भाषा शिक्षण/भाषा शिक्षण का सामाजिक संदर्भ
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी हैं समाज में रहते हुए ही वह अपने सभी क्रियाकलाप पूरे करता है बच्चा जब जन्म लेता है तब उसे अपने परिवार के सदस्यों के बीच ही अपनी पूरी दुनिया प्रतीत होती है धीरे-धीरे उसका विकास होता है और उसकी इच्छाएँ और आवश्यकताएं भी बढ़ने लगती हैं। अब वह परिवार से बाहर निकलकर स्कूल में कदम रखने है और फिर धीरे-धीरे उसका सम्पर्क का दायरा बढ़ने लगता है इस प्रकार व्यक्ति केवल तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि परिवार के बाहर भी उसके दोस्तों, रिश्तेदार और सहकर्मियों के साथ उसका सम्पर्क रहता है। इस प्रकार व्यक्ति के दिन का आरंभ और अंत समाज में रहकर ही होता है उसी प्रकार भाषा भी मनुष्य के कार्यो को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है
भाषा शिक्षण का सामाजिक सन्दर्भ:- समाज में रहते हुए हम भाषा का प्रयोग अपने विचारों से दूसरों को अवगत कराने के लिए करते हैं। इसलिए हम ऐसी भाषा का चुनाव करते हैं जो वक़्ता और श्रोता दोनों को ही भली-भाँति समझ आती हो। जिससे सम्प्रेषण की प्रक्रिया पूरी हो सके। क्योंकि भाषा का सर्वप्रथम कार्य सम्प्रेषण ही है। वक़्ता के बोलने पर यदि श्रोता उसकी बात समझ नहीं पाए अथवा वह कुछ का कुछ अर्थ भी हो सकता है। ऐसा होने पर बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है।
दूसरा,यह भी आवश्यक नहीं कि जिस भाषा में वक़्ता आपसे अपनी बात कह रहा हो वह भाषा आप के व्दारा भी बोली-समझी जाती हो। ऐसे में हम या तो ये उम्मीद करते हैं कि वक़्ता हमसे उसी भाषा में बात करे जो भाषा हमारे व्दारा भी बोली व समझी जाती हो या वह अपनी भाषा को इतना सरल व सहज बना दे जिससे वक़्ता उसी भाषा को समझ सके।
तीसरा,हमारा देश बहुभाषी देश है। यहाँ कई भाषाएँ बोली जाती है। प्रत्येक भाषा पर उसकी क्षेत्रीयता का प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। शैली में बदलाव भी उसी कारण पैदा होता है।
चौथा, क्षेत्रीयता के प्रभाव और शैली में बदलाव के कारण शब्दों के प्रयोग में भी अन्तर देखा जा सका है शब्दों का चुनाव भी व्यक्ति अपने क्षेत्र विशेष में बोली जाने वाली भाषा के अनुसार ही करता है । जैसे- लौकी को कहीं-कहीं घिया भी बोला जाता है और सीताफल पेठा।
उपरोक्त सभी समस्याओं के निदान के लिए हमें एक ऐसी भाषा की आवश्यकता होती है जिसको हम ज्यादा न सही कम से कम इतना तो समझ पाएं कि वक़्ता व्दारा कही गई बात को समझ सकें। इसीलिए हमें एक ऐसी भाषा के शिक्षण की आवश्यकता है जिसे अधिक से अधिक लोग समझ सकें। हिंदी हमारी राजभाषा है। भारत के भौगोलिक क्षेत्रफल को भी देखा जाऐ तब भी हिंदी ही ऐसी भाषा है जो अधिकतम क्षेत्रों में बोली व समझी जाती हैं।
रवीन्द्नाथ श्रीवास्तव भाषा के सामाजिक और मनोवैज्ञानिक पक्ष पर भाषा के भाषावैज्ञानिक पक्ष से अधिक बल देते हैं। भाषा के अध्ययन और विश्लेषण का कार्य भाषाविज्ञान व्दारा किया जाता है भाषाविज्ञान को चार भागों में बांटा जा सकता है।
० संरचनात्मक भाषा विज्ञान
० शैैली विज्ञान
० भाषा-शिक्षण
० समाजभाषाविज्ञान
समाजभाषाविज्ञान, भाषाविज्ञान की वह शाखा है जो भाषा का सम्बन्ध समाज से जोड़ता है समाजभाषाविज्ञान का मानना है कि भाषा का सर्वप्रथम कार्य सम्प्रेषण है भाषा की उत्पति समाज में होती है और समाज व्दारा ही भाषा का प्रयोग होता है अतः भाषा समाज की मूलभूत आवश्कता है इसलिए हमें भाषा का अध्ययन समाज को ध्यान में रखकर ही करना चाहिए।