"हिन्दी कहानी/उसने कहा था": अवतरणों में अंतर

पंक्ति १:
<center><big>उसने कहा था<br>चंद्रधर शर्मा गुलेरी</big></center>
बड़े-बडे़ शहरों के इक्के-गाड़ी वालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बम्बू कार्ट वालों की बोली का मरहम लगावे। जबकि बड़े शहरों की चौड़ी सड़को पर घोड़े की पीठ को चाबुक से धुनते हुए इक्के वाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट यौन-संबंध स्थिर करते हैं, कभी उसके गुप्त गुह्य अंगो से डाक्टर को लजाने वाला परिचय दिखाते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखो के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरो की अंगुलियों के पोरों की चींथकर अपने ही को सताया हुआ बताते हैं और संसार भर की ग्लानि और क्षोभ के अवतार बने नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरी वाले तंग चक्करदार गलियों में हर एक लडढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर-- बचो खालसाजी, हटो भाईज', ठहरना भाई, आने दो लालाजी, हटो बाछा कहते हुए सफेद फेटों , खच्चरों और बतको, गन्ने और खोमचे और भारे वालों के जंगल से राह खेते हैं । क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नही कि उनकी जीभ चलती ही नही, चलती है पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चिटौनी देने पर भी लीक से नही हटती तो उनकी वचनावली के ये नमूने हैं-- हट जा जीणे जोगिए, हट जा करमाँ वालिए, हट जा, पुत्तां प्यारिए. बच जा लम्बी वालिए। समष्टि में इसका अर्थ हैं कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रो को प्यारी है, लम्बी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहियो के नीचे आना चाहती है? बच जा। ऐसे बम्बू कार्ट वालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पडता था कि दोनो सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेशी से गुथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ो की गड्डी गिने बिना हटता न था।
;1:
-- तेरा घर कहाँ है?
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढी वाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाईजी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्नें और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं - हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।
-- मगरे में। ...और तेरा?
-- माँझे में, यहाँ कहाँ रहती है?
-- अतरसिंह की बैठक में, वह मेरे मामा होते हैं।
-- मैं भी मामा के आया हूँ, उनका घर गुरु बाजार में है।
इतने में दुकानदार निबटा और इनका सौदा देने लगा। सौदा लेकर दोनो साथ-साथ चले। कुछ दूर जाकर लड़के ने मुसकरा कर पूछा-- तेरी कुड़माई हो गई? इस पर लड़की कुछ आँखे चढ़ाकर 'धत्' कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह देखता रह गया।
 
ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में हो कर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता नथा।
'तेरे घर कहाँ है?'
'मगरे में; और तेरे?'
'माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?'
'अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।'
'मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बजार में हैं।'
 
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, - 'तेरी कुड़माई हो गई?' इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
दूसरे तीसरे दिन सब्जी वाले के यहाँ, या दूध वाले के यहाँ अकस्मात् दोनो मिल जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा-- तेरे कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसी ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली-- हाँ, हो गई।
-- कब?
-- कल, देखते नही यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू। ... लड़की भाग गई।
लड़के ने घर की सीध ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छाबड़ी वाले की दिन भर की कमाई खोई, एक कुत्ते को पत्थर मारा और गोभी वाले ठेले में दूध उंडेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अन्धे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
 
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही 'धत्' मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली - 'हाँ हो गई।'
'कब?'
'कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।' लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
 
;2:
 
'राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं।लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; - घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगतीहै। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।'
-- होश में आओ। कयामत आयी है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आयी है।
-- क्या? -- लपचन साहब या तो मारे गये हैं या कैद हो गये हैं। उनकी वर्दी पहन कर कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नही देखा। मैने देखा है, और बातें की हैं। सौहरा साफ़ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है।
-- तो अब? -- अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाई पर धावा होगा उधर उन पर खुले में धावा होगा। उठो, एक काम करो। पलटन में पैरो के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गये होंगे। सूबेदार से कहो कि एकदम लौट आवें। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से ही निकल जाओ। पत्ता तक न खुड़के। देर मत करो।'
-- हुकुम तो यह है कि यहीं...
-- ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम है... जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सबसे बड़ा अफ़सर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की ख़बर लेता हूँ।
-- पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।
-- आठ नही, दस लाख। एक एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।
लौटकर खाई के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जाकर एक दियासलाई जलाकर गुत्थी रखने... बिजली की तरह दोनों हाथों से उलटी बन्दूक को उठाकर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तानकर दे मारा । धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी । लहनासिंह ने एक कुन्दा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'आँख! मीन गाट्ट' कहते हुए चित हो गये। लहनासिंह ने तीनो गोले बीनकर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीटकर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफ़ाफ़े और एक डायरी निकाल कर उन्हे अपनी जेब के हवाले किया।
 
'लहना सिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आजाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सोरहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में - मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध कीवर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरेमुल्क को बचाने आए हो।'
 
'चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़ेसिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेलामार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजीकहीं के, कलों के घोड़े - संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगतेहैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था - चारमील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो - '
साहब की मूर्च्छा हटी। लहना सिह हँसकर बोला-- क्यो, लपटन साहब, मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं । यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं । यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगायें होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं । यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियो पर जल चढाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढते हैं । पर यह तो कहो, ऐसी साफ़ उर्दू कहाँ से सीख आये? हमारे लपटन साहब तो बिना 'डैम' के पाँच लफ़्ज भी नही बोला करते थे ।
 
'नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?' सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा करकहा -'लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचतेहैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?'
 
