भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)/शब्द- शक्ति

भारतीय काव्यशास्त्र (दिवि)
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शब्दशक्ति

परिभाषा- पास्परिक विचार - विमर्श का सर्वाधिक सरलतम साधन भाषा है । भाषा के द्वारा ही मनुष्य अपने विचारों का आदान - प्रदान करता है पर सार्थक शब्दों के उचित प्रयोग में ही भाषा अपना कार्य पूरा करती है । अत : भाषा की इकाई के रूप में शब्द का महत्त्वपूर्ण स्थान है । एक शब्द किसी एक वस्तु का बोध कराने की शक्ति रखता है तो दूसरा शब्द किसी दूसरी वस्तु का वस्तु - विशेष का ज्ञान कराने की शक्ति शब्द में विद्यमान रहती है । किन्तु शब्द में यह शक्ति उसके वाक्य में प्रयुक्त होने पर ही आती है । कहा गया है कि पदसमूहों वाक्य - अर्थ समाहतौ अर्थात अर्थ - संयत पदों का समूह ही वाक्य है । वाक्य में प्रयुक्त होने वाले सार्थक शब्द पद कहलाते हैं ।

शब्द में अर्थ सूचित करने की क्षमता को ही शब्द - शक्ति कहा जाता है । शब्दशक्ति में शब्द के ऐसे व्यापार पर विचार किया जाता है , जो शब्दार्थ बोध में सहायक होता है । इस प्रकार जिस शक्ति के द्वारा शब्द में अन्तनिहित अर्थ को स्पष्ट करने अथवा ग्रहण करने में सहायता मिलती है उस माध्यम को शब्द शक्ति कहते हैं।

शब्द के भेद शब्द के तीन भेद होते हैं - वाचक , लक्षक , और व्यंजक । इन्हीं पर आधारित अर्थ भी तीन प्रकार का होता है - वाच्यार्य , लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ ।

जो शब्द प्रत्यक्ष रूप से संकेतिक अर्थ को प्रकट करते हैं , उन्हें वाचक शब्द कहते हैं और उनके अर्थ को वाच्यार्थ या अभिधेयार्थ कहते है ।

वाचक शब्दों के चार भेद होते हैं जातिवाचक , गुणवाचक , क्रियावाचक और द्रव्य वाचक । जो शब्द स्ववाच्य समस्त जाति का बोध कराता है , उसे जातिवाचक कहते हैं । जो शब्द विशेषण का कार्य करता है उसे गुणवाचक कहते हैं । जो शब्द क्रिया को निमित्त मानकर प्रवृत्त होते हैं , वे क्रियावाचक कहलाते है और जिनसे केवल एक ही व्यक्ति या वस्तु का बोध होता है , उन्हें द्रव्यवाचक शब्द कहते हैं ।

शब्द- शक्ति का भेद सम्पादन

प्रत्येक आचार्यों ने शब्द शक्ति के प्रति अपना अपना मत व्यक्त किया है। और अधिकांश आचार्य शब्द शक्ति के तीन ही भेद मानते हैं - अभिधा , लक्षणा और व्यंजना अंत यहाँ पर इन तीनों का ही विवेचन करता करना उपयुक्त है।

अभिधा शब्दशक्ति सम्पादन

जिस शब्द शक्ति से संकेतित या मुख्य अर्थ का बोध होता है , उसे अभिधा शब्द शक्ति कहते हैं ।

तत्र संकेतितार्थस्य बोधनादग्रिमाभिधा।

अभिधा शब्द शक्ति से संकेतित अर्थ किन आधारों से ग्रहण किया जाता है , इस पर आचार्यों ने विस्तार से विचार किया है । यह आधार निम्नलिखित है-

1. व्याकरण - व्याकरण के द्वारा प्रतिपादित प्रकृति - प्रत्यय के द्वारा अर्थ का सहज ही बोध हो जाता है । जैसे - लोहार , लुहारिन आदि ।

2. उपमान - उपमान का अर्थ है , समानता । यदि किसी को यह ज्ञान है कि भीम बहुत खाता था तो इस समानता के आधार पर यह इस वाक्य का ' राम भीम के समान खाता है ' तुरंत यह अर्थ समझ जायेगा कि राम बहुत खाने वाला है ।

