भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)/काव्य-रूप
काव्य-रूप
दृश्यकाव्य (रूपक) एवं उपरूपक
सम्पादनदृश्यकाव्य स्वरूप - इन्द्रियों के बाह्य उपकरण के आधार पर भारतीय आचार्यों ने मुख्य रूप से दो भेद किए हैं - दृश्य काव्य और श्रव्य काव्य । आचार्यों ने श्रवणोन्द्रिय ( कान ) द्वारा सुनकर जिस काव्य से आनन्द प्राप्त किया जाता है , उसे श्रव्य - काव्य कहा है। कविता , कहानी , उपन्यास , निबंध आदि इसी के अंतर्गत आते हैं ।
जिस काव्य या साहित्य को आँखों से देखकर , प्रत्यक्ष दृश्यों का अवलोकन कर रस भाव की अनुभूति की जाती है , उसे दृश्य - काव्य कहा जाता है । इस आधार पर दृश्य - काव्य की अवस्थिति मंच और मंचीय होती हैं ।
दृश्य काव्य के भेद- दृश्य काव्य के दो भेद हैं , 1-रूपक 2-उपरूपक।
1-रूपक
रूप के आरोप होने के कारण इसे रूपक कहते हैं। रूपक के दस भेद है - नाटक , प्रकरण , भाण, व्ययोग , समवकार , डिम, इहामृग, अंक , वीथि , प्रहसन। रूपक के इन भेदों में से नाटक भी एक है । लेकिन सामान्य व्यवहार में रूपक और नाटक को पर्याय समझा जाता है , भारतीय काव्यशास्त्र के आदि ग्रंथ नाट्यशास्त्र में भी रूपक के लिए नाटक शब्द प्रयोग हुआ है।
2-उपरूपक-
आचार्य भामह ने काव्य के स्वरूप भेद का आधार छंद को बनाया है । उन्होंने वृत्त अथवा छंदबद्ध काव्यों को 'पद्यकाव्य' कहा है और वृत्त मुक्त या छंदमुक्त काव्यों का गद्यकाल
आचार्य दण्डी ने पद्यकाव्य और गद्य काव्य भेदों के अतिरिक्त एक तीसरे प्रकार के काव्य की कल्पना की है जो पद्य और गद्य दोनों के मिश्रण से निर्मित होता है । और ऐसे काव्य को उन्होंने मिश्र काव्य का नाम दिया ।
आचार्य वामन ने पद्यकाव्य की अपेक्षा गद्य में लिखित काव्य को अधिक महत्त्व दिया और गद्य को ही सच्चे कवि का मानदण्ड माना है । बंध या उस पर आधारित स्वरूप - भेद को दृष्टि में रखते हुए काव्यभेदों का स्थूल - वर्णन करने के साथ ही अलंकारवादी एवं रीतिवादी आचार्यों ने उसके अवान्तर भेदों की भी कल्पना की ।
उन्होंने काव्य के तीन भेद बताए - ( 1 ) पद्य काव्य ( 2 ) गद्य काव्य और ( 3 ) मिश्र काव्य में विभाजित किया और उसके बाद पद्य काव्य को सर्गबंध , मुक्तक , कुलक , संघातक , कोषादि आदि भेद किए । गद्य काव्य को कथा , आख्यायिका , चम्पू तथा मिश्रकाव्य के नाटक प्रकरण , भाण आदि भेद किए ।
ध्वनिवादियों ने काव्य के उपर्युक्त भेदों को स्वीकार नहीं किया । उन्होंने ध्वनि तत्व को सर्वस्व माना और उसी को आधार बनाकर उन्होंने काव्य - भेद भी किए ।
अलंकारवादियों तथा रीतिवादियों ने रचना के बाह्य - विधान एवं सौंदर्य पर अधिक बल दिया था , इसलिए उनके भेद निरूपण के उपर्युक्त दृष्टिकोण को महत्त्वहीन नहीं कहा जा सकता , परन्तु ध्वनिवादियों ने बाह्य -निरूपण के स्थान पर अंत : सौंदर्य का महत्त्व दिया । इसलिए ध्वनिवादियों का भेद निरूपक स्वरूप - विधान की दृष्टि से न होकर गुणात्मक है।