'सूबेदार जी, सच है,' लहनसिंह बोला - 'पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों मेंतो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे कीबावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।'
लहनासिंह ने पतलून की जेबों की तलाशी नही ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए दोनो हाथ जेबो में डाले। लहनासिंह कहता गया-- चालाक तो बड़े हो, पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखे चाहिएँ। तीन महीने हुए एक तुर्की मौलवी मेरे गाँव में आया था। औरतो को बच्चे होने का ताबीज बाँटता था और बच्चो को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछाकर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनी वाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमे से विमान चलाने की विद्या जान गये हैं। गौ को नही मारते। हिन्दुस्तान में आ जायेंगे तो गोहत्या बन्द कर देगे। मंडी के बनियो को बहकाता था कि डाकखाने से रुपये निकाल लो, सरकार का राज्य जाने वाला है। डाक बाबू पोल्हू राम भी डर गया था। मैने मुल्ला की दाढी मूंड़ दी थी और गाँव से बाहर निकालकर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रखा तो -- साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हेनरी मार्टिन के दो फ़ायरो ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी।
धडाका सुनकर सब दौड़ आये।
बोधा चिल्लाया-- क्या है?
लहनासिंह में उसे तो यह कह कर सुला दिया कि 'एक हडका कुत्ता आया था, मार दिया' और औरो से सब हाल कह दिया। बंदूके लेकर सब तैयार हो गये । लहना ने साफ़ा फाड़ कर घाव के दोनो तरफ पट्टियाँ कसकर बांधी । घाव माँस में ही था। पट्टियो के कसने से लूह बन्द हो गया।
इतने में सत्तर जर्मन चिल्लाकर खाई में घुस पड़े। सिखो की बंदूको की बाढ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहना सिंह तक-तक कर मार रहा था। वह खड़ा था औऱ लेटे हुए थे) और वे सत्तर । अपने मुर्दा भाईयों के शरीर पर चढ़कर जर्मन आगे घुसे आते थे । थोड़े मिनटो में वे... अचानक आवाज आयी -- 'वाह गुरुजी की फतह ! वाहगुरु दी का खालसा!' और धड़ाधड़ बंदूको के फायर जर्मनो की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्कों के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने से लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछे वालो ने भी संगीन पिरोना शुरु कर दिया ।
एक किलकारी और-- 'अकाल सिक्खाँ दी फौज आयी। वाह गुरु जी दी फतह! वाह गुरु जी दी खालसा! सत्त सिरी अकाल पुरुष! ' और लड़ाई ख़तम हो गई। तिरसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिक्खो में पन्द्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कन्धे में से गोली आर पार निकल गयी। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मिट्टी से पूर लिया। और बाकी का साफ़ा कसकर कमर बन्द की तरह लपेट लिया। किसी को ख़बर नही हुई कि लहना के दूसरा घाव -- भारी घाव -- लगा है। लड़ाई के समय चांद निकल आया था। ऐसा चांद जिसके प्रकाश से संस्कृत कवियो का दिया हुआ 'क्षयी' नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी कि बाणभट्ट की भाषा में 'दंतवीणो पदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मनभर फ्रांस की भूमि मेरे बूटो से चिपक रही थी जब मैं दौडा दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिह से सारा हाल सुन और कागजात पाकर उसकी तुरन्त बुद्धि को सराह रहे थे और कर रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते। इस लड़ाई की आवाज़ तीन मील दाहिनी ओर की खाई वालों ने सुन ली थी। उन्होने पीछे टेलिफ़ोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चली, जो कोई डेढ घंटे के अन्दर अन्दर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नज़दीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएंगे, इसलिए मामूली पट्टी बांधकर एक गाड़ी में घायल लिटाये गए और दूसरी में लाशें रखी गईं। सूबेदार ने लहनासिह की जाँघ में पट्टी बंधवानी चाही। बोधसिंह ज्वर से बर्रा रहा था। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है, सवेरे देखा जायेगा। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोडकर सूबेदार जाते नही थे। यह देख लहना ने कहा-- तुम्हे बोधा की कसम हैं और सूबेदारनी जी की सौगन्द है तो इस गाड़ी में न चले जाओ।
-- और तुम?
-- मेरे लिए वहाँ पहुँचकर गाड़ी भेज देना। और जर्मन मुर्दो के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होगीं। मेरा हाल बुरा नही हैं। देखते नही मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।
-- अच्छा, पर...
-- बोधा गाड़ी पर लेट गया। भला, आप भी चढ़ आओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो तो मेरा मत्था टेकना लिख देना।
-- और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझ से जो उन्होने कहा था, वह मैंने कर दिया।
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा-- तूने मेरे और बोधा के प्राण बचाये हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी से तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?
-- अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैने जो कहा, वह लिख देना और कह भी देना।
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। --वजीरा, पानी पिला दे और मेरा कमरबन्द खोल दे। तर हो रहा है।
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ़ हो जाती है। जन्मभर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यो के रंग साफ़ होते है, समय की धुन्ध बिल्कुल उन पर से हट जाती है। लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं उसे आठ साल की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है कि तेरी कुड़माई हो गई? तब वह 'धत्' कहकर भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा तो उसने कहा--हाँ, कल हो गयी, देखते नही, यह रेशम के फूलों वाला सालू? यह सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ । क्यों हुआ?
-- वजीरासिंह पानी पिला दे।
 
'उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं कापानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।' - यहकहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।
 
