भारतीय साहित्य/कन्नड़ साहित्य

कन्नड़ साहित्य

कन्नड़ भी अपने उद्भव और विकास में तमिल मलयालम के निकट है। कन्नड़ भाषा के अन्य नाम कर्नाटकी, कन्नड़ी, कनारी, कनाडी, केवरा, कर्णाट, कर्णाटकी आदि भी है। कर्नाट, कर्नाटक, कर्णाटक, कन्नड आदि शब्द बहुत पहले से मिलते हैं। महाभारत (कर्णाटकाश्च सभा पर्व 78, 94), गुणाढ्य की पैशाची 'बृहत्कथा' (ईस्वी सन् के आरंभ के आस-पास), तथा बाराहमिहिर (सी) आदि में ये नाम किसी-न-किसी रूप में प्रयुक्त हुए है। कन्नड़ भाषियों को तमिल काव्य 'शिलप्पटिकारम्' (दूसरी सदी) में करुनाडर कहा गया है। इस देश तथा इसकी भाषा के लिए प्रयुक्त सभी नाम एक-दूसरे से संबद्ध है। अब देश को कर्नाटक तथा भाषा को कन्नड़ या कन्नड कहते हैं। इनकी व्युत्पत्ति के संबंध में विवाद है। डॉ. गुडर्ट तथा कुछ अन्य लोगों के अनुसार मूल शब्द 'कर' (या काली मिट्टी का 'नाडु' (देश) था करनाडु ही कन्नड़ और 'कर्नाट' या 'कर्नाटक' बना दूसरे मतानुसार मूल शब्द करू (ऊँचा). नाडु (देश) था। तीसरा मत यह है कि संस्कृत शब्द 'कर्णाट' का ही 'कन्नड' आदि तद्भव है। चौथा मत जो कन्नड़ भाषियों को अधिक मान्य है, यह है कि कम्मित (सुगंधित), नाडु (देश) से ही यह शब्द निकला है। चंदन के देश या उसकी भाषा को यह नाम दिया गया हो तो कोई आश्चर्य नहीं है। यों, ये सभी मत कोरे अनुमान पर आधारित हैं और निश्चय के साथ इस संबंध में कुछ कहना कठिन है।

कन्नड़ साहित्य वीरता और उत्साह का काव्य है। संस्कृत साहित्य में वीरता व शौर्य के प्रदर्शन के लिए कर्नाटकी की उपमा दी जाती थी- 'अखण्डित प्रसरा हि पुरुषकाराः : कर्णाटानां ।' कर्णाटकी वीरों की समता में किसी भी अन्य के राज्य के वीरों को नहीं रखा जा सकता। सबसे रोचक तथ्य यह है कि एक और वीरता व दूसरी और भक्ति का अदम्य प्रवाह इस साहित्य में दिखाई देता है। कन्नड़ भाषा का जन्म ब्राह्मी लिपि से हुआ। कन्नड़ और तमिल की लिपि में अत्यल्प अन्तर है। इसकी कुछ प्रमुख विशिष्टताएं हैं-

कन्नड़ पर संस्कृत का बहुत अधिक प्रभाव है। पारिभाषिक व शास्त्रीय शब्दों को संस्कृत से ही ग्रहण किया गया है। कन्नड़ व अधिकांश दक्षिण ( द्रविड़ भाषाओं में ह्रस्व 'ए' व 'ओ' भी हैं।

कन्नड़ वर्णमाला में प्रत्येक वर्ग में दो ही अक्षर हैं - (क 1, ङ 5 ) । यद्यपि देवनगरी जानने वाले अधिकांश कन्नड़ भाषी प्रत्येक वर्ग की पांचों ध्वनियों का प्रयोग करने लगे हैं पर मूलतः लिपि के अनुसार कन्नड़ में महाप्राण व्यंजन नहीं हैं। कन्नड़ में कोई भी शब्द दीर्घान्त नहीं होता। कन्नड़ साहित्य को चार खण्डों में बांटा जाता है- (4) अन्य ग्रन्थों से प्राप्त सामग्री

