"हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/भारतेन्दु हरिश्चंद्र एवं उनका मण्डल: साहित्यिक योगदान": अवतरणों में अंतर

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भारतेंदु को हिन्दी में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है। वह एक व्यक्ति से बढ़कर संस्था थे। उन्होंने अपने समानधर्मा लेखकों का मंडल तैयार किया‌ जिसे 'भारतेंदु मंडल' के नाम से जाना जाता है। ‌‌‌‌अपने समय के रचनाकारों के साथ मिलकर उन्होंने हिन्दी साहित्य में एक नवीन युग का सूत्रपात किया। यह नवीन युग काल, प्रवृत्ति, चेतना, विधा हर दृष्टि से नया था। यह नयी चेतना आधुनिकता से‌ सम्पृक्त थी।
भारतेंदु मंडल:— भारतेंदु के व्यक्तित्व की केंद्रीयता से उनके समय में ही गद्य का वृत्त उनके मित्र लेखकों में फैलने लगता है। जिस समुदाय को सामान्यता भारतेंदु मंडल कहकर पुकारा गया। मुद्रण–सुविधाएं और उससे जुड़ी पत्रकारिता के प्रसार से गद्य के महत्व को उत्तरोत्तर अधिक पहचाना जाने लगा। श्री नारायण चतुर्वेदी ने अपने एकेडमी व्याख्यानो में "आधुनिक हिंदी का आदिकाल','हिंदुस्तानी एकेडमी(1973)" कई तरह के साक्ष्यों के आधार पर दिखाया है कि इस आदिकाल में कविता के लोकप्रियता के बीच से फिर आधुनिक खड़ी बोली गद्य का उदय होता है।
 
आधुनिक चेतना के निर्माण और विकास में विभिन्न परिस्थितियों का योगदान है। इस युग के लेखक देश की दुर्दशा पर चिंतित होते हैं। इनके साहित्य में देशानुराग कूट-कूट कर भरा है। भारतेंदुयुगीन साहित्य में चेतना के दो रूप स्पष्ट तौर पर मिलते हैं- राष्ट्रीय और सामाजिक। राष्ट्रीय चेतना का स्वर अंग्रेजी राज और खास तौर पर उसके द्वारा किए जा रहे आर्थिक शोषण का विरोध करता है। वहीं सामाजिक चेतना का स्वर भारतीय समाज में फैली तमाम बुराइयों और रूढ़ियों का विरोध करता है। बाल- विवाह, पर्दा-प्रथा, नारी अशिक्षा, धार्मिक पाखंड जैसी सामाजिक कुरीतियों का खंडन भारतेंदुयुगीन साहित्य का प्रधान लक्ष्य है।
इस पृष्ठभूमि में गद्य के विकास पर टिप्पणी करते हुए चतुर्वेदी कहते हैं "पुस्तकों के सुलभ ना होने से जनता के कंठ से कविता तो उतर सकती है किंतु गद्य कंठस्थ नहीं हो सकता इसलिए गद्य बहुत पिछड़ा हुआ था। इस गद्य के विकास के लिए पश्चिम में स्वामी दयानंद के प्रवचन "शास्त्रार्थ और पत्र-पत्रिकाओं और भाष्यो का लाभ मिल रहा था जिनका नेतृत्व 'भाग्यवती' उपन्यास के लेखक श्रद्धा राम फुलौरी कर रहे थे। पश्चिम में गद्य की सक्रियता के केंद्र में दयानंद थे तो पूर्व में भारतेंदु हरिश्चंद्र।
 