3. कोश - कोश से भी अभिधा शब्दशक्ति द्वारा व्यक्त संकेतित अर्थ का बोध होता है । यथा - ' देवासुर संग्राम में निर्जरों ने विजय पाई इस वाक्य में प्रयुक्त ' निर्जर ' शब्द का अर्थ ' देवता ' कोश से ही निकलता है , क्योंकि अमरकोश में देवता का एक पर्यायवाची ' निर्जर ' भी है ।

4. आप्तवाक्य - आप्त का अर्थ है प्रामाणिक या लोक - प्रसिद्ध । जैसे- यदि किसी बालक को बता दिया जाये कि यह राम का चित्र है तो यह राम की प्रतिकृति का संकेत उस चित्र में समझ लेता है ।

5. व्यवहार - व्यवहार ही वस्तुओं और उनके वाचक का संबंध जानने के लिए प्रमुख तथा व्यापक कारण है । जैसे - यदि किसी मनुष्य को गाय लाने के लिए कहा जाये और यह गाय ले आये तो उसे देखकर बालक को भी यह ज्ञान हो जाता है कि इस प्रकार के प्राणी को गाय कहते हैं ।

6. प्रसिद्ध पद का सानिध्य - प्रसिद्ध पद या शब्द के साथ प्रयुक्त होने से भी किसी शब्द के संकेतित अर्थ का बोध होता है।

7. वाक्यशेष - ज्ञात वाले पद की सहायता से अज्ञात पद का अर्थ भी ज्ञात हो जाता है । जैसे - यदि किसी को उमापति का अर्थ ज्ञात है तो वह अज्ञात ' उमापति पद का अर्थ निकाल लेगा ।

8. विवृत्ति - विवृत्ति का अर्थ है विवरण , टीका या व्याख्या । किसी शब्द की व्याख्या करने से भी उसका अर्थ ज्ञात हो जाता है । जैसे - ' नीलकमल ' की यदि यह व्याख्या की जाये कि ' गीले कमल के समान नेत्रों वाला ' तो श्रोता तुरन्त इसका अर्थ ( कृष्ण ) समझ जायेगा । ये ही आठ कारण आचार्यों ने बताये है जिनके द्वारा संकेतित या मुख्य अर्थ का बोध होता है।

लक्षणा शब्दशक्ति सम्पादन

मुख्यार्थ का बोध होने पर रूढि प्रयोजन के द्वारा मुख्य अर्थ से संबंध रखने वाला अन्य अर्थ जिस शब्द शक्ति से लक्षित होता है , उसे लक्षणा शब्द शक्ति कहते हैं। लक्षणा शब्द शक्ति के इस लक्षण का विश्लेषण करने पर लक्षणा के तीन अंग मिलते हैं।

लक्षणा के भेद - रूढ़ि और प्रयोजन की दृष्टि से लक्षणा के दो भेद होते है- १.रूढि लक्षणा , प्रयोजनवती लक्षणा।

१- रूढ़ि लक्षणा - जिस लक्षणा में रूढि के कारण मुख्यार्थ को छोड़कर उससे संबंध रखने वाला लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है , उसे रूढि लक्षणा कहते हैं । यथा -

'
डिगत पानि डिगुलात गिरि , लखि सब ब्रज बेहाल। कॉपि किसोरी दरस ते , खरे लजाने लाल

यह वर्णन उस समय का है , जब ब्रज वासियों की रक्षा के लिए कृष्ण ने गोवर्धन पर्वत को उठाया था।उस समय ब्रज के जिन लोगों ने उस पर्वत के नीचे आश्रय लिया था ,उनमें राधा भी थी राधा को देखकर प्रेम के कारण कृष्ण के शरीर में कंपन सात्विक भाव उत्पन्न हुआ। जिसके कारण उनका हाथ कांपने लगा था।

२. प्रयोजनवती लक्षणा - जहाँ मुख्यार्थ का बोध होने पर किसी विशेष प्रयोजन के कारण में मुख्यार्थ से संबंध रखने वाले लक्ष्यार्थ का बोध होता है , वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है । यथा -

उदित उदयगिरि - मंच पर , रघुवर बाल - पतंग। बिगसे संत - सरोज सब , हरषे लोचन - भृंग।।

