"हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/केशवदास": अवतरणों में अंतर
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(चोर पक्ष) चोर खूब सोच समझ कर रखता है वे दबे पांव चलता जैसे कोई उसकी आहट न सुन सके| चोर को भी लोगों का सोते रहना पसंद है कुछ भी शोर नहीं पसंद आता| वह 'सुबरन' अर्थात सोना खोजता रहता है|
'''विशेष १.''' इस छंद में सुंदर श्लेष अलंकार का वर्णन है|
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'''२.''' कवि कहते हैं कि इन तीनों ( स्त्री, कविता और मित्र) दोषों के रहते हुए शोभा नहीं पाते हैं जैसे एक बूंद मदिरा से गंगाजल से भरा हुआ घड़ा अपवित्र हो जाता है| अंतः थोड़े से दोष से ही ये तीनों निंदा के योग्य माने जाते हैं| अलंकारों एवं गुणों के पक्षपाती केशवदास काव्य, में किसी दोष को क्षमा नहीं करते
'''विशेष १.''' दोष की तुलना शराब से की गई है
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