डॉ रामविलास शर्मा ने भारतेंदुयुगीन साहित्य को गदर से प्रभावित मानते हुए उसके जनवादी स्वरूप को स्पष्ट किया है। उनके शब्दों में - '''भारतेंदु युग का साहित्य भारतीय समाज के पुराने ढांचे से संतुष्ट ना रहकर उसमें सुधार भी चाहता है। वह केवल राजनीतिक स्वाधीनता का साहित्य ना होकर मनुष्य की एकता, समानता और भाईचारे का साहित्य भी है। भारतेंदु स्वदेशी आंदोलन के ही अग्रदूत ना थे वह समाज सुधारकों में भी प्रमुख थे।'''
भौगोलिक दृष्टि से भारतेंदु मंडल का विस्तार काशी से दिल्ली तक था। भारतेंदु मंडल के सदस्य माने जाते हैं— स्वयं "भारतेंदु हरिश्चंद्र (काशी), केशवराम भट्ट (पटना), प्रताप नारायण मिश्र (कानपुर), गोस्वामी राधा चरण (वृंदावन), लाला श्रीनिवास दास (दिल्ली), लाला सीताराम (इलाहाबाद), दामोदर शास्त्री सप्रे (काशी), कार्तिक प्रसाद खत्री (काशी), ठाकुर जगमोहन सिंह (काशी) अंबिका दत्त व्यास (काशी) रामकृष्ण वर्मा (काशी) राधा कृष्ण दास (काशी) ।ये लेखक अधिकतर काशी तथा अन्य पूर्वी नगरों के थे। भारतेंदु के व्यक्तित्व का प्रभाव वृत पश्चिम में वृंदावन और दिल्ली तक फैला हुआ था।
 
भौगोलिक दृष्टि से भारतेंदु मंडल का विस्तार काशी से दिल्ली तक था। भारतेंदु मंडल के सदस्य माने जाते हैं— स्वयं "भारतेंदु हरिश्चंद्र (काशी), केशवराम भट्ट (पटना), प्रताप नारायण मिश्र (कानपुर), गोस्वामी राधा चरण (वृंदावन), लाला श्रीनिवास दास (दिल्ली), लाला सीताराम (इलाहाबाद), दामोदर शास्त्री सप्रे (काशी), कार्तिक प्रसाद खत्री (काशी), ठाकुर जगमोहन सिंह (काशी) अंबिका दत्त व्यास (काशी) रामकृष्ण वर्मा (काशी) राधा कृष्ण दास (काशी) ।ये लेखक अधिकतर काशी तथा अन्य पूर्वी नगरों के थे। भारतेंदु के व्यक्तित्व का प्रभाव वृत पश्चिम में वृंदावन और दिल्ली तक फैला हुआ था।
भिन्न-भिन्न विधाओं में प्रयोग के लिए कुछ अलग अलग लेखकों की भी ख्याति कही जा सकती है— जैसे "भारतेंदु (नाटक), श्रद्धा राम फुलौरी तथा लाला श्रीनिवास दास (उपन्यास), बाल कृष्ण और प्रताप नारायण मिश्र (निबंध), बद्रीनारायण चौधरी प्रेमघन (आलोचना)।" भारतेंदु के यहां जो सतरंग फूटा था वह चतुर्दिक प्रकाश बनकर फैल गया।
1868 ई॰ में काशी में अभिनीत शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत 'जानकी मंगल नाटक' आधुनिक इन हिंदी का पहला रंग नाटक कहा जाता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र का इस प्रस्तुति में लक्ष्मण का अभिनय करना प्रसिद्ध है।— "नाटक यदि परंपरा से प्राप्त गधे का सबसे महत्वपूर्ण माध्यम है तो गद्य का आधुनिक काल में विकसित सबसे विशिष्ट माध्यम उपन्यास है। भारतेंदु की दो गद्य रचनाओं को माना जाता है कि वह उपन्यास के रूप में लिखी जाने को थी एक 'पूर्ण प्रकाश चंद्रप्रभा'और दूसरी 'एक कहानी कुछ आप बीती कुछ जगबीती ।"
आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने इतिहास में लिखा है "अंग्रेजी ढंग का मौलिक उपन्यास पहले पहल लाला श्रीनिवास दास का 'परीक्षा गुरु' ही निकला था। 'परीक्षा गुरु' का प्रकाशन 1882 में हुआ। श्रद्धा राम फिल्लौरी का 'भाग्यवती' लिखा तो 1877 में गया पर उसका प्रकाशन प्राय: एक दशक बाद हुआ। दोनों उपन्यासों के उद्धरण नीचे दिए गए हैं। नाटकों की भाषा अधिकतर काल, पात्र, परिस्थिति के अनुसार चलती है उपन्यास की भाषा इस तुलना में अधिक समरस होती है।
भारतेंदु युग का केंद्रीय काव्य रूप नाटक है हिंदीहिन्दी में सैद्धांतिक आलोचना की पहल भारतेंदु कृत लंबे निबंध 'नाटक'(1883) से है। भारतेंदु के 'नाटक' शीर्षक निबंध के प्रकाशन के तीन वर्ष बाद 1886 में लाला श्रीनिवास दास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर'(1885) की समीक्षा बालकृष्ण भट्ट अपने पत्र 'हिंदीहिन्दी प्रदीप' में प्रकाशित की और प्रेमघन ने 'आनंदकादंबिनी' में भारतेंदु मंडल के सक्रिय होते होते समूची आधुनिक गद्य धारा एकबारगी गतिशील हो उठती है ।
हिंदी में इस युग के अन्य भाषी लेखक थे 'माधव राव सप्रे (मराठी), लज्जाराम मेहता (गुजराती) तथा अमृतलाल चक्रवर्ती (बांग्ला)। इस युग के प्रतिनिधि निबंधकार बालकृष्ण भट्ट और प्रताप नारायण मिश्र के गद्य से यहां उद्धरण दिए जा रहे हैं—
परीक्षा— "यह तीन अक्षर का शब्द ऐसा भयानक है कि त्रिलोक्य की बुरी बला इसी में भरी है। परमेश्वर ना करें कि इसका सामना किसी को करना पड़े ।
 
