"हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान": अवतरणों में अंतर

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भारतेंदु मंडल:— भारतेंदु के व्यक्तित्व की केंद्रीयता से उनके समय में ही गद्य का वृत्त उनके मित्र लेखकों में फैलने लगता है। जिस समुदाय को सामान्यता भारतेंदु मंडल कहकर पुकारा गया। मुद्रण–सुविधाएं और उससे जुड़ी पत्रकारिता के प्रसार से गद्य के महत्व को उत्तरोत्तर अधिक पहचाना जाने लगा। श्री नारायण चतुर्वेदी ने अपने एकेडमी व्याख्यानो में "आधुनिक हिंदी का आदिकाल','हिंदुस्तानी एकेडमी(1973)" कई तरह के साक्ष्यों के आधार पर दिखाया है कि इस आदिकाल में कविता के लोकप्रियता के बीच से फिर आधुनिक खड़ी बोली गद्य का उदय होता है।
इस पृष्ठभूमि में गद्य के विकास पर टिप्पणी करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं "पुस्तकों के सुलभ ना होने से जनता के कंठ से कविता तो उतर सकती है किंतु गद्य कंठस्थ नहीं हो सकता इसलिए गद्य बहुत पिछड़ा हुआ था। इस गद्य के विकास के लिए पश्चिम में स्वामी दयानंद के प्रवचन "शास्त्रार्थ और पत्र-पत्रिकाओं और भाष्यो का लाभ मिल रहा था जिनका नेतृत्व 'भाग्यवती' उपन्यास के लेखक श्रद्धा राम फुलौरी कर रहे थे। पश्चिम में गद्य की सक्रियता के केंद्र में दयानंद थे तो पूर्व में भारतेंदु हरिश्चंद्र।
भौगोलिक दृष्टि से भारतेंदु मंडल का विस्तार काशी से दिल्ली तक था। भारतेंदु मंडल के सदस्य माने जाते हैं— स्वयं "भारतेंदु हरिश्चंद्र (काशी), केशवराम भट्ट (पटना), प्रताप नारायण मिश्र (कानपुर), गोस्वामी राधा चरण (वृंदावन), लाला श्रीनिवास दास (दिल्ली), लाला सीताराम (इलाहाबाद), दामोदर शास्त्री सप्रे (काशी), कार्तिक प्रसाद खत्री (काशी), ठाकुर जगमोहन सिंह (काशी) अंबिका दत्त व्यास (काशी) रामकृष्ण वर्मा (काशी) राधा कृष्ण दास (काशी) ।ये लेखक अधिकतर काशी तथा अन्य पूर्वी नगरों के थे। भारतेंदु के व्यक्तित्व का प्रभाव वृत पश्चिम में वृंदावन और दिल्ली तक फैला हुआ था।
भिन्न-भिन्न विधाओं में प्रयोग के लिए कुछ अलग अलग लेखकों की भी ख्याति कही जा सकती है— जैसे "भारतेंदु (नाटक), श्रद्धा राम फुलौरी तथा लाला श्रीनिवास दास (उपन्यास), बाल कृष्ण और प्रताप नारायण मिश्र (निबंध), बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन (आलोचना)।" भारतेंदु के यहां जो सतरंग फूटा था वह चतुर्दिक प्रकाश बनकर फैल गया।
1868 ई॰ में काशी में अभिनीत शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत 'जानकी मंगल नाटक' आधुनिक इन हिंदी का पहला रंग नाटक कहा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का इस प्रस्तुति में लक्ष्मण का अभिनय करना प्रसिद्ध है।— "नाटक यदि परंपरा से प्राप्त गधे का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है तो गद्य का आधुनिक काल में विकसित सबसे विशिष्ट माध्यम उपन्यास है। भारतेंदु की दो गद्य रचनाओं को माना जाता है कि वह उपन्यास के रूप में लिखी जाने को थी एक 'पूर्ण प्रकाश चंद्रप्रभा'और दूसरी 'एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जगबीती ।"
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है "अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल लाला श्रीनिवास दास का 'परीक्षा गुरु' ही निकला था। 'परीक्षा गुरु' का प्रकाशन 1882 में हुआ। श्रद्धा राम फिल्लौरी का 'भाग्यवती' लिखा तो 1877 में गया पर उसका प्रकाशन प्राय: एक दशक बाद हुआ। दोनों उपन्यासों के उद्धरण नीचे दिए गए हैं। नाटकों की भाषा अधिकतर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुसार चलती है उपन्यास की भाषा इस तुलना में अधिक समरस होती है।