राष्ट्रीय काव्यधारा/भारत-भारती (अतीत खंड)-हमारी सभ्यता

भारत-भारती (अतीत खंड)-हमारी सभ्यता-- मैथिलीशरण गुप्त

शैशव-दशा में देश प्राय: जिस समय सब व्याप्त थे,
निःशेष विषयों में तभी हम प्रौढ़ता को प्राप्त थे ।
संसार को पहले हमीं ने ज्ञान-भिक्षा दान की,
आचार की, व्यवहार की, व्यापार की, विज्ञान की॥४५॥

'हाँ' और 'ना' भी अन्य जन करना न जब थे जानते,
थे ईश के आदेश तब हम वेदमंत्र बखानते ।
जब थे दिगम्बर रूप में वे जंगलों में घूमते,
प्रासाद-केतन-पट हमारे चन्द्र को थे चूमते॥४६॥

जब मांस-भक्षण पर वनों में अन्य जन थे जी रहे,
कृषिकी कार्य्य करके आर्य्य तब शुचि सोमरस थे पी रहे ।
मिलता न यह सात्त्विक सु-भोजन यदि शुभाविष्कार का,
तो पार क्या रहता जगत में उस विकृत व्यापार का ?॥४७॥

था गर्व नित्य निजस्व का पर दम्भ से हम दूर थे,
थे धर्म्म-भीरु परन्तु हम सब काल सच्चे शूर थे ।
सब लोकसुख हम भोगते थे बान्धवों के साथ में,
पर पारलौकिक-सिद्धि भी रखते सदा थे हाथ में॥४८॥

थे ज्यों समुन्नति के सुखद उत्तुंग शृंगों पर चढ़े,
त्यों ही विशुद्ध विनीतता में हम सभी से थे बढ़े ।
भव-सिन्धु तरने के लिए आत्मावलम्बी धीर ज्यों,
परमार्थ-साध्य-हेतु थे आतुर परन्तु गम्भीर त्यों॥४९॥

यद्यपि सदा परमार्थ ही में स्वार्थ थे हम मानते,
पर कर्म्म से फल-कामना करना न हम थे जानते ।
विख्यात जीवन-व्रत हमारा लोक-हित एकान्त था,
'आत्मा अमर है, देह नश्वर,' यह अटल सिद्धान्त था॥५०॥

हम दूसरों के दुःख को थे दुःख अपना मानते,
हम मानते कैसे नहीं, जब थे सदा यह जानते-
'जो ईश कर्त्ता है हमारा दूसरों का भी वही,
है कर्म्म भिन्न परन्तु सबमें तत्व-समता हो रही'॥५१॥

बिकते गुलाम न थे यहाँ हममें न ऐसी रीति थो,
सेवक-जनों पर भी हमारी नित्य रहती प्रीति थी ।
वह नीति ऐसी थी कि चाहे हम कभी भूखे रहें,
पर बात क्या, जीते हमारे जो कभी वे दुख सहें?॥५२॥

अपने लिए भी आज हम क्यों जी न सकते हों यहाँ,
पर दूसरों के ही लिए जीते जहाँ थे हम जहाँ;
यद्यपि जगत् में हम स्वयं विख्यात जीवन- मुक्त थे,
करते तदपि जीवन्मृतों को दिव्य जीवन-युक्त थे ॥५३॥

कहते नहीं थे किन्तु हम करके दिखाते थे सदा।
नीचे गिरे को प्रेम से ऊंचा चढ़ाते थे हमीं,
पीछे रहे को घूमकर आगे बढ़ाते थे हमीं ॥५४॥

होकर गृही फिर लोक की कर्त्तव्य-रीति समाप्त की।
हम अन्त में भव-बन्धनों को थे सदा को तोड़ते,
आदर्श भावी सृष्टिहित थे मुक्ति-पथ में छोड़ते ॥५५॥

कोई रहस्य छिपे न थे पृथ्वी तथा आकाश के।
थे जो हजारों वर्ष पहले जिस तरह हमने कहे,
विज्ञान-वेत्ता अब वही सिद्धान्त निश्चित का रहे ॥५६॥

"है हानिकारक नीति निश्चिय निकट कुल में ब्याह की,
है लाभकारक रीति शव के गाड़ने से दाह की ।"
यूरोप के विद्वान भी अब इस तरह कहने लगे,
देखो कि उलटे स्रोत सीधे किस तरह बहने लगे ! ॥५७॥

निज कार्य प्रभु की प्रेरणा ही थे नहीं हम जानते,
प्रत्युत उसे प्रभु का किया ही थे सदा हम मानते।
भय था हमें तो बस उसी का और हम किससे डरे?
हाँ, जब मरे हम तब उसी के पेम से विह्वल मरे ॥५८॥
था कौन ईश्वर के सिवा जिसको हमारा सिर झुके ?
हाँ, कौन ऐसा स्थान था जिसमें हमारी गति रुके ?
सारी धरा तो थी धरा ही, सिन्धु भी बँधवा दिया;
आकाश में भी आत्म-बल से सहज ही विचरण किया' ॥५९॥