भारतेंदु की साहित्यिक योगदान:— भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना संपूर्ण जीवन हिंदीहिन्दी साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया। इसी कारण इन्हें विद्वानों द्वारा सन 1880 ई॰ में भारतेंदु की उपाधि से सम्मानित किया गया।दिया‌। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदीहिन्दी नाटक, गद्य, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त वे पत्रकार,वक्ता,निबंधकार एवं उत्कृष्ट कवि भी थे।
(प्रताप नारायण मिश्र:–परीक्षा)
रुचि:— रुचि ही के जूदे–जूदे प्रकारांतर या उसकी बारीकियां फैशन के नाम से चल पड़े हैं। इस नई सभ्यता के जमाने में जिसकी हद से ज्यादह छानबीन हो रही है।—
 
(बालकृष्ण भट्ट:– रुचि)
भारतेंदु युग का केंद्रीय काव्य रूप नाटक है हिंदी में सैद्धांतिक आलोचना की पहल भारतेंदु कृत लंबे निबंध 'नाटक'(1883) से है। भारतेंदु के 'नाटक' शीर्षक निबंध के प्रकाशन के तीन वर्ष बाद 1886 में लाला श्रीनिवास दास के नाटक 'संयोगिता स्वयंवर'(1885) की समीक्षा बालकृष्ण भट्ट अपने पत्र 'हिंदी प्रदीप' में प्रकाशित की और प्रेमघन ने 'आनंदकादंबिनी' में भारतेंदु मंडल के सक्रिय होते होते समूची आधुनिक गद्य धारा एकबारगी गतिशील हो उठती है ।
 
