"राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त": अवतरणों में अंतर

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झांसी रियासत हमेशा प्रजाति की हिफाजत को सर्वोच्च प्राथमिकता देती थी। कनकने परिवार के मुखिया '''सेठ राम चरण दास''' ने सुरक्षित होकर कारोबार किया और बेशुमार दौलत कमाई उनके पास अनेक रथ, घोड़ा, गाड़ियां और वगिया थी सैकड़ों नौकर चाकर थे कोठीया थी। लाड प्यार में पलकर बड़े हुए '''मैथिलीशरण''' का मन खेलने कूदने में बहुत लगता था पढ़ाई लिखाई में ज्यादा होशियार नहीं थे लेकिन पिताजी ने घर पर एक पंडित जी को भी लगा दिया। वो चाहते थे बेटा डिप्टी कलेक्टर बनें लेकिन नियति ने रास्ता कुछ और ही तय कर दिया था। तीसरे दर्जे तक मदरसे में तालीम के बाद पिताजी ने झांसी के मैकडॉनल्ड हाई स्कूल में दाखिला करा दिया। झांसी में जब यह स्कूल बनाया गया था तब उसमें '''सेठ राम चरण कनकने''' ने सबसे ज्यादा तीन हजार रुपए दान दिए थे उस जमाने के तीन हजार माने आज के करीब एक करोड़ रुपए।
 
झांसी में भी मैथिलीशरण का मन पढ़ाई में नहीं लगा। दिन दिन भर चकरी चलाते और पतंग उड़ाने का तो जैसीजैसा जुनून था। जब भी कोई बारात या दूसरे गांव किसी जलसे में जाते तो पतंग उड़ाने वाले दोस्त भी ले जाते। दरअसल अंग्रेजी दर्जे की पढ़ाई से मैथिलीशरण चिढ़ने लगें थे। मैथिलीशरण की नियति इम्तिहान ले रही थी पत्नी और बच्चों की यादों से निकले ही ना थे कि पिताजी हमेशा के लिए छोड़ गए। बड़ा झटका पति के जाने से मां को लगा और अगले साल वह भी चल बसी। घर के व्यापार में लाखों का घाटा हुआ। जवान हो रहे मैथिलीशरण टूट गए। परेशान रिश्तेदारों ने '''1904''' में दूसरी शादी करा दी। यह विवाह भी केवल 10 साल चला और दूसरी पत्नी भी चल बसी। मैथिलीशरण उन दिनों बस 28 साल के थे। कम उम्र में ही वो माता पिता से पिछोर, दो पत्नियों का गम और कारोबार में लाखों का घाटा देख चुके थे। जाति जिंदगी का खालीपन जवान मैथिलीशरण ने शब्दों से बांट लिया। उन्होंने कविता, दोहदोहा, चौपाई, छप्पाय आदि लिखने शुरू कर दिए। वो ये कविताएं रसिकेंद्र उपनाम से लिखा करते और अलग-अलग पत्रिकाओं में छपने के लिए भेजा करते थे।
 
1904 और 1905 के बीच उनकी रचनाएं कोलकाता की '''वैश्योपकारक''', बंबई की '''वेंकटेश्वर''' और कन्नौज की '''मोहिनी''' पत्रिका में प्रकाशित होती रही। उन्हीं दिनों हिंदी के पूर्वथा '''पं महावीर प्रसाद द्विवेदी''' झांसी रेलवे में काम करते थे और वही से '''सरस्वती पत्रिका''' का संपादन करते थे। सरस्वती इलाहाबाद से प्रकाशित होती थी और उस दौर की हिंदी में सबसे अच्छी पत्रिका थी। सरस्वती में छपना किसी भी लेखक के लिए सम्मान की बात थी। एक दिन मैथिलीशरण हिम्मत कर महावीर प्रसाद जी से मिलने गए। कौन जानता था की यह मुलाकात जिंदगी बदल देंगी। दोनों के बीच दिलचस्पी संवाद हुआ जो इस प्रकार था।