(1) कर्नाटक से बाहर अन्य भाषाओं से प्राप्त सामग्री

(2) कर्नाटक में शिलालेखों से प्राप्त सामग्री

(3) कविराज मार्ग में प्राप्त सामग्री

काल के आधार पर भी यह साहित्य चार खण्डों में ही बांटा जाता है- 1. पम्प पूर्व युग, 2. पम्प युग, 3. बसव युग, 4. कुमार व्यास युग।

की जाती है। अलंकार शास्त्र पर लिखा गया और दण्डी के काव्य से प्रेरित यह ग्रन्थ पम्प पूर्व युग में 'कविराज मार्ग' की चर्चा कन्नड़ के आद्य ग्रन्थ के रूप में विस्तार से विवेचन करते हुए उसमें नृपतुंग के व्यक्तित्व की महिमा का चित्रण करके अपने समय की राजनीतिक स्थितियों का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करता है। विषय का साहित्यकार की साधना, शैली पर उत्कृष्ट विचार इसमें प्रस्तुत किए गए हैं कन्नड़ दक्षिण का एकमात्र साहित्य हैं जिसमें प्राचीनतम काल से ही उत्कृष्ट गद्य लिखा गया। जैन धार्मिक कथाओं का संग्रह 'बहाराचन' प्राचीनतम गद्य ग्रन् माना जाता है। संस्कृत और कन्नड़ भाषा का सम्मिश्रण करके जैनों के ज्ञान, दर्शन चरित्र और तपस्या को प्रस्तुत करके समन्वयकारी काव्य की रचना का श्रेय इस ग्रन्थ को दिया जाता है।

पम्प युग (जैन युग) कन्नड़ साहित्य का स्वर्ण युग कहा जाता है। यह युग मुख्यतया जैन कवियों का युग था पम्प, पोन्न, रन्ना जैसे 'रत्नत्रय' कहे जाने वाले जैन कवियों ने सीकिक और आगमिक काव्य की रचना की। चम्पू काव्य में केवल गद्य व पथ का ही सम्मिश्रण नहीं किया गया बल्कि उसमें देशज कड़ व संस्कार युक्त कन्नड़ का भी समन्वय दिखाई देता है जैन कवियों ने वीर, रौद्र, अद्भुत व शान्त का समन्वय हुआ है। पम्प द्वारा रचित 'आदि पुराण' को माधुर्य, प्रतिमा व पाण्डित्य का अपूर्व ग्रन्थ माना जाता है जिसने रसिकों को भी मुग्ध किया और आने वाले कवियों को भी प्रेरणा प्रदान की।

सिद्धगोपाल काव्य तीर्थ इस युग के संदर्भ में लिखते हैं- 'पम्प युग नाम से प्रख्यात इस युग में पम्प महाकवि की चलायी चम्पू परम्परा अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित हुई। काव्य में वीर रस और धर्म भावना दोनों का श्रेष्ठ सम्मिलन हुआ। कथावस्तु, काव्य भाव 'देसी' और 'मार्ग' दोनों शैलियों का समन्वय आदि में पम्प के दिखलाये रास्ते पर अपने अपने ढंग से चलकर अनेक कलाकारों ने अपनी प्रतिमा दिखलायी।

बसव युग को स्वातन्त्र्य युग भी कहा जाता है। लिंगायत भक्तों द्वारा इस काल में 'वचन' नामक नए साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। शिव भक्तों ने अन्तः करण के अनुभवों का चित्रण अत्यन्त निर्भीकता पूर्वक किया शुद्ध कन्नड़ छन्दों का प्रयोग (रगळे, त्रिपदी, षट्पदी) आरम्भ हुआ। भाषा-शैली की दृष्टि से यह काल संक्रान्ति काल कहा जाता है। पुरानी कन्नड़ से नवीन कन्नड़ में परिवर्तन के दौरान कन्नड़ भाषा इस काल में अनेक शैलियों से गुजरी शृंगार रस का प्रतिपादन करने वाली शैली 'लीलावती' का प्रयोग इसी काल में हुआ वसय को लिंगायत धर्म का संस्थापक माना जाता है। वचन शैली का प्रयोग अलग अलग दोहों को जोड़कर लिखने के रूप में हुआ जहाँ अन्त में अपने आराध्य देव का स्मरण किया जाता था।