भारतेंदु की साहित्यिक योगदान:— भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपना संपूर्ण जीवन हिंदी साहित्य की सेवा में समर्पित कर दिया। इसी कारण इन्हें विद्वानों द्वारा सन 1880 ई॰ में भारतेंदु की उपाधि से सम्मानित किया गया। भारतेंदु बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। हिंदी नाटक,गद्य, कविता और पत्रकारिता के क्षेत्र में इनका योगदान अविस्मरणीय है। इसके अतिरिक्त वे पत्रकार,वक्ता,निबंधकार एवं उत्कृष्ट कवि भी थे।
हिंदीहिन्दी साहित्य में खड़ी बोली में नाटक का शुरुआत का श्रेय भारतेंदु को जाता है। इन्होंने हिंदीहिन्दी साहित्य में 72 ग्रंथों की रचना कर हिंदी भाषा को नई बुलंदियों पर पहुंचा दिया। इसलिए सनसन् 1850–1900 के कालखंड को भारतेंदु युग के नाम से जाना जाता है। इन्होंने अपने युग के रचनाकारों को अलौकिक जगत से हटकर समाज में फैली कुरीतियों एवं मानव तथा तर्क पर आधारित रचना लिखने को प्रोत्साहित किया ।
सन् 1868 ई॰ में महज 18 वर्ष की आयु में उन्होंने 'कवि वचन सुधा' नामक पत्रिका प्रकाशित की जिसमें उस वक्त के बड़े-बड़े विद्वानों की कृतियां छपती थी। सन् 1873 ई॰ में 'हरिश्चंद्र मैगजीन' एवं 1874 ई॰ में स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 'बालबोधिनी' नामक पत्रिका प्रकाशित किया। इन्होंनेउन्होंने हिंदीहिन्दी साहित्य के दायरे कोका चतुर्मुखी विकास किया। उनके लेखन में दोहा, चौपाई, हरिगीतिका, छंद, कवित्त, सवैया आदि में उत्कृष्टता का परिचय मिलता है। सुमित्रानंदन पंत इनके हिंदी साहित्य में योगदान की प्रशंसा करते हुए लिखते हैं।—
<Poem><center>"भारतेंदु कर गए, भारती की वीणा निर्माण ।निर्माण।
किया अमर स्पर्शो में, जिसका बहुविधि स्वर संधान ।।संधान।।"</center></poem>
भारतेंदु से पहले हिंदीहिन्दी भाषा शैली के दो रूप राजा लक्ष्मण सिंह की संस्कृतनिष्ठ भाषा शैली और दूसरी राजा शिवप्रसाद सितारे हिंद की फारसी मिश्रित हिंदीहिन्दी भाषा शैली चरम थे। दोनों ही शैलीया आम बोलचाल में जटिल थी। भारतेंदु ने इन दोनों में से कठिन शब्द निकालकर सरल खड़ी बोली को हिंदी साहित्य में शामिल किया ।
सन् 1873 में अपनी पत्रिका 'हरिश्चंद्र मैगजीन' में हिंदीहिन्दी भाषा की नई शैली खड़ी बोली को जन्म दिया। भारतेंदु से पूर्व नाटकों धार्मिक भावनाओं पर आधारित थे। उन्होंने नाटकों में सामाजिक, राजनीतिक, ऐतिहासिक, पौराणिक विषयों को शामिल किया।
भारतेंदु के प्रमुख नाटक है। — "भारत दुर्दशा, अंधेर नगरी, प्रेम योगिनी, मुद्राराक्षस" जिनका आज भी रंगमंच पर मंचन किया जाता है। उन्होंने कुल 17 नाटकों की रचना की जिनमें मौलिक नाटक और अनूदित नाटक शामिल थे। भारतेंदु गद्य के लिए तो खड़ी बोली का प्रयोग करते थे किंतु पद्य ब्रजभाषा में रचते थे। उन्होंने अपने छोटे से जीवन काल में 48 प्रबंध काव्य, 21 काव्य ग्रंथ एवं मुक्तक रच डाले थे। 'कुछ आप बीती कुछ जगबीती' नामक उनकी उपन्यास की रचना उनकी असमय मृत्यु के कारण अधूरा रह गया जिसे लाला श्रीनिवास दास ने पहला उपन्यास 'परीक्षा गुरु' के नाम से लिखकर पूरा किया।
मातृ भाषा की सेवा में उन्होंने अपना जीवन ही नहीं संपूर्ण धन भी अर्पित कर दिया। हिंदी भाषा की उन्नति का उनका मूल मंत्र था।
<Poem><center>"निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूलमूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे ना हिय को शूल ।।"</center></poem>
 
हिंदी को न्यायालयों की भाषा बनाने की महत्ता पर उन्होंने कहा।—
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदीहिन्दी साहित्य कोश के एक दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
"यदि हिंदी अदालती भाषा हो जाए, तो सम्मन पढ़ाने के लिए दो चार आने कौन देगा ।........
तब पढ़ने/बुद्धिजीवियों वालों को यह अवसर कहां मिलेगा की गवाही के सम्मन को गिरफ्तारी का वारंट बता दे।".......
अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण भारतेंदु हिंदी साहित्य कोश के एक दैदीप्यमान नक्षत्र बन गए और उनका युग भारतेंदु युग के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
भारतेंदु को भारत में नवजागरण का अग्रदूत माना जाता है 1971 की चर्चित फिल्म 'आनंद' की यह डायलॉग "जिंदगी लंबी नहीं...बड़ी होनी चाहिए....यह फलसफा हिंदीहिन्दी साहित्य के महान विभूति 'भारतेंदु हरिश्चंद्र' पर सटीक बैठता है जिन्होंने अपने 35 वर्ष की अल्पायु में हिंदीहिन्दी भाषा को चरम उत्कर्ष पर पहुंचा दिया ।"