"भारतीय काव्यशास्त्र/काव्य प्रयोजन": अवतरणों में अंतर

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==निष्कर्ष==
उपर्युक्त आचार्यों के मत का अध्ययन करते हुए हम कह सकते हैं काव्य की रचना किंचित उद्देश्य को ध्यान में रखकर की जाती है। काव्य के द्वारा कवि जीवन का परिष्कार करता है। भारतीय साहित्य का प्रधान लक्ष्य रस का उद्रेक होते हुए भी प्रकारांतर से जीवनमूल्यों का उत्थान एवं सामाजिक कल्याण है। भारतीय परंपरा में काव्य या साहित्य 'सत्यं शिवं सुंदरं' का सच्चा वाहक है। सत्य (यथार्थ) और शिव (कल्याणकारी) हुए बिना किसी भी कृति का सुंदर होना असंभव है। कदाचित इसीलिए हिंदी आलोचना ने भी लोकमंगल एवं जनपक्षधरता को साहित्य का वांछित प्रयोजन स्वीकार किया है।
भारतीय संस्कृत आचार्यों की दृष्टि सदैव इस बात पर रही कि कवित्व शक्ति एक दुर्लभ व श्रेष्ठ प्रतिभा है। इसका दुरूपयोग करने के लिए न तो कोई मजबूर हो और न तो खुद से करना चाहे। जैसे कालिदास द्वारा रचित कुमारसम्भवम् से उनको कुष्ठ रोग होना बताया जाता है तो इसका यही कारण है कि वे अपनी प्रतिभा को गलत तरीके से काव्य में नियोजित करते हैं। फिर रघुवंश महाकाव्य द्वारा उस रोग से मुक्ति हासिल करते हैं। काव्य रचना स्वयमेव एक उत्तम पुरुषार्थ है। लोकहित और लोकरंजन के लिए अपने को समर्पित करने वाले व्यक्ति को न तो अलग से किसी पुरुषार्थ सिद्धयुपायसिद्धउपाय करने की जरूरत है और न ही उसे स्वयं चिन्तित होना चाहिए। काव्य रचना को हमारे यहाँ साधना का दर्जा दिया गया है। इसलिए इसकी रचना से निर्माता और पाठक दोनों का हित पोषण प्राप्त करता है। अवांछनीय तरीके से इसका दुरूपयोग करने से उत्पन्न अव्यवस्था के प्रति सचेत रहते हुए आचार्यों द्वारा मूलतः यह स्थापित किया गया है कि काव्य रचना का प्रयोजन उदात्त होना चाहिए क्योंकि यह अपने प्रभाव में लोक को व्याप्त करके उसे सुव्यवस्थित या पथभ्रष्ट करने की संभावनाओं से लैसयुक्त है। काव्य लोक का पथप्रदर्शक बने और शांति व सुव्यवस्था लाने का माध्यम बने, कवि की दुर्लभ प्रतिभा समाज के लिए उपयोगी हो, इसकी चिन्ता व निर्देश के रूप में काव्य प्रयोजन की अवधारणाओं का विकास हुआ है।
 
==संदर्भ==