"हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान": अवतरणों में अंतर

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किया अमर स्पर्शो में, जिसका बहुविधि स्वर संधान ।।"
भारतेंदु से पहले हिंदी भाषा शैली के दो रूप राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली और दूसरी राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की फारसी मिश्रित हिंदी भाषा शैली चरम थे। दोनों ही शैलीया आम बोलचाल में जटिल थी। भारतेंदु ने इन दोनों में से कठिन शब्द निकालकर सरल खड़ी बोली को हिंदी साहित्य में शामिल किया ।
सन् 1873 में अपनी पत्रिका 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में हिंदी भाषा की नई शैली खड़ी बोली को स्थानजन्म दिया। भारतेंदु से पूर्व नाटकों धार्मिक भावनाओं पर आधारित है।थे। उन्होंने नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों को शामिल किया।
भारतेंदु के प्रमुख नाटक है। — "भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, प्रेम योगिनी, मुद्राराक्षस" जिनका आज भी रंगमंच पर मंचन किया जाता है। उन्होंने कुल 17 नाटकों की रचना की जिनमें मौलिक नाटक और अनूदित नाटक शामिल थे। भारतेंदु गद्य के लिए तो खड़ी बोली का प्रयोग करते थे किंतु पद्य ब्रजभाषा में रचते थे। उन्होंने अपने छोटे से जीवन काल में 48 प्रबंध काव्य, 21 काव्य ग्रंथ एवं मुक्तक रच डाले थे। 'कुछ आप बीती कुछ जगबीती' नामक उनकी उपन्यास की रचना उनकी असमय मृत्यु के कारण अधूरा रह गया जिसे लाला श्रीनिवास दास ने पहला उपन्यास 'परीक्षा गुरु' के नाम से लिखकर पूरा किया।
मातृ भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति का उनका मूल मंत्र था।
"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल ।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे ना हिय को शूल ।।"
हिंदी को न्यायालयों की भाषा बनाने की महत्ता पर उन्होंने कहा।—
"यदि हिंदी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़ाने के लिए दो चार आने कौन देगा ।........
तब पढ़ने/बुद्धिजीवियों वालों को यह अवसर कहां मिलेगा की गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दे।".......
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्य कोश के एक दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भारतेंदु को भारत में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है 1971 की चर्चित फिल्म 'आनंद' की यह डायलॉग "जिंदगी लंबी नहीं...बड़ी होनी चाहिए....यह फलसफा हिंदी साहित्य के महान विभूति 'भारतेंदु हरिश्चंद्र' पर सटीक बैठता है जिन्होंने अपने 35 वर्ष की अल्पायु में हिंदी भाषा को चरम उत्कर्ष पर पहुंचा दिया ।"