने इस सिध्दान्त का प्रतिष्ठापन किया।

कुन्तक-सम्मत वक्रोक्ति के छः प्रमुख भेद हैं- १) वर्णविन्यासवक्रता २) पदपूर्वार्धवक्रता ३) पदपरार्धवक्रता ४) वाक्यवक्रता ५) प्रकरणवक्रता ६) प्रबन्धवक्रता।

संदर्भ सम्पादन

१. भारतीय तथा पाश्चात्य काव्यशास्त्र---डाँ. सत्यदेव चौधरी, डाँ. शन्तिस्वरूप गुप्त। अशोक प्रकाशन, नवीन संस्करण-२०१८, पृष्ठ--१३४-१३६

२. भारतीय एवं पाश्चात्य काव्यशास्त्र की पहचान---प्रो. हरिमोहन । वाणी प्रकाशन, प्रथम संस्करण-२०१३,पृष्ठ--८४-८६