"हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/घनानंद": अवतरणों में अंतर
Content deleted Content added
No edit summary |
No edit summary |
||
पंक्ति १२३:
'''व्याख्या :''' हे प्रिय सुजान पहले तुमने मुझसे प्रेम किया, प्रेम का नाता जोड़ा, विश्वास दिलाया कि यह प्रेम बंधन अटूट है, पर अब क्यों रुष्ट हो कई? क्या कारण है कि आपने मुझसे मुख मोड़ लिया? तुम्हारा यह आचरण उतना ही अनुचित और अनीतिपूर्ण है जिना उस व्यक्ति का जो पहले तो पानी में डूबते हुए व्यक्ति को सहारा दे, बाँह पकड़े और फिर मझधार में पहुंचाने पर उसे बेसहारा छोड़ कर डूबने दे | उस समय तुमने मुझे अपने प्रेम से आश्वस्त किया तुम्हारे उस आचरण से मुझे जीवनदान मिला | पर अब जब हम दोनों प्रेम पथ पर आगे बढ़ चुके थे तुमने मेरा साथ छोड़ दिया और मानो मुझे जीवन रूपी नदी कि मझधार में डूबने के लिए बेसहारा और निरूपाय बना कर छोड़ दिया | तुम्हारा यह आचरण कठोर और नीति विरुद्ध है तुम्हारी सोचो | यह विश्वासघात मत करो | मैं जीते जी मर जाऊंगा | तुम मेघ के समान प्रेमामृत की वर्षा करने वाली हो | मेघ चातक के प्रति कभी कठोर नहीं होता | उसके प्राण की रक्षा के लिए स्वाति नक्षत्र में बरसता है, उसे जीवनदान देता है | तुमने अपने गुणों से, अपने रूप लावण्य से प्रेम की दोरी में बांधा था | अब उसे दोरी को काट दोगी तो मैं कहीं का नहीं रहूंगा | अर्थात तुम्हारे अतिरिक्त मेरा और कोई नहीं है | अतः तुम मेरे प्रति निष्ठुर मत बनो | मेरे जीवन में विष घोलकर तुम्हारा क्या लाभ होगा? इससे तो प्रेम बदनाम होगा | प्रेम को कलंक लगेगा | विश्वासघात करना नीति की दृष्टि से भी उचित नहीं | अतः मुझे अपने प्रेम का वरदान दो, इस कठोरता को त्याग मुझे अपना लो
'''विशेष १.'''
'''रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।'''
'''त्यौं इन आँखिन वानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।।'''
'''एक ही जीव हुतौ सुतौ वारयौ, सुजान, सकोच और सोच सहारियै।'''
'''रोकी रहै न दहै, घनआनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।।'''
|