"हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/घनानंद": अवतरणों में अंतर

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'''व्याख्या :''' हे प्राणप्रियं ! तुम्हारे रूप लावण्य की रीति अनोखी है। ज्यों ज्यों उसे निकट से देखते हैं, त्यों त्यों उसे और देखने की चाहा उमड़ती है, मन तृप्त ही नहीं होता क्योंकि वह प्रत्येक क्षण बदलता रहता है, पहले से अधिक आकर्षक होता जाता है। प्रिय का आकर्षण आयु के साथ-साथ कटता नहीं अपितु नया-नया होकर बढ़ता जाता है, बिखर रहा है। उधर मेरे नेत्रों को की अजीब आदत पड़ गई है। तुम्हारी शपथ, मैं सच कहता हूं कि यह नेत्र तुम्हारे रूप का पान कर कभी तृप्त नहीं होते। अंतः वे किसी और की ओर देखते तक नहीं। मेरे पास तो मेरा एक प्राण था, वह मैंने तुम पर न्योछावर कर दिया, अब मेरे पास अपना कुछ नहीं है। आप ही मेरे सर्वस्व है, मेरे स्वामी है, मेरे संरक्षक है। अतः आपसे विनम्र प्रार्थना है कि संकोच त्याग मेरे चिंताकुल मन को सहारा दो, आपकी कृपा से ही मैं जीवित रह सकता हूं। प्रेम का कड़वा फल जानते हुए मैं अपने नेत्रों को तुम्हारी ओर जाने से रोकता हूं कि कहीं रूप जाल में फँसाकर अपना सब कुछ ना गंवा दे और शेष जीवन विरह-यातना में बीते। पर यह आंखें मेरा कहा नहीं मानती और फिर वही होता है जिसकी आशंका थी। मैं रीक्ष के हाथ बिक जाता हूं। वह रीक्ष मुझसे मेरा अधिकार छीन लेती है, मैं उसके हाथों पराजित होकर सब कुछ खो जाता हूं। विवश होकर तुम्हारी प्रेम में पागल बना हुआ हूं।
 
 
'''विशेष १.''' मुहावरा- (धार-मझधार), नेह के तौरियै जु बाहँ डूबोना
 
'''२.''' कवि स्वयं को भाग्यवादी कहते हैं