भारतीय साहित्य/अपभ्रंश साहित्य
: भारतीय आर्यभाषा के मध्ययुग में जो अनेक प्रादेशिक भाषाएँ विकसित हुई उनका सामान्य नाम प्राकृत है और उन भाषाओं
अपभ्रंश भाषा
अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ ‘भ्रष्ट भाषा’ या ‘बिगड़ी हुई भाषा’ है कालक्रम की दृष्टि से अपभ्रंश भाषा का काल 500 ई• – 1000 ई• तक है यह मध्यकालीन आर्य भाषा की अंतिम अवस्था थी। पतंजलि, हेमचंद्र, दंडी आदि भाषा शास्त्री की परिभाषाओं के अनुसार जिस भाषा के शब्द संस्कृत के मानक शब्दों से विकृत हो उसे ही ‘भ्रष्ट भाषा’ या ‘अपभ्रंश’ कहा जाता है तथाकथित असंस्कृत विदेशी जातियां, गुर्जर, अमीर, जाट आदि जो पश्चिम भारत में बस गई थी उनकी भाषा को अपभ्रंश भाषा समझा जाता था धीरे-धीरे उन पर शौरसेनी प्राकृत का गहरा प्रभाव पड़ा जिससे अपभ्रंश भाषा का विस्तार हुआ और यह राजभाषा ही नहीं साहित्यिक भाषा और देश की भाषा भी बन गई। 7वीं सदी से 11वीं सदी के मध्य यह साहित्यिक भाषा के रूप में आसीन रही।
अपभ्रंश साहित्य
अपभ्रंश भाषा मूलतः पश्चिम भारत की बोली से विकसित एक साहित्यिक भाषा थी जो पश्चिम भारत में प्रचलित और लोकप्रिय होकर पूरे उत्तर भारत की साहित्यिक भाषा बन गई। इस काल के कई रचनाएं हमें देखने को मिलती है जैसे:- स्वयंभू, पुष्पदंत, धनपाल, हेमचंद्र आदि की परिनिष्ठित अपभ्रंश रचनाएं एवं दूसरी ओर सरहपा, कण्हपा आदि बौद्ध सिद्धों की रचनाएं।
आधुनिक भाषा के निर्माण में अपभ्रंश की बहुत बड़ी भूमिका थी। जैसे:- शौरसेनी अपभ्रंश से पश्चिमी हिंदी, राजस्थानी और गुजराती भाषा की उत्पत्ति हुई। महाराष्ट्री से मराठी भाषा, अर्धमागधी से पूर्वी हिंदी की भाषा, मागधी अपभ्रंश से भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला, उड़िया। असमिया की पैशाची अपभ्रंश से पंजाबी, लहंदा तथा ब्राचड़ अपभ्रंश से सिंधी भाषा की उत्पत्ति हुई।
इन छः अपभ्रंश भाषा से भारत की आधुनिक भाषाओं की उत्पत्ति हुई। विद्यापति जी ने अपनी रचना अवहट्ट भाषा से किया यह अवहट्ट एक अपभ्रंश भाषा ही थी। आदिकालीन साहित्य का अपभ्रंश से संबंध है।
हिंदी साहित्य काल का आदि काल में हुए रचनाएँ अपभ्रंश भाषा में ही हुई। इस समय के रचनाओं में जैन धर्म और बौद्ध धर्म के प्रभाव में रचनाएं हुई। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में कहते हैं कि- “जब प्राकृत बोलचाल की भाषा नहीं रही तभी से अपभ्रंश का आविर्भाव हुआ समझ लेना चाहिए।”
अर्थात संस्कृत का लौकिक रूप के बाद प्राकृत रूप से अलग एक नई भाषा आई और प्राकृत भाषा का उपयोग बोलचाल भाषा में नहीं रहा तब जो नई भाषा की शुरुआत हुई वह अपभ्रंश कहलाया। पहले ‘गाथा’ और ‘गाहा’ कहने से प्राकृत का बोध होता था एवं बाद में ‘दोहा’ या ‘दुहा’ कहने से अपभ्रंश या लोक प्रचलित काव्यभाषा का बोध होने लगा।
प्राकृत से बिगड़ कर जो रूप बोलचाल की भाषा में ग्रहण किया वही आगे चलकर काव्य रचना में भी प्रयोग होने लगा। प्राकृत से बिगड़ा हुआ रूप जो लोगों ने बोलचाल की भाषा में ग्रहण किया वह अपभ्रष्ट रूप बाद में बहुत ही सामर्थ रूप बन गई कि उसमें साहित्य रचना का एक युग आ गया।