इस काल में महादेवी अक्का जैसी विशिष्ट कवियत्र भी हुई जिन्हें प्रथम कन्नड़ कवियत्री भी माना जाता है। आराध्य शिव को पति मानकर उनके विरह की पीड़ा में दीवानी होकर इन्होंने अनेक आध्यात्मिक रूपकों की रचना की आध्यात्मिक साहस और प्रेम की रमणीयता से युक्त इनका काव्य 'मीरा' की भांति क्रांतिदशी हैं समाज के नियमों का विरोध करके, लोक लाज जैसे शब्दों को तज कर शिव के प्रति अपने समर्पण का चित्रण इन्होंने आत्मानुभूति व अध्यात्म से जोड़कर किया है।

कुमार व्यास युग में देसी काव्य की प्रधानता दिखाई देती है। देशज स्तर पर विविध शैलियों का इस काव्य में मिश्रण हुआ। यह काल वैष्णवों व ब्राह्मणों द्वारा रचित साहित्य का काल है। इस दृष्टि से महाकवि कुमार व्यास द्वारा लिखित 'महाभारत' विशिष्ट मानी जा सकती है। कुमार व्यास इसे 'कर्नाटक' में भारत की मंजुल मंजरी मानते हैं। काया रचना से भी अधिक पात्रों के चरित्र निरूपण में इन्हें विशेष क्षमता प्राप्त हुई है। 'वे ही महाभारत के पात्र उसकी लेखनी के चमत्कार से सजीव होकर हमारे सामने नाचने लगते हैं और संस्कृत महाभारत में उनका जो व्यक्तित्व दिखाई नहीं देता वह यहाँ हू-ब-हू रूप धारण करने लगता है.......... व्यास और पम्प के भारतों में कृष्ण को यह स्थान प्राप्त नहीं है।' (कन्नड़ साहित्य का नवीन इतिहास सिद्ध गोपाल काव्यतीर्थ )

कन्नड़ साहित्य से ही गद्य व पद्य शैलियों का सम्मिश्रण है। यह समस्त काव्य धर्म की प्रधानता का काव्य है। भारतीय सभ्यता आरम्भ से ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की जिन अवधारणाओं से जुड़ी उन्हें इस साहित्य में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।

कन्नड़ काव्य शैली वैविध्य का काव्य है। चम्पू, शतक, अष्टक, वचन, कीर्तन पटपदी आदि अनेक शैलीगत रूप इसमें दिखाई देते हैं। इस काव्य ने संस्कृत से भाव व भाषा दोनों का सम्बन्ध जोड़ा व सांस्कृतिक समन्वय का अपूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया।

आधुनिक काल, भारतीय साहित्य में गद्य विधाओं के विकास का काल है। कहानी, उपन्यास की रचना कन्नड़ साहित्य में भी आरम्भ हुई। इस दृष्टि से मस्ति वेंकटेश आयंगर 'श्रीनिवास' को कहानी विद्या का जनक माना जाता है। बिना किसी अलंकरण के सीधे सादे घरेलू अंदाज में उन्होंने अपनी कहानियों को रचा, वह विलक्षण हैं। अपनी कहानियों के पात्र उन्होंने अपने आस पास से ही लिये। मितव्ययिता उनकी कहानियों का वैशिष्ट्य है। उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानी 'सुब्बण्णा' एक संगीत साधक की सच्ची कथा है। मार्मिक उदभावों का निरूपण और सच्चे भावों की अभिव्यक्ति उनकी नाद भरी भाषा में खनकती दिखाई देती है।

