"भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा/शब्द और पद में अंतर और हिन्दी शब्द भण्डार के स्रोत": अवतरणों में अंतर

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===शब्द और पद में अन्तर और हिन्दी शब्द भंडार के स्रोत===
 
'''शब्द और पद में अन्तर''':-'रूप' और 'पद' दोनों समानार्थी हैं। वस्तुत: मूल या प्रातिपदिक शब्द एवं धातुओं में व्याकरणिक प्रत्ययों के संयोग से अनेक रूप बनते हैं, जो वाक्य में प्रयुक्त होने पर 'पद' (रूप) कहलाते हैं। उच्चारण की दृष्टि से भाषा की लघुतम इकाई ध्वनि है और सार्थकता की दृष्टि से शब्द। ध्वनि सार्थक हो ही, यह आवश्यक नहीं है; जैसे-- अ, क, च, ट, त, प आदि ध्वनियाँ तो हैं, किन्तु सार्थक नहीं । किन्तु, अब, कब, चल, पल आदि शब्द है; क्योकि इनमें सार्थकता है, अर्थात् अर्थ देने की क्षमता है। पदविज्ञान में पदों के रूप और निर्माण का विवेचन होता है। सार्थक हो जाने से ही शब्द में प्रयोग-योग्यता नहीं आ जाती। कोश में हजारों-हजार शब्द रहते हैं, पर उसी रूप में उनका प्रयोग भाषा में नहीं होता । उनमें कुछ परिवर्तन करना होता है। उदाहरणार्थ कोश में 'पढ़ना' शब्द मिलता है और वह सार्थक भी है, किन्तु प्रयोग के लिए 'पढ़ना' रूप ही पर्याप्त नहीं है, साथ ही उसका अर्थ भी स्पष्ट नहीं होता। 'पढ़ना' के अनेक अर्थ हो सकते हैं, जैसे- पढ़ता है, पढ़ रहा है, पढ़ रहा होगा आदि। 'पढ़ना' के ये अनेक रूप जिस प्रक्रिया से सिध्द होते हैं, उसी का अध्ययन पदविज्ञान का विषय है। अत: रूप के दो भेद किये हैं-- शब्द और पद। शब्द से उनका तात्पर्य विभक्तिहीन शब्द से है जिसे प्रातिपदिक भी कहते हैं। पद शब्द का प्रयोग वैसे शब्द के लिए किया जाता है जिसमें विभक्ति लगी हो। इस प्रकार शब्द और पद का भेदक तत्व विभक्ति है। जैसे पहले बताया जा चुका है, विभक्ति का अर्थ ही है विभाजन करनेवाला या बाँटनेवाला तत्व अर्थात् जिसकी सहायता से शब्दों का अर्थ विभक्त हो जाये। विभिक्ति की सहायता से ही 'मुझको', 'मुझसे' और 'मुझमें' के अर्थ परस्पर भिन्न हो जाते हैं। यह भिन्नता विभक्ति के कारण है, अन्यथा मूलरूप 'मुझ' सर्वत्र एक ही है। तात्पर्य कि विभक्तियों के योग से ही शब्दों में प्रयोग-योग्यता आती है, अर्थात् उनमें परस्पर अन्वय हो सकता है।
 
===संदर्भ===