इस दोहे में समय का वर्णन किया गया है , जब जनकपुरी में धनुष यज्ञ के अवसर पर राम धनुष को भंग करने के लिए अपने स्थान से उठे । अर्थ है - उदयाचल रूपी मंच पर से सूर्य रूपी राम उदित हुए, जिन्हें देखकर कमल रूपी संत खिल उठे और भौरं रूपी नेत्र हर्षित हो गए। यहा भगवान राम को बाल पतंग (प्रातः कालीन सूर्य) कहने में मुख्यार्थ का बोध है । अंतः इसका लक्ष्यार्थ है- भगवान राम की प्रभा (प्रातः कालीन सूर्य) की प्रभा के समान प्रेरणा देने वाली और चमकने वाली है। यहाँ प्रयोजनवती लक्षणा हैं।

व्यंजना शब्दशक्ति सम्पादन

व्यंजना शब्दशक्ति अभिधा और लक्षणा शब्दशक्तियाँ जब अपने - अपने अर्थों का बोध कराके शांत हो जाती है, तब जिस शब्दशक्ति से व्यंग्यार्थ का बोध होता है, उसे व्यंजना शब्दशक्ति कहते हैं।

विरतास्वभिधाद्यासु यमाऽर्थों बोध्यते परः।
सा वृत्तिव्यंजनाना शब्दस्यर्थादिकस्य च।

व्यंग्यार्थ को ध्वन्यार्थ , सूच्यार्थ , आक्षेपार्थ और प्रतीयमानार्थ भी कहते हैं , क्योंकि यह वाच्यार्थ की भांति न तो कथित होता है और न लक्ष्यार्थ की भाँति लक्षित होता है , यह व्यंजित , ध्वनित , सूचित , आक्षिप्त या प्रतीत होता है।

व्यंजना के भेद व्यंजना के दो भेद होते हैं - १-शाब्दी व्यंजना और २- आर्थी व्यंजना

१.- शाब्दी व्यंजना - जहाँ व्यंग्यार्थ किसी विशेष शब्द के आधार पर अवलम्बित हो , अर्थात् उस व्यंजक के स्थान पर उसका समानार्थक शब्द रख देने से व्यंग्यार्थ की प्रतीति न हो तो उसे शाब्दी व्यंजना कहते हैं । शब्दी व्यंजना के दो भेद होते हैं - अभिधामूला शाब्दी व्यंजना और लक्षणामूला शाब्दी व्यंजना

२.- आर्थी व्यंजना- वक्त् , बोधव्य , काकु , वाच्य , वाक्य , अन्यसन्निधि , प्रस्ताव , देश , काल , और चेष्टा के वैशिष्ट्य से जिस शब्द - शक्ति द्वारा व्यंग्यार्थ की प्रतीति होती है, उसे आर्थी व्यंजना कहते हैं। यथा -

किती न गोकुल कुल - बधू , काहि न किहि सिख दीन ।
कौने तजी न कुल गली , है मुरली - सुर लीन।

मुरली की ध्वनि सुनकर श्रीकृष्ण के पास जाकर लौटी हुई किसी गोपी का अपनी सखी के प्रति यह कथन है। इसमें तीन बातें हैं - ' किती न गोकुल कुल बधू- गोकुल में कितनी कुलंगनाये नहीं है, अर्थात् गोकुल में सभी कुलाँगनायें है। ' काहि न किहि सिख दीन ' - किसने किसको शिक्षा नहीं दी अर्थात् सभी ने सभी को शिक्षा दी है कि कुल - लाज को छोड़कर कृष्णा की मुरली की ध्वनि सुनकर उनके पास दौड़ जाना कुलांगनाओं को शोभा नहीं देता । ' कौने तजी न कुल - गली ' - किसने कुल की मर्यादा नहीं छोड़ी अर्थात सभी ने कुल की मर्यादा छोड़ दी है । इस प्रकार काकुवैशिष्ट्य के द्वारा इस दोहे का यह अर्थ निकलता है कि तू जो अब मुझे उपदेश दे रही है, क्या कभी मुरली की मनोहर ध्वनि को सुनकर और मेरी - जैसी दशा को प्राप्त करके ऐसी अनेक शिक्षाओं के मिलने पर भी तू भी तो अपनी कुल - मर्यादा को छोड़कर कृष्ण के पास पहूँच जाया करती थी।