जब अपभ्रंश भाषा बोल चाल की भाषा थी तब तक वह भाषा देशभाषा कहलाती थी लेकिन जब वह साहित्य की भाषा हो गई तब उसे अपभ्रंश भाषा कहा जाने लगा।
अपभ्रंश भाषा की विशेषताएं
(1) स्वर:-
ह्रस्व स्वर- अ, इ, उ, ए, ओ
दीर्घ स्वर- आ, ई, ऊ, ए, ओ (ऐ व औ का पाली में लोप)
(2) ‘ॠ’ का प्रयोग नहीं मिलता है, उच्चारण ‘रि’ तत्सम का प्रयोग चलता रहा। रूपांतरण अ, इ, उ, ए। जैसे:- कृष्ण – कण्ह, मृत्यु – मितु, ॠण – रिण।
(3) उकार बहुलता:- भाषा में उकार की बहुलता मिलती है जैसे:- मन – मनु, चल – चलु, अंग – अंगु
(4) अनुनासिकता:-
अनुनासिकता के संबंध में तीन तरह की प्रवृतियाँ हैं:-
कहीं-कहीं स्वरों के अनुनासिक रूप विकसित। जैसे:- चलहि -चलहिं, पक्षी – पंखि
कुछ अनुनासिक शब्द अनुनासिकता रहित। जैसे:- सिंह – सीह, विंशति – वीस
अकारण अनुनासिक। जैसे:- अक्षु -अंसु, वक्र – वंक
(5) स्वर भक्ति:- प्रदेश – परदेश, क्रिया – किरिया
(6) स्वर्ग लोप:- अरण्य – रण, लज्जा – लाज
(7) व्यंजनमाला:- व्यंजनमाला में ङ, ञ, न,श, ष का अभाव। ‘ट’ वर्ग प्रधान भाषा
(8) अंत्य व्यंजन लुप्त भाषा:- जगत – जग, महान – महा
(9) संयुक्त व्यंजन समाप्त:- य, र, ल, व समाप्त। जैसे:- चक्र – चक्क, धर्म – धम्म, कर्म – कम्म
(10) तत्सम, तद्भव, देशज-विदेशज सभी प्रकार के शब्द मिलते हैं तद्भव की संख्या सर्वाधिक है तुर्कों के आगमन से विदेशी शब्दों के प्रयोग होने लगे
(11) दो ही वचन:- एकवचन और बहुवचन। द्विवचन शब्द लुप्त हो गए इसके लिए ‘दुई’ शब्द का प्रयोग हुआ। जैसे:- दुई – धनु
अंततः यह भाषा अपनी पृथक भाषायी पहचान के साथ-साथ समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक अनुभवओं को व्यक्त करती है।
अपभ्रंश के लेखक कवि एवं रचनाएं ।
स्वयंभू- 783 ईस्वी के आस-पास के कवि (कर्नाटक के निवासी) अपभ्रंश का प्रथम कवि एवं जैन परंपरा का प्रथम कवि और डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार हिंदी के प्रथम कवि माना है इसे अपभ्रंश का वाल्मीकि और अपभ्रंश का व्यास की संज्ञा दिया गया है। डॉ भयाणी ने स्वयंभू को अपभ्रंश का कालिदास माना है। इनकी प्रमुख रचनाएं:-
पउम चरिउ (पदम चरित्र) – अपभ्रंश का आदि काव्य की संज्ञा दी जाती है। यह रामचरित काव्य है इसमें 1200 श्लोक, पांच कांड और 83 संधियां हैं। पउम चरिउ को उसके पुत्र त्रिभुवन ने पूरा किया था।
रिठनेमी चरिउ – कृष्ण चरित काव्य
स्वयंभू छंद
पुष्पदंत- ये पहले शैव थे परंतु बाद में जैन धर्म अपना लिया। इन्होंने स्वयं को अभिमान मेरु की उपाधि दिए थे एवं काव्यकुलतिलक, काव्यरत्नाकर की संज्ञा खुद को दिए थे। शिव सिंह सेंगर और डॉ भयाणी ने इसे “अपभ्रंश का भावभूति” कहा। शिव सिंह सेंगर ने “भाषा की जड़” की उपाधि दी थी। इनकी रचनाएं:-
तिरसठी महापुरिस गुणालंकार – इसे महापुराण भी कहा जाता है। इसमें कृष्ण कथा का वर्णन मिलता है। इसमें 63 महापुरुषों का जीवन चरित्र का वर्णन है।
णयकुमार चरिउ (नाग चरित)