'कटशामी का प्रणय' आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई एक मार्मिक रोचक व सोचने के लिए बाध्य करने वाली कहानी है। रचनाकार आरम्भ में ही सूचना देता है कि यह कथा उसके मित्र द्वारा सुनाई गई और रचनाकार द्वारा शब्द बत की गई है। कहानी लेखन का यह अंदाज पाठक और श्रोता दोनों के लिए दिलचस्प है। कहा जा सकता है कि विविध भाषा भाषी रचनाकारों ने वैश्विक स्तर पर प्रत्येक भाषिक समुदाय को आधार बनाकर नवीन मूल्यों की तलाश का प्रयास किया है। यह प्रयास ही नहीं है बल्कि एक सार्थक हस्तक्षेप है जो हमें बार बार नए सिरे से वस्तुओं को देखने, उन पर विचार करने के लिए तैयार करता है।

भारतीय साहित्य की एकता में संस्कृत साहित्य के योगदान को प्रायः एकमत से स्वीकार करते हैं। वैदिक तथा परवर्ती संस्कृत साहित्य भारतीय साहि को निरंतर प्रेरित करते रहे और उसकी परंपरा आज तक अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है। महाभारत, रामायण और श्रीमद्भागवत ने भारतीय भाषाओं को वित कथावस्तु प्रदान की है और कालिदास, वाण, माघ, भवभूति और श्री हर्ष ने मध्ययुगीन काव्य की शिल्प और शैली को गहरे प्रभावित किया है। महाकाव्य परंपरा से भारतीय रचनाकार गहरे प्रभावित रहे हैं। तुलसीदास, कंबन, कृत्तिवास, माधव कंदली, पंच आदि विभिन्न भाषाओं के रचनाकार में जहाँ एक तरफ एकरूपता देखी जा सकती है, वहीं दूसरी तरफ कई मामलों में उनमें वैविध्य भी है। भारतीय साहित्य की यही एकता और विविधता उसे एक वैशिष्ट्य प्रदान करती हैं। आधुनिक भारतीय भाषाओं का समस्त साहित्य परवर्ती साहित्य से प्रेरित रहा है। पालि, प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्य ने भी आधुनिक भारतीय भाषाओं के साहित्य को अभिप्रेरित किया है। कथावस्तु, शैली शिल्प और छंद विधान आदि की दृष्टि से अपभ्रंश प्रबंध काव्यों का प्रभाव मध्ययुगीन हिंदी प्रबंध काव्य पर स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ता है। इन पर वाचिक लोक परंपरा का प्रभाव भी दिखाई देता है।

अपभ्रंश काल में सिद्ध और नाथ साहित्य रचित होता है। हिंदी के साथ य परंपरा गुजराती, पंजाबी और राजस्थानी में भी दिखाई पड़ती है। तमिल में छठी सदी से वैष्णव आलवारों के भक्तिपूर्ण गीत पाए जाते हैं। सिद्ध साहित्य के बाद भारतीय भाषाओं के साहित्य में संत परंपरा विकसित होती दिखाई पड़ती है। इसके माध्य से भारतीय साहित्य का एक नया आयाम उभरकर सामने आता है, जिसमें हमें एक तरह का आंतरिक समन्वय, देख सकते हैं।

मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के रूप में एक नवीन समन्वयकारी तत्वा सामने आता है। यह आंदोलन तीन-चार शताब्दियों तक चलता रहा और इसने छुआछूत, ऊँच-नीच की भावना का विरोध किया और काव्य रचना के लिए आम जन की भाषा का उपयोग किया। इस आंदोलन में स्त्रियाँ, निचली जातियों के लोग और मुसलमान सभी शामिल थे। इस मध्ययुगीन साहित्य में रामायण, महाभारत और श्रीमद्भागवत के अनुवाद सभी भाषाओं में प्रचुर मात्रा में होते दिखाई पड़ते हैं। सभी भारतीय भाषाओं में आधुनिक साहित्य का विकास लगभग एक ही समय में होता दिखाई पड़ता है और वह समय है 1857 के स्वतंत्रता संग्राम का इस आधुनिक युग में हमें नवजागरण की प्रक्रिया दिखाई पड़ती है।

