"हिंदी 'ग':वाणिज्य स्नातक कार्यक्रम/सूरदास": अवतरणों में अंतर

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उधो, मन न भए दस बीस।
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
एक हुतो सो गयौ स्याम संग, को अवराधै ईस॥
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
सिथिल भईं सबहीं माधौ बिनु जथा देह बिनु सीस।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
स्वासा अटकिरही आसा लगि, जीवहिं कोटि बरीस॥
ज्यौं जल माहँ तेल की गागरि, बूँद न ताकौं लागी।
तुम तौ सखा स्यामसुन्दर के, सकल जोग के ईस।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बोरयौ, दृष्टि न रूप परागी।
सूरदास, रसिकन की बतियां पुरवौ मन जगदीस॥</poem>
‘सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।
 
 
टिप्पणी :- गोपियां कहती है, `मन तो हमारा एक ही है, दस-बीस मन तो हैं नहीं कि एक को किसी के लगा दें और दूसरे को किसी और में। अब वह भी नहीं है, कृष्ण के साथ अब वह भी चला गया। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म की उपासना अब किस मन से करें ?" `स्वासा....बरीस,' गोपियां कहती हैं,"यों तो हम बिना सिर की-सी हो गई हैं, हम कृष्ण वियोगिनी हैं, तो भी श्याम-मिलन की आशा में इस सिर-विहीन शरीर में हम अपने प्राणों को करोड़ों वर्ष रख सकती हैं।" `सकल जोग के ईस' क्या कहना, तुम तो योगियों में भी शिरोमणि हो। यह व्यंग्य है।
 
 
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शब्दार्थ :- हुतो =था। अवराधै = आराधना करे, उपासना करे। ईस =निर्गुण ईश्वर। सिथिल भईं = निष्प्राण सी हो गई हैं। स्वासा = श्वास, प्राण। बरीश = वर्ष का अपभ्रंश। पुरवौ मन = मन की इच्छा पूरी करो।