कृष्ण काव्य में माधुर्य भक्ति के कवि/रसखान की माधुर्य भक्ति


रसखान का साध्य भी सूरदास ,हितहरिवंश आदि कृष्ण-भक्त कवियों की भांति प्रेम की प्राप्ति रहा है। रसखान ने प्रेम-वाटिका में अपने इस साध्य तत्व को स्पष्ट करते हुए कहा है :

ज्ञान ध्यान विद्या मती,मत बिस्वास बिवेक।
विना प्रेम सब धूरि है, अगजग एक अनेक।।
प्रेम फांस में फँसि मरे, सोई जिये सदाहिं।
प्रेम-मरम जाने बिना,मरि कोउ जीवत नाहिं।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा २५-२६ )

तथा ---

जेहि पाएं वैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक सुद्ध सुभ,सरस सुप्रेम कहाहि।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा २८ )

वास्तव में रसखान की दृष्टि में प्रेम और हरि अभेद्य हैं। क्योंकि प्रेम हरि का रूप है और स्वयं हरि प्रेम-स्वरुप हैं अतः हरि और प्रेम में उसी प्रकार की अभिन्नता है जिस प्रकार की सूर्य और धुप में है।

प्रेम हरी को रूप है ,त्यों हरि प्रेम-सरूप।
एक होइ द्वै यों लसे,ज्यों सूरज अरु धूप।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा २४ )

रसखान के विचार में आनन्द की प्राप्ति केवल प्रेम के द्वारा सम्भव है। वह उन सभी पदार्थों से विलक्षण है जिनसे प्राणी-मात्र परिचय होता है :

दंपति सुख अरु विषय रस,पूजा ,निष्ठा,ध्यान।
इनते परे बखानिए, शुद्ध प्रेम रसखान।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा १९ )

इसी कारण रसखान ने प्रेम के विषय में कहा है --

प्रेम अगम अनुपम अमित ,सागर सरिस बखान।
जो आवत एहि ढिग बहुरि जात नाहिं रसखान।।
कमल तंतु सो छीन अरु, कठिन खड्ग की धार।
अति सूधो टेढ़ो बहुरि, प्रेमपंथ अनिवार।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा ३ और ६ )

इस प्रकार का अगम प्रेम रूप,गुण,धन और यौवन आकर्षण से रहित, स्वार्थ से मुक्त सर्वथा शुद्ध होता है और इसीलिए इसे सकल-रस खानि कहा गया है। एक दोहे में प्रेम का स्वरुप प्रकार प्रस्तुत गया है :

रसमय, स्वाभाविक,बिना स्वारथ अचल महान।
सदा एक रस शुद्ध सोइ प्रेम अहे रसखान।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा ४२ )
इस शुद्ध प्रेम के बिना ज्ञान,कर्म और उपासना केवल अहंता को बढ़ाने वाला है अर्थात साधनों साध्य प्रेम नहीं है तो यह केवल दुखप्रद है और प्रेम की जिसे प्राप्ति हो गई उसके लिए कुछ जानना शेष नहीं रह जाता।
जेहि बिनु जाने कछुहि नहिं,जान्यों जात बिसेस।
सोई प्रेम, जेहि जानिके,रहि न जात कछु सेस।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा १८ )

वेद मर्यादाएँ तथा जागतिक नियम इस प्रेम की प्राप्ति में विघ्न-रूप सिद्ध होते हैं। अतः जब तक साधक इन नियमों को दृढ़ता से पकड़े रहता है तब तक उसे प्रेम की प्राप्ति नहीं होती और दूसरी ओर यदि साधक के ह्रदय में प्रेम का प्रकाश हो जाता है उस समय ये सभी नियम बंधन स्वतः छूट जाते हैं:

लोक-वेद-मरजाद सब लाज काज संदेह।
देत बहाए प्रेम करि,विधि निषेध को नेह।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा ७ )
रसखान ने प्रेम-रस देने वाले के रूप में राधा-कृष्ण स्मरण किया है। उनके अनुसार यही युगल-रूप वह माली है जिनके कारण प्रेमवाटिका सदा हरी भरी रहती है
प्रेम-अयनि श्री राधिका,प्रेम बरन नन्दनन्द।
प्रेम बाटिका के दोऊ,माली मलिन द्वन्द।।
(प्रेम-वाटिका :दोहा १ )

यद्यपि उक्त दोहे में रसखान ने राधा और कृष्ण दोनों को प्रेम का विकास करने वाले के रूप में स्वीकार किया है ,तथापि सामान्य रूप से उन्होंने कृष्ण को ही अपना इष्ट है। सुजान रसखान के अनेक सवैयों तथा कवित्तों से इसी बात की पुष्टि होती है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा है : बांसुरीवारो बड़ो रिझवार है,स्याम जु नैसुक ढार ढरैगो।

लाड़लो छैल वही तो अहीर को पीर हमारे हिये की हरैगो।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया ७ )

प्रेम-लीलाओं वर्णन में भी कवि ने राधा को गोपियों से विशिष्ट स्थान नहीं दिया है। हास-परिहास छेड़-छाड़ ,रास आदि के वर्णन में गोपी सामान्य का वर्णन उपलब्ध होता है। किन्तु कुछ सवैये ऐसे हैं जिनमें राधा को कृष्ण की दुलही के रूप में स्वीकार कर उनको स्वकीया माना गया है। इन्हीं सवैयों के आधार पर राधा की अन्य गोपियों से महत्ता सिद्ध है :

मोर के चंदन मोर बन्यौ दिन दूलह है अली नंद को नंदन।
श्री बृषभानुसुता दुलही दिन जोरी बनी बिधना सुखकंदन।।
आवै कह्यौ न कछु रसखानि री दोऊ फंदे छवि प्रेम के फंदन।
जाहि बिलोकें सबै सुख पावत ये ब्रज जीवन हैं दुखदंदन।।
(सुजान रसखानि :सं० विश्वनाथ मिश्र :सवैया १९० )