"अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य/दलित कविता": अवतरणों में अंतर

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अछूतानंद - दलित कहाँ तक पड़े रहेंगे

<poem>{{block center|ये आदि हिंद, अछूत, पीड़ित, दलित कहाँ तक पड़े रहेंगे? प्रबल अनल के प्रचंड शोले, जमीं में कब तक गड़े रहेंगे? स्वभाव आखिर अनल तो अपना बता ही देगा बता ही देगा। धधकती आग में धुंधकारी-सरीखे कब तक खड़े रहेंगे? नहीं उचित है, निर्बल को अब तो सताना, दुःसह दुखों का देना। विसूवियस गिरि समान ज्वालामुखी तड़पकर अड़े रहेंगे। हे आत्म-ज्ञानी, ऐ संत-पुत्रों जरा न तुमको हया-शरम है। ग़ुलामी करने को आँख मूँदे बताओ कहाँ तक अड़े रहेंगे? तुम्हारे मत से यह शूद्र कब से? बताओ किसने बनाया इनको? तुम्हारी खातिर गरीब मानव कहाँ लौं, कब लौं सड़े रहेंगे? जिसे पुकारें समान-दर्शी वह जुल्म कैसे करेगा इन पर? तो कैसे उसके अनंत लोकों के जर्रे-जर्रे घिरे रहेंगे? जरूर ही ये तुम्हारे खुद के रचे हुए हैं तमाम पाखंड। दयालु प्रभु के विधान क्या कभी भी ऐसे कड़े रहेंगे? खुदी में आकर तुम्हीं ने इनको शहर बदर भी करा दिए हैं। ये ऊँचेपन के गुरूर कब तक तुम्हारे दिल में भरे रहेंगे? इन्हीं की हस्ती मिटाने वालो, मिटोगे आखिर इन्हीं के आगे। गरीब निर्बल सता के किसके सुमन हमेशा हरे रहेंगे? दलित प्रवंचित अछूत जिस दिन तमाम हिलमिल के एक होंगे। मनुस्मृति के अमानुषी ये विधान तब क्या धरे रहेंगे? ये सारी दुनियाँ की आज कौमें हकों को अपने बँटा रही हैं। अछूत भारत के क्या हमेशा इसी तरह से डरे रहेंगे? जो एक नेशन है कौम हिंदू, तो नीच क्यों कर इन्हें बताते। ये हीरा-मोती समान सिर पर तुम्हारे एक दिन जड़े रहेंगे? जो काटते खुद हैं जड़ को अपनी, फल के चाखने की आस करते। तुम्हीं बताओ वह कैसे जीवित औ लहलहाते हरे रहेंगे? जो चाहते हो कि शक्तिशाली हो एक दुनिया का देश भारत। तो रोटी-बेटी से फिर 'हरिहर' कहो तो कब तक फिरे रहेंगे?