"राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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पंक्ति ६३:
दृक्कालिमा में डूबकर तैयार होकर सर्वथा।
स्वच्छन्दता से कर तुझे करने पड़ें प्रस्ताव जो,
जग जायें तेरी नोंक से सोये हुए हों भाव जो</poem>
 
संसार में किसका समय है एक सा रहता सदा,
हैं निशि दिवा सी घूमती सर्वत्र विपदा-सम्पदा।
जो आज एक अनाथ है, नरनाथ कल होता वही;
जो आज उत्सव मग्र है, कल शोक से रोता वही</poem>