"हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/घनानंद": अवतरणों में अंतर
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'''२.''' यथाक्रम है प्रीति की रीति है
'''मीत सुजान अनीत करौ जिन, हाहा न हूजियै मोहि अमोही।'''
'''डीठि कौ और कहूँ नहिं ठौर फिरी दृग रावरे रूप की दोही।'''
'''एक बिसास की टेक गहे लगि आस रहे बसि प्रान-बटोही।'''
'''हौं घनआनँद जीवनमूल दई कित प्यासनि मारत मोही।।'''
'''संदर्भ :''' यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिमुक्त कवि घनानंद द्वारा रचित सुजानहित से संकलित किया गया
'''प्रसंग :''' कवि घनानंद के इस छंद में सुजान के भावनात्मक अत्याचारों का कड़ा विरोध किया गया है
'''व्याख्या :''' कविवर घनानंद कहते हैं कि हे प्रिय सुजान! मेरे साथ जो तुम अनीति का व्यवहार कर रही हो वह उचित नहीं है तुम मुझसे पीछा छुड़ाने वाली मत बनो मेरे साथ ऐसे निष्ठुरता का व्यवहार कर तुम अनीति क्यों कर रहे हो? मेरे प्राणरूपी रास्तागीर को केवल तुम्हारे विश्वास का सहारा है और उसी की आशा में अब तक जिंदा है तुम तो आनंदरूपी घन हो जो जीवन का प्रदाता है| हे देव! मोही होकर भी तुम मुझे अपने दर्शनों के लिए इस तरह क्यों तड़पा रहे हो अर्थात मुझे शीघ्र ही अपने दर्शन दे दो
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