ध्वनिवादियों में आचार्य अभिनव गुप्त ही इस परंपरा को भंग करते हैं- उन्होंने ' ध्वान्यालोकलोचन ' के तृतीया स्रोत में अनेक भेदों की गणना की है जिनमें प्रसिद्ध है- ( 1 ) संस्कृत - प्राकृत - अपभ्रंश में निबद्ध ( मुक्तक ) ,( 2 ) सदानितक , ( 3 ) विशेषक , ( 4 ) कलापक , ( 5 ) कुलक ( 6 ) पर्यायबंध , ( 7 ) परिकथा , ( 8 ) खण्डकथा , ( 9 ) सकल तथा ( 10 ) सर्गबंध ( 11 ) अभिनेयार्थ ( 12 ) आख्यायिका , ( 13 ) कथा , एवं ( 14 ) चम्पू । उन्होंने इन भेदों के संबंध में अपने विचार भी अभिव्यक्त किए।
श्रव्यकाव्य (पद्य, गद्य, चन्द्र, प्रबंध एवं मुक्तक)
सम्पादनश्रव्य काव्य उन्हें कहते हैं । जिन्हें ' रंगमंच ' पर अभिनीत नहीं किया जा सकता और जिनका आनन्द कानों द्वारा सुनकर और आँखों द्वारा पढ़कर लिया जा सकता था । वैसे भी उस युग में प्रेस नहीं था। किसी भी रचना की सीमित हस्तलिखित प्रतियाँ होती थी । इसलिए सुनकर ही लोग उन्हें अपने मस्तिष्क में रखते थे ।
आचार्य विश्वनाथ ने श्रव्य काव्य की विशेषताओं के आधार पर उसे तीन भेदों में विभाजित किया - ( 1 ) गद्य काव्य ( 2 ) पद्य काव्य ( 3 ) मिश्रकाष्य अथवा चम्पू काव्या गद्य के स्वरूप विश्लेषण के आधार पर चार भेदों में विभाजित किया- ( 1 ) मुक्तक ( 2 ) वृतगान्धि ( 3 ) उत्कालिका प्रायः और ( 4 ) चूर्णक ।
आज गद्य और पद्य में मौलिक अन्तर को विद्वानों द्वारा स्वीकार कर लिया गया है । परन्तु आज का गद्यकाव्य - पद्यकाव्य ( कविता ) के निकट पहुँचा रहा है और आज की नई कविता तो गद्य के समकक्ष ही होती जा रही है । गद्य के विभाजन के लिए भी आचार्य विश्वनाथ ने उसकी विशेषताओं के आधार पर दो भेदों में विभक्त किया - कथा और आख्यायिका ।
अभिनव - गुप्त ने विश्वनाथ से पूर्व ही गद्य को कथा तथा आख्यायिका के अतिरिक्त परिकथा , खण्डकथा और सकलकथा में विभजित किया था । परन्तु विश्वनाथ ने तीनों का अभाव दो में ही कर दिया । कथा ' की वस्तु को उन्होंने अत्यन्त सरल एवं पूर्वत : काल्पनिक माना और आख्यायिका के विषय को ऐतिहासिक तथा रचनाकार के जीवन से एक सीमा तक संबद्ध बताया । आज गद्य काव्य तथा गद्य साहित्य के इतने अधिक नए भेद हो गए हैं कि उन्हें विश्वनाथ के भेद निरूपण में समाहित नहीं किया जा सकता ।
पद्यकाव्य को आचार्य विश्वनाथ ने तीन भागों में विभाजित किया - प्रबंध काव्य , मुक्तक काव्य एवं कोष । प्रबंध काव्य के भी दो भेद किए गए हैं महाकाव्य और खंडकाव्य के भी दो भेद किए गए हैं - महाकाव्य और खंडकाव्य । मुक्तक के पांच भेद बताए गए हैं - मुक्तक , युग्मक , संदानितक , कलापक एवं कुलक । मुक्तक अन्योन्याश्रय संबंध निरपेक्ष होता है । इसमें एक केन्द्रीय भाव होता है। मिश्र काव्य को परिभाषित करते हुए आचार्य विश्वनाथ ने कहा कि गध - पद्य का मिश्रित रूप , ही चम्पूकाव्य कहा जाता है । चम्पू काव्य के उन्होंने दो भेद बताए हैं - विसद और करम्मक।
वर्तमान युग में पहुंचकर उपर्युक्त काव्य भेद निरूपण पर दृष्टि डालते हैं तो उसमें किसी प्रकार के तथ्य दिखाई नहीं देते । आज काव्य से सीधा तात्पर्य ' कविता ' से लिया जाता है । आज संस्कृत के काव्य शब्द के स्थान पर साहित्य शब्द का प्रयोग किया जाता है दृश्य - श्रव्य का अंतर भी समाप्त हो चुका है । रेडियो नाटक न पद्य है , न दृश्य है , मूलतः श्रव्य है । इन अनेक परिवर्तनों को देखकर वर्तमान आचार्यों ने नवीन ढ़ंग से भेद निरूपण की आवश्यकता अनुभव की ।