भारतीय भाषाओं के साहित्य में एक साम्य दृष्टिगोचर होता है आधुनिक भारतीय भाषाओं में गद्य का विकास 1500 ई. के लगभग होता है। यही वह समय है जब भारतीय भाषाएं अपना मानक रूप ग्रहण करती हैं। भारत के आधुनिक साहित्य का विकास सभी भाषाओं में समान रूप से हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले तक हम पाश्चात्य विद्वानों के प्रभाव में भारतीय भाषाओं के साहित्य की एकता को नजरअंदाज करते रहे। अब यह जरूरी हो गया है कि भारत के विभिन्न साहित्यों में विद्यमान समान तत्त्वों एवं प्रवृत्तियों का अध्ययन किया जाए। इसके लिए हमें अपनी मौलिक दृष्टि विकसित करनी होगी और अपनी अध्ययन प्रणाली को परिवर्तित करना होगा। के. सच्चिदानंदन कहते हैं, 'अविच्छेद्य रूप में अपने सामाजिक, ऐतिहासिक और सांस्कृतिक से एकाकार भारतीय साहित्य मूलतः भारतीय ही है-लिखा चाहे जिस भाषा में गया हो, मूलभूत एकता ने हमारे साहित्यों की मोहक विभिन्नता का गला कभी नहीं घोंटा। हमारे साहित्यों को विशिष्ट स्वर, रंग, दिशा सांस्कृतिक गुह्यता, अर्थ संकेत और सामान्य भारतीय इतिहास से विशिष्ट संबंध रखने वाले अलग-अलग साहित्येतिहास देने का श्रेय जिन तत्त्वों को जाता है, उनमें प्रमुख है-स्थानीय परंपराएँ, लोक भाषा के लिये, भिन्न दृश्य- परिदृश्य, जातीय रंग और जीवन शैलियों, भिन्न पूजा शैलियाँ और उत्सव धर्मिताएँ, लोक साहित्य, सतर्कता के सामान्य घरातत भिन्न विचार धाराओं का फैलाव, बाहरी प्रभावों और देशी परंपराओं का समन्वय आदि ।'

आधुनिक साहित्य में कुछ नई प्रवृत्तियों का उभार लगभग सभी प्रमुख भारतीय भाषाओं में दिखाई पड़ा है। दलित आंदोलन और स्त्री आंदोलन संबंधी विमर्श आज के भारतीय साहित्य में उभर कर सामने आ रहे हैं। हमारा भारतीय साहित्य भाषा को लेकर कभी विभाजित नहीं रहा। जिसे हम भारतीय साहित्य' की संज्ञा से अभिहित करते हैं, उसमें विषय वस्तु रूप विन्यास, सरोकार, अनुभव, प्रभाव, दिशा और आंदोलन को लेकर अद्भुत समानता रही है। बहु भाषावाद और अंतर्भाषिक अनुवादों ने भी ‘भारतीय साहित्य' की अवधारणा को बल दिया है। भारतीय लेखक भारतीय ही रहेंगे, चाहे वे जिस भाषा में लिखें। यह बात भारतीय अंग्रेजी लेखकों के लिए भी सच है। जिस प्रकार अनेक धर्मों, विचारधाराओं और जीवन प्रणालियों के रहते हुए भी भारतीय संस्कृति की एकता असंदिग्ध है, इसी प्रकार और इसी कारण से अनेक भाषाओं और अभिव्यंजना-पद्धतियों के रहते हुए भी भारतीय साहित्य की मूलभूत एकता का अनुसंधान भी सहज संभव है। भारतीय साहित्य में अनेक स्वर, अनेक रंग और अनेक विश्वदृष्टियाँ समाहित हैं।