"हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान": अवतरणों में अंतर

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(बालकृष्ण भट्ट:– रुचि)
भारतेंदु युग का केंद्रीय काव्य रूप नाटक है हिंदी में सैद्धांतिक आलोचना की पहल भारतेंदु कृत लंबे निबंध 'नाटक'(1883) से है। भारतेंदु के 'नाटक' शीर्षक निबंध के प्रकाशन के तीन वर्ष बाद 1886 में लाला श्रीनिवास दास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर'(1885) की समीक्षा बालकृष्ण भट्ट अपने पत्र 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित की और प्रेमघन ने 'आनंदकादंबिनी' में भारतेंदु मंडल के सक्रिय होते होते समूची आधुनिक गद्य धारा एकबारगी गतिशील हो उठती है ।
 
भारतेंदु की साहित्यिक योगदान:— भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया। इसी कारण इन्हें विद्वानों द्वारा सन 1880 ई॰ में भारतेंदु की उपाधि से सम्मानित किया गया। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी नाटक,गद्य, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त वे पत्रकार,वक्ता,निबंधकार एवं उत्कृष्ट कवि भी थे।
हिंदी साहित्य में खड़ी बोली में नाटक का शुरुआत का श्रेय भारतेंदु को जाता है। इन्होंने हिंदी साहित्य में 72 ग्रंथों की रचना कर हिंदी भाषा को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इसलिए सन 1850–1900 के कालखंड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने युग के रचनाकारों को अलौकिक जगत से हटकर समाज में फैली कुरीतियों एवं मानव तथा तर्क पर आधारित रचना लिखने को प्रोत्साहित किया ।
सन् 1868 ई॰ में महज 18 वर्ष की आयु में उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्रिका प्रकाशित की जिसमें उस वक्त के बड़े-बड़े विद्वानों की कृतियां छपती थी। सन् 1873 ई॰ में 'हरिश्चंद्र मैगजीन' एवं 1874 ई॰ में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 'बालबोधिनी' नामक पत्रिका प्रकाशित किया। इन्होंने हिंदी साहित्य के दायरे को चतुर्मुखी विकास किया। उनके लेखन में दोहा, चौपाई, हरिगीतिका, छंद, कवित्त, सवैया आदि में उत्कृष्टता का परिचय मिलता है। सुमित्रानंदन पंत इनके हिंदी साहित्य में योगदान की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं।—
"भारतेंदु कर गए, भारती की वीणा निर्माण ।
किया अमर स्पर्शो में, जिसका बहुविधि स्वर संधान ।।"
भारतेंदु से पहले हिंदी भाषा शैली के दो रूप राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली और दूसरी राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की फारसी मिश्रित हिंदी भाषा शैली चरम थे। दोनों ही शैलीया आम बोलचाल में जटिल थी। भारतेंदु ने इन दोनों में से कठिन शब्द निकालकर सरल खड़ी बोली को हिंदी साहित्य में शामिल किया ।
सन् 1873 में अपनी पत्रिका हरिश्चंद्र मैगजीन में हिंदी भाषा की नई शैली खड़ी बोली को स्थान दिया। भारतेंदु से पूर्व नाटकों धार्मिक भावनाओं पर आधारित है। उन्होंने नाटकों में सामाजिक राजनीतिक ऐतिहासिक पौराणिक विषयों को शामिल किया।