स्वर्गीय डॉ . गुलाबराय ने दृश्य और श्रव्य में काव्य को विभाजित करते हुए दृश्य काव्य के अन्तर्गत नाटक , आदि दशरूपक को स्थान दिया । श्रव्य साहित्य को गद्य , पद्य तथा चम्पू नाम से अभिहित कियां पद्य को प्रबंध और मुक्तक में विभाजित किया और प्रबंध के उन्होंने दो भेद महाकाव्य तथा खण्ड काव्य माने एवं मुक्तक के भी पाट्य तथा पुगीत नामक दो भेद किए ।
श्रव्य काव्य और महाकाव्य
सम्पादनकाव्य के स्थूल रूप से दो भेद किए जाते हैं - दृश्यकाव्य और श्रव्यकाव्य दृश्य काव्य में नाटक ( रूपक ) और उपरूपक आदि आते हैं । जिनका आनन्द देखकर लिया जाता है । श्रव्य - काव्य के अंतर्गत ऐसे काव्य आदि आते हैं । जिनका आनन्द कानों से सुनकर किया जाता है । उसके पश्चात् आचार्यों ने श्रव्य काव्य को पद्य और गद्य तथा मिश्रकाव्य ( चम्यू ) में विभाजित किया और पद्य काव्य को प्रबंध काव्य के तीन भेद किए - महाकाव्य और खण्ड कावय और एकार्थक काव्य।
महाकाव्य महाकाव्य भारतीय साहित्य की अत्यन्त प्राचीन विधा है । इसीलिए महाकाव्य के स्वरूप निर्धारण की दिशा में विस्तृत चिंतन का परिचय मिलता है । महाकाव्य के स्वरूप निर्धारण के प्रसंग में सर्वप्रथम आचार्य भामह आते हैं ।
भामह - महाकाव्य के लक्षण निम्नोक्त में प्रस्तुत किए -
1- महाकाव्य सर्गबद्ध होता है , कलवेर में बड़ा होता है ।
2- महाकाव्य का कथानक पाँच नाट्य - संधियों में विभक्त होता है ।
3- यह महान चरित्रो से सम्बद्ध रहता है । इसके कथानक का नायक सत्पुरुष होता है । इसमें नायक का उत्कर्ष दिखाया जाता है । नायक का वध नहीं किया जाता ।
4- महाकाव्य ऋद्धिमत होता है , अर्थात् इसमें राजसीय अतुल वैभव तथा विलासपूर्ण सामग्री का वर्णन किया जाता है । इसमें राजदरबार विषयक , मंत्रणा , दूत - भेजना , सैन्य अभियान , युद्ध आदि का वर्णन रहता है ।
5- यद्यपि इसमें धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ( चर्तुवर्ग ) का प्रतिपादन किया जाता है , फिर भी प्रधानता अर्थ निरूपण को दी जाती है । यह लोक - स्वभाव अर्थात् लौकिक आचार - व्यवहार का निरूपक होता है ।
6- इसकी भाषा आलंकारिक होती है , शिष्ट तथा गौरवपूर्ण अर्थ से संपन्न होती है । इसकी वर्णन - शैली सरल , सुबोध होती है ।
7. इसमें सभी रसों का समावेश होता है ।
आचार्य दण्डी- भामह प्रतिपादित उक्त लक्षणों का आधार ग्रहण करते हुए कुछ नए तत्वों के अनुसार काव्य के निम्न लक्षणों का प्रतिपादन किया -
1- महाकाव्य सर्गवद्ध होता है और जो बहुत बड़े नहीं होने चाहिए । उसके आरंभ में आशीर्वाद अथवा कथावस्तु का निर्देश होना चाहिए ।
2- महाकाव्य की कथावस्तु या कथानक ऐतिहासिक अथवा किसी सत्पुरुष के जीवन पर आधारित होनी चाहिए । कथानक पाँच नाट्य - संधियों में विभक्त है । इसमें नायक उत्कर्ष दिखाया जाता है ।
3. महाकाव्य में नगर , समुद्र , पर्वत , ऋतु , चन्द्रोदय , सूर्योदय , उद्यान , जलक्रीडा , मधुपान रस शृंगार रस ) , विप्रलंभ शृंगार , विवाह , पुत्रोत्पत्ति का आलंकारिक वर्णन होना चाहिए ।
