"हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/घनानंद": अवतरणों में अंतर

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'''विशेष १.'''
 
 
 
'''बंक बिसाल रंगीले रसाल छबीले कटाक्ष कलानि मैं पंडित|'''
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'''आनंद आसव घूमरे नैंन मनोज के चोजनि ओज प्रचंडित|'''
 
 
'''संदर्भ :''' यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के रीतिमुक्त कवि घनानंद द्वारा रचित सुजानहित से संकलित किया गया
 
'''प्रसंग :''' हनुमान कबीर नायिका सुजान के कटीले नेत्रों और उनके बंकिले कटाक्ष से नायक के मन पर पड़े प्रभाव का वर्णन करता है
 
'''व्याख्या :''' कभी कहना चाहता है कि एक तो प्रकृति ने ही उन्हें इतना सुंदर बनाया, दूसरी और उन नेत्रों की चितवन का प्रभाव विषय पर अधिक घातक हो उठा है| नायिका सुजान के नेत्र विशाल हैं, रसपूर्ण और सुंदर हैं| लेकिन उन से चलने वाले कटाक्ष तीर की तरह नुकिले और बेधक है| उसकी तिरछी चितवन को देख लगता है कि वह कटाक्ष करने की कला में तीरंदाज के सम्मान निपुण है| इसलिए उसकी चितवन के तीर से कोई घायल हुए बिना नहीं रह सका| उसके नेत्रों की पुतलियां काली है, पुतली के आसपास का भाग श्वेत वर्ण का है| कुल मिलाकर श्वेत श्याम रतनार नेत्र शोभा के भंडार प्रतीत होते हैं| उन्हें देखते ही दर्शक अपना ह्रदय दे बैठता है, अर्थात मुग्ध हो जाता है| कामावेश के कारण इन नेत्रों में आलस्य और मस्ती के भाव भरे रहते हैं, जिससे उन मित्रों का प्रभाव और भी घातक हो उठता है|यद्यपि इन कटाक्षों के कारण नायक को प्रथम अनुभूति कष्ट की होती है, वह विरही चितवन के आघात से तिलमिला उठता है पर बाद में उसे लगता है कि वह नायिका के इस सौंदर्य और मस्ती भरी अदा के बिना जीवित नहीं रह सकता| अंतः वे उसे एक साथ जीवन मृत्यु दान का करती है| उसमें अखंड प्रेम की मदिरा छलकती है जिस के सौंदर्य का पान कर दर्शक अपना विवेक खो बैठता है और कामोदीप्त हो शराबी के समान आचरण करने लगता है| वह अनुभव करता है कि इन नेत्रों के कटाक्षों का आघात सहना उसके वंश के बाहर है फिर भी अनुरक्ति के कारण वह बार-बार उसकी ओर निहारता है और कटाक्ष-बाण सहर्ष सहता है|