हम बाह्य उन्नति पर कभी मरते न थे संसार में,
बस मग्न थे अन्तर्जगत के अमृत-पारावार में।
जड़ से हमें क्या, जब कि हम थे नित्य चेतन से मिले,
हैं दीप उनके निकट क्या जो पद्म दिनकर से खिले ? ॥६०॥

रौंदी हुई है सब हमारी भूमि इस संसार की,
फैला दिया व्यापार, कर दी धूम धर्म-प्रचार की ।
कप्तान ‘कोलम्बस' कहाँ था उस समय, कोई कहे?
जब के सुचिन्ह अमेरिका में हैं हमारे मिल रहे ॥६१॥

हम देखते फिरता हुआ जोड़ा न जो दिन-रात का-
करते कहो वर्णन भला फिर किस तरह इस बात का?
हम वर-वधू की भाँवरों से साम्य उसका कर चुके;
अब खोजने जाकर जिसे कितने विदेशी मर चुके ! ॥६२॥

आरम्भ जब जो कुछ किया, हमने उसे पूरा किया,
था जो असम्भव भी उसे सम्भव हुआ दिखला दिया।
कहना हमारा बस यही था विध्न और विराम से-
करके हटेंगे हम कि अब मरके हटेंगे काम से ॥६३॥

यह ठीक है, पश्चिम बहुत ही कर रहा उत्कर्ष है,
पर पूर्व-गुरु उसका यही पुरु वृद्ध भारतवर्ष है।
जाकर विवेकानन्द-सम कुछ साधु जन इस देश से-
करते उसे कृतकृत्य हैं अब भी अतुल उपदेश से ॥६४॥

वे जातियाँ जो आज उन्नति-मार्ग में हैं बढ़ रही,
सांसारिकी स्वाधीनता की सीढ़ियों पर चढ़ रही।
यह तो कहें, यह शक्ति उनको प्राप्त कब, कैसे हुई?
यह भी कहें वे, दार्शनिक चर्चा वहाँ ऐसे हुई ॥६५॥

यूनान ही कह दे कि वह ज्ञानी-गुणी कब था हुआ ?
कहना न होगा, हिन्दुओं का शिष्य वह जब था हुआ।
हमसे अलौकिक ज्ञान का आलोक यदि पाता नहीं,
तो वह अरब यूरोप का शिक्षक कहा जाता नहीं ॥६६॥

संसार भर में आज जिसका छा रहा आतंक है,
नीचा दिखाकर रूस को भी जो हुआ निःशंक है,
जयपाणि जो वर्द्धक हुआ है एशिया के हर्ष का,
है शिष्य वह जापान भी इस वृद्ध भारतवर्ष का ॥६७॥

यूरोप भी जो बन रहा है आज कल मार्म्मिकमना,
यह तो कहे उसके खुदा का पुत्र कब धार्म्मिक बना?
था हिन्दुओं का शिष्य ईसा, यह पता भी है चला,
ईसाइयों का धर्म्म भी है बौद्ध साँचे में ढला ॥६८॥

संसार में जो कुछ जहाँ फैला प्रकाश-विकास है,
इस जाति की ही ज्योति का उसमें प्रधानाभास है।
करते न उन्नति-पथ परिष्कृत आर्य्य जो पहले कहीं,
सन्देह है, तो विश्व में विज्ञान बढ़ता या नहीं ॥६९॥

अनमोल आविष्कार यद्यपि हैं अनेकों कर चुके,
निज नीति, शिक्षा, सभ्यता की सिद्धि का दम भर चुके,
पर पीटते हैं सिर विदेशी आज भी जिस शान्ति को,
थे हम कभी फैला चुके उसकी अलौकिक कान्ति को ॥७०॥

है आज पश्चिम में प्रभा जो पूर्व से ही है गई,
हरते अँधेरा यदि न हम, होती न खोज नई नई।
इस बात की साक्षी प्रकृति भी है अभी तक सब कहीं,
होता प्रभाकर पूर्व से ही उदित पश्चिम से नहीं ॥७१॥

अन्तिम प्रभा का है हमारा विक्रमी संवत्‌ यहाँ,
है किन्तु औरों का उदय इतना पुराना भी कहाँ?
ईसा, मुहम्मद आदि का जग में न था तब भी पता,
कब की हमारी सभ्यता है, कौन सकता है बता ॥७२॥

सर्वत्र अनुपम एकता का इस प्रकार प्रभाव था,
थी एक भाषा, एक मन था, एक सबका भाव था।
सम्पूर्ण भारतवर्ष मानो एक नगरी थी बड़ी,
पुर और ग्राम-समूह-संस्था थी मुहल्लों की लड़ी ॥७३॥

हैं वायुमण्डल में हमारे गीत अब भी गुँजते,
निर्झर, नदी, सागर, नगर, गिरि, बन सभी हैं कूजते।
देखो, हमारा विश्व में कोई नहीं उपमान था,
नर-देव थे हम, और भारत ? देव-लोक समान था ॥७४।

[१][२]

सन्दर्भ सम्पादन

  1. भारत भारती-श्री मैथिलीशरण गुप्त-लोकभारती प्रकाशन-ISBN-9788180317927
  2. हिन्दी कविता