4- इसके कथानक में विरह , प्रेम , विवाह , युद्ध - अभियान , मंत्रणाओं , दूतों तथा नायक की विजय संबंधी प्रसंगों का वर्णन होना चाहिए ।
आचार्य रुद्रट आचार्य रुद्रट ने महाकाव्य के लक्षण में बहुविध नूतन सामग्री का समावेश कर इसे व्यवस्थित रूप दिया । इनके अनुसार महाकाव्य के लक्षण इस प्रकार हैं-
1- प्रबंध काव्य दो प्रकार का होता है - उत्पाद्य अर्थात कवि -कल्पना पर आधारित और अनुत्पाद्य अर्थात इतिहास- प्रसिद्ध कथा पर आधारित । ये दोनों भी दो - दो प्रकार के होते हैं लघु और महान काव्या लघु जैसे मेघदूत आदि महान जैसे शिशुपाल वध
2- महाकाव्य सर्गबद्ध होना चाहिए । नाटकीय पंच संधियों का निर्वाह होना चाहिए ।
3. श्रेष्ठ नगरी का वर्णन होना चाहिए । उस नगरी के नायक के वंश की प्रशंसा होनी चाहिए ।
महाकाव्य के उपयुक्त लक्षणों का संबंध महाकाव्य के अंतरंग और बहिरंग दोनों से संबंध है । इसी आधार और महाकाव्य के अंतरंग और बहिरंग लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं।
प्रबंध काव्य और खण्डकाव्य
सम्पादनभारतीय काव्यशास्त्र में सबसे पहले रुद्रट ने प्रबंध - काव्य के दो रूपों का उल्लेख किया - महान एवं लघु। लघुकाव्य के स्वरूप का निरूपण करते हुए उन्होंने कहा कि इसमें चतुवर्ग ( धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष ) फल में से कोई एक हो तथा किसी एक रस का पूर्ण रूप से या अनेक रसों का अपूर्ण रूप से वर्णन होना चाहिए।
आचार्य विश्वनाथ को खंड - काव्य नाम और उसकी निश्चित कल्पना का श्रेय दिया जाता है। उन्होंने भाषा अथवा विभाषा में रचित , सर्गबद्ध , समस्त संधियों से रहित एक कथा के निरूपक संक्षे पद्यबद्ध रचना को काव्य की संज्ञा से अभिहित किया और उसके ' एक - देश ' के अनुसरण करने वाली रचना को ' खण्ड - काव्य ' कहा।
हिंदी - साहित्य के अनेक विद्वानों ने भी खण्ड - काव्य को परिभाषा में बांधने का प्रयत्न किया हैं।उनके मंतव्यों को भी जान लेना अनुचित न होगा। बाबू गुलावराय ने अपनी रचना ' काव्य के रूप में' खण्डकाव्य के लक्षण के संबंध में लिखा है - ' खण्ड - काव्य में एक ही घटना को मुख्यता दी जाती है उसमे जीवन के किसी एक पहलू की झांकी - सी मिल जाती है। डॉ . भगीरथ मित्र ने भी 'हिंदी काव्य - शास्त्र का इतिहास ' खण्डकाव्य को परिभाषित करते हुए लिखा है- " खण्डकाव्य वह प्रबंध काव्य है। जिसमें किसी भी पुरुष जीवन का कोई अंश ही वर्णित होता है , पूरी जीवन गाथा नहीं। इसमें महाकाव्य के सभी अंग न रहकर एकाध अंग ही रहते हैं।
निष्कर्ष
सम्पादननिष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि ' एक देशानुसारिता ' ही खण्ड - काव्य की परिभाषा हो सकती है। कारण - खण्ड - काव्य में जीवन के एक ही अंश , पहलू या खंड को ही एक व्यापक अनुभूति बनाकर काव्यमय भाषा परिवेश में छंदोबद्ध किया जाता है। प्रबंधात्मकता या महाकाव्य के संदर्भ में अन्य तत्वों का विशेष सापेक्ष महत्त्व रहते हुए भी खण्ड - काव्य में एकागिता अनिवार्य है। रही उद्देश्य एवं संदेश की बात तो खण्ड - काव्य हो या महाकाव्य दोनों में कोई भेदक रेखा नहीं खींची जा सकती है।