जसहर चरिउ (यशोधरा चरित)
धनपाल- इसी राजा मुंज ने “सरस्वती” की उपाधि दी थी। इसकी प्रमुख रचना ‘भविष्यतकहा’ है इसमें एक साधारण वणिक पुत्र को नायकत्व प्रदान किया गया है। यह एक लौकिक काव्य है। लोक कथा के माध्यम से बहुविवाह के दुष्परिणाम और साध्वी और कुल्टा स्त्रियों में अंतर का वर्णन किया है।
चतुर्मुख- हरिषेण ने अपनी रचना धर्मपरीक्खा में अपभ्रंश के तीन प्रमुख कवियों का वर्णन किया है:- स्वयंभू, पुष्पदंत और चतुर्मुख। ये पद धड़िया बंध के कवि थे।
देव सेन- इसकी प्रमुख रचना “श्रावकाचार” है। जो 935 ईस्वी में लिखी गई। इसमें 250 दोहे थे। इसमें श्रावक धर्म के नियमों का संकलन किया गया था।
जिनदत्तसूरि- यह अपभ्रंश के प्रथम रास कवि हैं इसकी प्रमुख रचना ‘उपदेशरसायन रास’ है। तथा यह प्रथम रास काव्य है। जिसका विषय नृत्य गीत और रासलीला है।
जोएंदु- अपभ्रंश में दोहा काव्य की शुरूआत इन्होंने किया था इन की प्रमुख रचना ‘परमात्मा प्रकाश’ और ‘योग सागर’ है।
मुनिराम सिंह- यह जैन परंपरा के सबसे रहस्यवादी कवि थे इन्होंने ‘पाहुड़दोहा’ की रचना की।
हेमचंद- गुजरात के सोलंकी राजा सिद्धराज जयसिंह एवं उनके भतीजे कुमारपाल के दरबारी कवि थे। इन्होंने व्याकरण ग्रंथ की रचना की। इनकी प्रसिद्ध रचना ‘शब्दानुशासन’ (व्याकरण रचना) है। इसमें प्राकृत, अपभ्रंश, संस्कृत तीनों भाषाओं का उल्लेख किया गया है। इसे प्राकृत का पाणिनी भी कहा जाता है। इनकी अन्य प्रमुख रचनाएं हैं:- कुमारपाल चरित, छन्दोनुशासन, प्राकृत व्याकरण, देसी नाममाला कोष और योगशास्त्र है।
सोमप्रभसूरि- इसकी प्रमुख रचना ‘कुमारपाल प्रतिबोध’ है इसे गद्य और पद्य दोनों में रचा गया है। इसमें संस्कृत और प्राकृत दोनों में रचना की गई है। बीच-बीच में संस्कृत के दोहे और अपभ्रंश के दोहे हैं।
जैनाचार्य मेरुतुंग- इसने ‘प्रबंध चिंतामणि’ की रचना की। यह रचना संस्कृत में रची गई है। इनकी रचनाओं में बीच-बीच में अपभ्रंश के पद्य देखने को मिलते हैं।
लक्ष्मीधर- इसकी रचना ‘प्राकृत पैंगलम’ है। इसमें शारंगधर, विद्याधर,जज्जल बब्बर आदि तत्कालीन कवियों की रचनाओं का संकलन देखने को मिलता है। इसी पुस्तक को प्राकृत पिंगलसूत्र भी कहा जाता है।
शारंगधर- इसकी प्रमुख रचना ‘शारंगधर पद्धति’ है। यह संस्कृत की रचना है जिसके बीच-बीच में प्राकृत का मिश्रण किया गया है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार- ‘हम्मीर रासो’ के रचियता शारंगधर हैं। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार- ‘हम्मीर रासो’ के रचियता जज्जल है।
नल्लसिंह- इसकी रचना ‘विजयपालरासो’ है।
विद्यापति- इसने ‘कीर्तिलता’ और ‘कीर्तिपताका’ की रचना की।
अब्दुलरहमान (अद॒दहमान)- ‘संदेशरासक’ इन्हीं के द्वारा लिखी गई रचना है। यह अपभ्रंश भाषा की प्रथम श्रृंगार रचना और पहला धर्मेत्तर रास काव्य है। इसमें विक्रमपुर की वियोगिनी की विरह कथा का वर्णन किया गया है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार यह पहले मुसलमान हिंदी कवि हैं।