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहरफेंकता हुआ बोला - 'मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण !' इसपर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।
पच्चीस वर्ष बीत गये। अब लहनासिंह नं. 77 राइफ़ल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा, न मालूम वह कभी मिली थी या नही। सात दिन की छुट्टी लेकर ज़मीन के मुकदमे की पैरवी करने वह घर गया। वहाँ रेजीमेंट के अफ़सर की चिट्ठी मिली। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं, लौटते हुए हमारे घर होते आना। साथ चलेंगे।
सूबेदार का घर रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा। जब चलने लगे तब सूबेदार बेडे़ में निकल कर आया। बोला-- लहनासिंह, सूबेदारनी तुमको जानती है। बुलाती है। जा मिल आ।
लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती है? कब से? रेजीमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाज़े पर जाकर 'मत्था टेकना' कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
-- मुझे पहचाना?
-- नहीं।
-- 'तेरी कुड़माई हो गयी? ... धत्... कल हो गयी... देखते नही, रेशमी बूटों वाला सालू... अमृतसर में...
भावों की टकराहट से मूर्च्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
-- वजीरासिंह, पानी पिला -- उसने कहा था ।
स्वप्न चल रहा हैं । सूबेदारनी कह रही है-- मैने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में ज़मीन दी है, आज नमकहलाली का मौक़ा आया है। पर सरकार ने हम तीमियो की एक घघरिया पलटन क्यो न बना दी जो मै भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भरती हुए उसे एक ही वर्ष हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नही जिया । सूबेदारनी रोने लगी-- अब दोनों जाते हैं । मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन टाँगे वाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाये थे। आप घोड़ो की लातो पर चले गये थे। और मुझे उठाकर दुकान के तख्त के पास खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे मैं आँचल पसारती हूँ।
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गयी। लहनासिंह भी आँसू पोछता हुआ बाहर आया।
-- वजीरासिंह, पानी पिला -- उसने कहा था।
 
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा - 'अपनी बाड़ी केखरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।'
 
'हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीनयहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।'
 
'लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम - '
'चुप कर। यहाँवालों को शरम नहीं।'
'देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तंबाखू नहीं पीते। वहसिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हटता हूँ तोसमझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेग़ा नहीं।'
'अच्छा, अब बोधसिंह कैसा है?'
'अच्छा है।'
 
'जैसे मैं जानता ही न होऊँ ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ीके सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी केतख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना।जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।'
 
'मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह कीगोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छायाहोगी।'
 
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा - 'क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरेंजर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे -
 
दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए -
(ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
कद्दू बणाया वे मजेदार गोरिए,
हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
 
कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, परसारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोतेऔर मौज ही करते रहे हों।
 
;3:
 
दोपहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटोंके तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोटओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है औरएक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
 
'क्यों बोधा भाई, क्या है?'
 
'पानी पिला दो।'
 
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा - 'कहो कैसे हो?' पानी पी करबोधा बोला - 'कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहेहैं।'
'अच्छा, मेरी जरसी पहन लो !'
'और तुम?'
'मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।'
'ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए - '
'हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत सेबुन-बुन कर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।' यों कह कर लहना अपना कोटउतार कर जरसी उतारने लगा।
'सच कहते हो?'
'और नहीं झूठ?' यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी औरआप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथाकेवल कथा थी।
 
आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई - 'सूबेदार हजारासिंह।'
'कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!' - कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामनेहुआ।
 
'देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मनखाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेतकाट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आयाहूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जबतक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।'
 
'जो हुक्म।'
 
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसेरोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशाराकिया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जतहुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहनाकी सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे।दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढा कर कहा - 'लो तुम भी पियो।'
 
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला - 'लाओसाहब।' हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे।तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गएऔर उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?' शायद साहब शराब पिए हुए हैं औरउन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहबपाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
 
'क्यों साहब, हमलोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?'
 
'लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?'
 
'नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछेहम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे -
 
'हाँ, हाँ - '
 
'वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एकमंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का - सामने से वह नील गायनिकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी औरपुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमलेसे तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैसमें लगाएँगे।'
 
'हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया - '
 
'ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?'
 
'हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?'
 
'पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ' - कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अबउसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
 
अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।
 
'कौन? वजीरासिंह?'
 
'हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?'
 
;4:
'होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।'
 
'क्या?'
 
'लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोईजर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है।सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?'
 
'तो अब!'
 
'अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँखाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
 
सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे सेनिकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।'
 
'हुकुम तो यह है कि यहीं - '
 
'ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम - जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब सेबड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।'
 
'पर यहाँ तो तुम आठ है।'
 
'आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।'
 
लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटनसाहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक कीदीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत कीएक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला करगुत्थी पर रखने -
 
इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह नेसाहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिरपड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब 'ऑख! मीन गौट्ट' कहतेहुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब कोघसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरीनिकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
 
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला - 'क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसाहै? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा किजगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं।यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते परचढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिनडेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।'
 
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने केलिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
 
लहनासिंह कहता गया - 'चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहबके साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकीमौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों कोदवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहताथा कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने कीविद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंदकर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रूपया निकाल लो। सरकार काराज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ीमूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खातो - '
 
साहब की जेब में से पिस्तौल चला और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना कीहैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़आए।
 
बोधा चिल्लया - 'क्या है?'
 
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मारदिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफाफाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियोंके कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
 
इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिक्खों की बंदूकों कीबाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक करमार रहा था - वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयोंके शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनिटों में वे - अचानक आवाजआई, 'वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायरजर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आगए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह केसाथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू करदिया।
 
एक किलकारी और - अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दाखालसा ! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहेथे या कराह रहे थे। सिक्खों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधेमें से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव कोखंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेटलिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव - भारी घाव लगा है।
 
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों कादिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषामें 'दंतवीणोपदेशाचार्य' कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांसकी भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था।सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराहरहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
 
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंनेपीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँचलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबहहोते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायललिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टीबँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा।बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ करसूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा - 'तुम्हें बोधा की कसम है, औरसूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।'
 
'और तुम?'
 
'मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तोगाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंहमेरे पास है ही।'
 
'अच्छा, पर - '
 
'बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ कोचिठ्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसेजो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।'
 
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा - 'तैनेमेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनीको तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?'
 
'अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।'
 
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। 'वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तरहो रहा है।'
 
;5:
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँएक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंधबिल्कुल उन पर से हट जाती है।
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले केयहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वहपूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसेही पूछा, तो उसने कहा - 'हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुःख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
 
'वजीरासिंह, पानी पिला दे।'
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठवर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन कीछुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट केअफसर की चिठ्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदारहजारासिंह की चिठ्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुएहमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था औरसूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
 
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला - 'लहना, सूबेदारनीतुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।' लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझेजानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहेनहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
 
'मुझे पहचाना?'
'नहीं।'
'तेरी कुड़माई हो गई - धत् - कल हो गई - देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में -
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
'वजीरा, पानी पिला' - 'उसने कहा था।'
 
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है - 'मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया।एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियोंकी एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एकबेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भीनहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिनमेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान केतख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है।तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।
 
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
 
'वजीरासिंह, पानी पिला' -'उसने कहा था।'
 
लहना का सिर अपनी गोद में रक्खे वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानीपिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला - 'कौन ! कीरतसिंह?'
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा - 'हाँ।'
'भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।' वजीरा ने वैसे हीकिया।
'हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजादोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिसमहीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।' वजीरासिंह के आँसूटप-टप टपक रहे थे।
 
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढा -
 
फ्रांस और बेलजियम - 68 वीं सूची - मैदान में घावों से मरा - नं 77 सिखराइफल्स जमादार लहनासिंह
 
लहना का सिर अपनी गोद में रखे वजीरासिंह बैठा है। जब मांगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना फिर चुप रहा, फिर बोला-- कौन? कीरतसिंह?
वजीरा ने कुछ समझकर कहा-- हाँ।
-- भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।
वजीरा ने वैसा ही किया ।
-- हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस। अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चाचा-भतीजा दोनों यहीँ बैठकर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही बड़ा यह आम, जिस महीने उसका जन्म हुआ था उसी महीने मैने इसे लगाया था।
वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे। कुछ दिन पीछे लोगों ने अख़बारो में पढ़ा---
फ्रांस और बेलजियम-- 67वीं सूची-- मैदान में घावों से मरा -- न. 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।
==सन्दर्भ==
[http://www.hindikahani.hindi-kavita.com/UsneKahaThaChandradharSharmaGuleri.php उसने कहा था।]