"अस्मितामूलक विमर्श और हिंदी साहित्य/दलित कविता": अवतरणों में अंतर

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=== माता प्रसाद ===
'''सोनवा का पिंजरा'''
<poem>नाम मुसहरवा है, कवनउ हरवा ना,
कैसे बीते जिनगी हमार। (टेक)
जेठ दुपहरिया में सोढ़िया चिराई करीं,
बहै पसिनवाँ के धार।
बेंहगी में बाँधि लेइ चललीं लकड़िया,
आधे दाम माँगे दुतकार॥1॥
 
रहइ के जगह नाहीं, जोतइ के जमीन कहाँ,
कहें देबे गाँव से निसार।
घरवा के नमवाँ पै एकही मड़ैया में,
ससुई पतोहु परिवार॥2॥
 
मेघा और मगर गोह, साँप मूस खाई हम,
करी गिलहरिया शिकार।
कुकुरा के साथ धाई जुठली पतरिया पै,
पेटवा है पपिया भड़ार॥3॥
 
तनवा पै हमरे तो, फटहा बसनवा बा,
ओढ़ना के नाहीं दरकार।
जड़वा कइ राति मोरि, किकुरी लगाइ बीते,
कउड़ा है जीवन अधार॥4॥
 
अब ढकेलहिया में पतवा मिलत नाहीं,
कैसे बनई पतरी तोहार।
दुलटा दुलहिनी के डोली लै धावत रहे,
उहौरोजी छीनी मोटर कार॥5॥
 
मारे थानेदरवा बोलाइ, घरवा से हमें,
झूठइ बनावें गुनहगार।
जेलवा में मलवा उठावै मजबूर करैं,
केउ नहिं सुनत गोहार॥6॥
 
देशवां आजाद अहै हम तो गुलमवाँ,
हमरे लिये न सरकार।
एस कौनउ जुगुति लगावा भइया 'मितई',
हमरउ करावा उरघार॥7॥</poem>
 
==संदर्भ==
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